बासी ख़बर को नई बताकर ‘स्टीरियोटाइप’ परोस रहा है बीबीसी !

इसराइली भाषा हिब्रू पढ़ाने वाला मुसलमान प्रोफ़ेसर… बीबीसी हिंदी में यह ख़बर 5 जुलाई को छापी है। संवाददाता सुशील झा की इस ख़बर में ज़ोर प्रोफ़ेसर के मुसलमान होने पर है…यही ख़बर का ऐंगल है क्योंकि संवाददाता समेत यह आम धारणा है कि मुसलमान हिब्रू नहीं पढ़ते क्योंकि यह इज़रायल की भाषा है (जो मुसलमानों का जानी दुश्मन है !)

बीबीसी ने हिब्रू के इन प्रोफ़ेसर साहब को स्टूडियो बुलाकर बातचीत भी की है जिसका वीडियो डाला गया है। पर क्या यह कोई नई ख़बर है ? सच्चाई यह है टाइम्स ऑफ इंडिया  24 जनवरी 2016 को यह ख़बर इसी शीर्षक से छाप चुका है-

 Only Hebrew teacher in Indian university is a Muslim 

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम लिखता है: “आप सोच रहे होंगे ये ख़ुर्शीद इमाम कौन हैं और इनका क्या ही रिश्ता होगा इसराइल से और अगर होगा भी तो वही होगा जो एक मुसलमान का इसराइल के साथ होता है. आलोचना का.”

वहीं टाइम्स ऑफ इंडिया लिखा था: Meet Dr Khurshid Imam, a devout Muslim and the only teacher of Hebrew at a university in India, Jawaharlal Nehru University.

इतना ही नहीं, scroll.in ने भी इस पर एक स्टोरी की थी जो 12 जनवरी 2016  को प्रकाशित हुई थी। 6 जुलाई 2017 को इसे दोबारा पेश किया गया है–

The only Hebrew teacher in Indian academia is a devout Muslim

यानी बीबीसी की इस बाईलाइन स्टोरी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले मीडिया में नहीं लिखा, कहा गया हो।

कुछ महीने पहले बीबीसी की पूर्व रेडियो निदेशक हेलेन बोदेन ने सवाल उठाया था कि व्याख्या और खोज (explain and explore) का काम क्या आज का मीडिया कर रहा है?  (Do we, the media, do enough today, to explain and explore? Or are we too busy moving on to the next thing, in thrall to the pace of news?)

बीबीसी की इस स्टोरी में यह भी कहीं नहीं है कि खुर्शीद इमाम के छात्रों की रूचि हिब्रू में है या नहीं. उन छात्रों का प्रोफाइल क्या है. क्या मुसलमान छात्रों का जोर हिब्रू सीखने में है ?

बीबीसी प्रो.ख़ुर्शीद इमाम से पूछता है कि ‘एक मुसलमान होकर हिब्रू पढ़ाने का फैसला क्या आसपास के लोगों के लिए अटपटा नहीं था ? ’

दिलचस्प बात है कि प्रो.इमाम भाषा और मज़बह से जुड़े तमाम स्टीरियोटाइप पर सवाल उठाते हैं, लेकिन बीबीसी उसी स्टीरियोटाइप का शिकार है।

बीबीसी हिंदी को लेकर इन दिनों काफ़ी सवाल उठ रहे हैं। कुछ लोग मानने लगे हैं कि हिंदी की तमाम अख़बारी वेबसाइटों के मुक़ाबले का दबाव झेल रहा बीबीसी अपनी ही तमाम कसौटियों को भुलाता जा रहा है।

प्रो.इमाम से जुड़ी ख़बर पर फ़ेसबुक पर भी बहस चली।  बीबीसी के संवाददाता सुशील झा (जे.सुशील) ने कहा कि जेएनयू में उनके स्टूडेंट मुसलमान बिलकुल ही नहीं होते, वहीं अरविंद दास ने फ़ोन पर बात की तो खुर्शीद इमाम ने बताया कि इंडियन मुस्लिम स्टूडेंटस तो होते ही हैं, अरब के, मिश्र के, इरान के, अफगानिस्तान के भी स्टूडेंटस होते हैं.


असल में ऑनलाइन की दुनिया में इन दिनों फेसबुक जर्नलिज्म पर जोर है. मतलब जो आसानी से हाथ आ जाए. इसी तरह पिछले दिनों बीबीसी ने एक रिपोर्ट में पूछा कि ‘अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हिन्दू का पढ़ना कितना मुश्किल?

इस रिपोर्ट में एक छात्रा (जिसके बदले नाम में ‘यादव’ जोड़ने पर भी सवाल हैं )के हवाले से कहलवा दिया कि ‘वॉशरूम में केतलीनुमा लोटा होता है जिसकी कभी आदत नहीं रही.’

एएमयू के छात्रों में इस स्टोरी को लेकर काफी रोष है और वे बीबीसी के पूर्वाग्रह को रेखांकित कर रहे हैं कि किस तरह लोटा बीबीसी हिंदी के लिए सांप्रदायिक हो गया.

हालांकि बीबीसी का कहना है कि सारी बातचीत ऑन रिकार्ड है, लेकिन जब देश में सत्ता सांप्रदायिक सौहार्द को बिगड़ाने में लगी है, बिना पड़ताल किए, देश की सामासिक संस्कृति को समझे बिना इस तरह की स्टिरियोटाइप रिपोर्ट से बीबीसी के संपादकीय नीति पर सवाल खड़ा होता है. बीबीसी के लिए कभी प्रोफेसर मुसलमान हो जाता है तो कभी लोटा !

कुल मिलाकर हिंदी जगत को बीबीसी से कुछ ज़्यादा की उम्मीद है..वरना उसके पास पत्रकारिता के नाम पर हड़बड़ी और गड़बड़ी करने वालों की कोई कमी नहीं है।

बर्बरीक

 

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