भारतीय मुसलमानों को डर और अनिश्चय में फंसाये रख कर साम्प्रदायिक हिन्दुओं का भावनात्मक शोषण कर के उनके वोट हासिल करना मोदी और अमित शाह की नेतृत्व वाली बीजेपी की राजनीति का हिस्सा है। कटु सच यह है कि इसका सियासी फायदा उन्हें इतना मिलता रहा है कि वे अब देश को झकझोर देने वाले अन्य मुद्दों पर सोचते भी नहीं। उनकी इस पॉलिसी का पूर्ण विवरण लिखा जाए तो किताब तैयार हो सकती है लेकिन यदि 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार से लेकर नागरिक्ता संशोधन विधेयक और नागरिकता रजिस्टर के संबंध में बीजेपी की पॉलिसी देखें तो उपर्युक्त दावे की सचाई सामने आ जाएगी।
सरकार के उपर्युक्त दोनों एलानों से मुसलमान कितना चिंतित और भयभीत है इसका अंदाज़ा इसी से है कि जिनके दादा परदादा गाँव छोड़ कर चले गए थे और जिन्होंने कभी अपने पैतृक गाँव की तरफ झाँक कर भी नहीं देखा था, वे भी अब गाँव वापस आ कर वहां के बुज़ुर्गों से अपने बाप दादा के बारे में मालूमात हासिल कर रहे हैं और नागरिकता के सुबूत के लिए पेपर्स तैयार कराने की बात कर रहे हैं। इस डर और चिंता का मुख्य कारण यह है कि मोदी योगी सरकार से उन्हें इन्साफ की न कभी उम्मीद थी न है लेकिन राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के रवैये के कारण उन्हें इन्साफ के इन मंदिरों से भी इन्साफ मिलने की उम्मीद नहीं है। राष्ट्रपति केवल मंत्रिमंडल के फैसलों पर मुहर लगाने के लिए नहीं हैं, वे संविधान के संरक्षक भी हैं और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा परम कर्तव्य है लेकिन राष्ट्रपति कोविंद जिस तरह आँख बंद कर के फैसलों को मंज़ूरी दे रहे हैं और सरकार से एक बार भी उसके फैसलों पर पुनर्विचार के लिए नहीं कह रहे हैं उससे नागरिकों में उनके प्रति गहरा क्षोभ पाया जाता है।
याद कीजिये स्वर्गीय राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अवाम के बुनियादी अधिकार पर कुठाराघात करने वाले पोस्टल बिल पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर के लोकसभा में ज़बरदस्त ताक़त रखने वाली राजीव गांधी की सरकार को हिला के रख दिया था और उसे वह बिल वापस लेना पड़ा था। पोस्टल बिल से हज़ार गुना खतरनाक नागरिकता संशोधन और नागरिक रजिस्टर हैं और यह सोचना भी मज़ाक़ लगता है कि राष्ट्रपति इन बिलों पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर देंगे। यही हाल सुप्रीम कोर्ट का है। कश्मीर और बाबरी मस्जिद के सिलसिले में उसके अंदाज़ और फैसलों से देश का हर इन्साफपसंद नागरिक चिंतित है।
जब संविधान और नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की संरक्षक ये दोनों संस्थाएं बेरीढ़ हो चुकी हों तो जनता किससे उम्मीद करे, किस पर विश्वास करे। यह केवल देश के अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का ही मुद्दा नहीं है बल्कि देश के लोकतंत्र को लेकर चिंतित देश के सभी नागरिकों का मुद्दा है।आंबेडकर रचित संविधान को धता बता कर गोलवलकर के “बंच ऑफ़ थॉट्स” के अनुसार देश को ढालने का प्रयत्न मोदी और अमित शाह की जोड़ी कर रही है। उनकी पूरी कोशिश देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी अर्थात 25 करोड़ मुसलमानों में अलग थलग पड़ जाने, पराजित होने और असहाय होने का एहसास पैदा करना है ताकि वह संविधान के अनुसार खुद को देश के बराबर के नहीं बल्कि दूसरे दर्जे का नागरिक समझे। बदक़िस्मती से उन्हें देश के एक वर्ग की हिमायत भी मिल रही है क्योंकि विगत कई वर्षों से मुसलमानों और उनके धर्म इस्लाम का दानवीकरण किया जाता रहा है जिसमें मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
देश के कर्णधार यह नहीं बता रहे हैं कि जिनकी नागरिकता समाप्त की जायेगी वे कहाँ भेजे जायेंगे क्योंकि कोई अन्य देश तो उन्हें लेगा नहीं। समुद्र में ढकेलेंगे या फिर कैम्पों में रखेंगे। इस पूरी छानबीन पर कितना खर्च आएगा, फिर कैम्पों पर खर्च आएगा? संघ की विचारधारा लागू करने के लिए देश के युवाओं के हाथों में कटोरा भी नहीं बचेगा, सोचिये केवल कश्मीर में क़ानून व्यवस्था पर 100 करोड़ रुपया प्रतिदिन खर्च हो रहा है। असम के कैंप में 19 लाख लोगों को रखा गया हैं जिनमें 13 लाख हिन्दू और 6 लाख मुस्लिम हैं, उन पर कितना खर्च आ रहा होगा यह कोई नहीं सोचता। बीजेपी देश को चौपट राज में बदल रही है और शर्मनाक हालत यह है कि राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हिंदी पट्टी की जनता की आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ है।
यह राष्ट्रपति की कमज़ोरी और सुप्रीम कोर्ट की खामोशी ही है कि लोकसभा में संविधान की दुर्गति कर के एक राज्य को इस लिए ख़त्म कर दिया गया क्योंकि वहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। आर्टिकल 370 समाप्त करने के लिए जो रास्ता चुना गया उससे तो देश के किसी भी राज्य के वजूद को खत्म कर के उसे यूनियन टेरिटरी बनाया जा सकता है, केवल गवर्नर की कथित संस्तुति काफी होगी। संविधान के अनुसार आर्टिकल 370 को खत्म करने के लिए लोकसभा के साथ ही साथ जम्मू कश्मीर विधानसभा की मंज़ूरी भी ज़रूरी थी। मंसूबे के तहत पहले वहां की विधानसभा समाप्त की गयी, फिर गवर्नर जो संविधान के हिसाब से राष्ट्रपति या केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है उससे कथित संस्तुति लेकर यह आर्टिकल हटा दिया गया और राष्ट्रपति ने आँख मूँद कर उसे मंज़ूरी भी दे दी और सुप्रीम कोर्ट तारीख़ पर तारीख दे कर दिनदहाड़े पड़ने वाले इस डाके को जीवन प्रदान कर रहा है।
लगभग 150 दिनों से घाटी के अवाम बुनियादी नागरिक सहूलियात से वंचित हैं। पूरी घाटी को दुनिया का सब से बड़ा जेलखाना बना दिया गया है और संविधान के रक्षक मूकदर्शक बने हुए हैं। दुःख तो इस बात का है कि आर्टिकल 356 के नाम से ही बिदकने वाली क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इस असंवैधानिक कृत्य को सपोर्ट किया। आज कश्मीर की जनता जो कष्ट सह रही है उसके गुनहगार यह क्षेत्रीय दल भी हैं। यही नहीं, कश्मीर के भावनात्मक रूप से भारत से अलग हो जाने का जुर्म भी इन्हीं के खाते में जाएगा। कश्मीर की ज़मीन को ताक़त के बल पर भले ही भारत में मिलाये रखा जाए लेकिन जिन कश्मीरियों ने तीन दिनों तक निहत्थे होते हुए भी पाकिस्तानी सेना/क़बाइलियों को कश्मीर पर क़ब्ज़ा नहीं करने दिया था वह आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
बाबरी मस्जिद के मुक़दमे में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला दिया जो इंसाफ का मज़ाक़ उड़ाना है। सुप्रीम कोर्ट के ही कई रिटायर्ड जजों ने इस फैसले पर सवाल खड़े किये हैं। जब सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मस्जिद कोई मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गई, 1949 में गैरक़ानूनी तरीके से मस्जिद में मूर्ति रखी गई अर्थात रामलला के प्रकट होने की कहानी को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया, 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने को भी सुप्रीम कोर्ट ने गैरक़ानूनी बताया और उसके मुल्ज़िमों के ख़िलाफ सीबीआई अदालत में चल रहे मुक़दमों को जल्द निपटाने का आदेश दिया, तो फिर विवादित भूमि मंदिर बनाने के लिए क्यों दी? कर्नाटक के दल बदलू विधायकों की सदस्य्ता समाप्त करने को सही कहा लेकिन उन्हें चुनाव लड़ने की छूट दे दी यानी दोनों को खुश कर दिया, यह अजीबोगरीब स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट न्याय करने के बजाय पंचायत कर रहा है।
ऐसे ही राफेल मामला हो या जज लोया की संदिग्ध मौत का या अन्य केस, सुप्रीम कोर्ट मोदी हुकूमत के हर गैरक़ानूनी काम को किसी न किसी तरह बचा लेता है। फिर इंसाफ और संवैधानिक अधिकारों के लिए भारतीय नागरिक कहाँ जाएँ, इस सवाल का जवाब कौन देगा?