बीबीसी के ‘बटुकों’ के लिए जेएनयू बना अंधों का हाथी !

अरविंद दास

 

बीबीसी हिंदी ऑन लाइन ने इन दिनों एक सिरीज चला रखी है. जिसके मुताबिक –

‘बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यकों का होना मुश्किल है या आसान? कोई अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक धर्म, भाषा, इलाक़ा या नस्ल के आधार पर हो सकता है.

क्या अल्पसंख्यकों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है? बीबीसी हिन्दी ने इसी चीज़ को समझने की कोशिश की है. इस कड़ी में पढ़िए जेएनयू में ‘वैचारिक रूप से अल्पसंख्यक छात्र’ कैसा महसूस करते हैं.’

वैचारिक रूप से अल्पसंख्यक छात्र का मतलब क्या है?

अगर वैचारिक रूप से का मतलब विचारधारात्मक रूप से (और विचारधारा का हम पापुलर अर्थ ही ले) है तो जाहिर है जेएनयू में बारे में मीडिया और आम लोगों के मन में छवि एक मार्क्सवादी चेतना से लैस संस्थान की बनती है, जहाँ वर्ग चेतना प्रमुख है, पूंजीवादी और सांप्रदायिक सत्ता की आलोचना का स्वर मुखर है और जिसकी संवेदना हाशिए के समाज के प्रति है.

बहरहाल, पूरा लेख पढ़ने पर भी यह समझ नहीं आया कि लेखक, जो जेएनयू का छात्र है, ‘बहुसंख्यक’ है या ‘अल्पसंख्यक’. गोकि वह कहता है-‘आगे अपनी बात लिखने से पहले ये बता दूं कि मैं कभी भी वामपंथी नहीं रहा और न ही दक्षिणपंथ कभी रहा हूं. इस विश्वविद्यालय में तकरीबन अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा लोग मेरे जैसे ही हैं जिनके लिए ‘लेफ़्ट और राइट’ से परे कोई ज़मीन हो.’

तो फिर किसकी विचारधारा? दीवारों की, प्रोफेसरों की या मार्क्सवादी किताबों में जो विचारधारा की बातें लिखी हुई उसकी? लेखक जोड़ता है- ‘और अगर हैं भी तो उनकी विचारधारा सिर्फ जातिगत ही है. चाहे ओबीसी फ़ोरम हो या बापसा (sic). मैं इस संस्थान को तकरीबन आठ साल में अपने कई अनुभवों में जीता रहा हूं.’

मतलब कि जेएनयू जातिवादियों का गढ़ है. क्या लेखक जाति आधारित राजनीति को जाति-विद्वेष के रूप में तो नहीं देख रहे?

लेखक आगे लिखता है- ‘लाल रंगों से सनी हुई दीवारें दुनिया भर में लेफ़्ट मूवमेंट्स को ख़ालिस बयां करती हैं. यहां दक्षिणपंथ तमाम उम्र जीने के बाद भी दीवारों में कभी ख़ुद के लिए कोई खास जग़ह नहीं बना पाया.’

सच में, एबीवीपी के संदीप महापात्रा जब जेएनयूएसयू के प्रेसिडेंट बने थे, तब क्या वे झंडेवालन से सीधे उतरे….आनंद कुमार ने जब करात को हराया तब? और इसके अलावे विभिन्न स्कूलों में दक्षिणपंथी कौंसिलर जो जीतते रहे उनका क्या. दो साल पहले भी छात्रसंघ में दक्षिणपंथी नेता मौजूद थे. जेएनयूएसयू में निर्दलीय उम्मीदवार भी जीत चुके हैं. जेएनयू के अंदर मंडल कमीशन का विरोध करने वाले लोग रहे हैं और यूथ फॉर इक्वालिटी के समर्थक भी.

यह लिखने के बाद कि लेखक वाम और दक्षिण दोनों से जुदा है, मतलब लिबरल है (जो बीबीसी को शायद सूट करता है) वह लिखता है- मैंने लेफ़्ट की लड़ाई में भी हिस्सा लिया है और दक्षिणपंथी दोस्तों के लिए पर्चे भी लिखे हैं.’

जिनकी भी जेएनयू छात्र राजनीति की थोड़ी भी दिलचस्पी है वे जानते हैं कि दक्षिणपंथी दोस्तों के लिए पर्चे लेफ्ट वाले नहीं लिखते-पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

और आगे लेखक के मुताबिक- ‘अपने मज़बूत काडर और प्रोफ़ेसरों से नजदीकियों की वजह से लेफ़्ट पार्टियों ने कभी भी किसी और विचारधारा को बढ़ने का मौका नहीं दिया.’

जेएनयू एक लोकतांत्रिक जगह है वहां, दक्षिण, वाम, सेंटर, अल्ट्रा, वूमेन, queer आदि विचारधारा वालों के लिए हमेशा से जगह रही है. संघ का शाखा वहां लगता रहा है…वे नहीं बढ़े तो क्या वाम विचारधारा वाले वहाँ शाखा लगाने जाते? और जेएनयू में काडर क्या लोग जन्मजात होते हैं?

फिर पता नहीं क्यों लेखक यह उलटबांसी क्यों लिखता है- ‘लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अगर ये संस्थान दुनिया भर में अपनी साख बनाने में कामयाब रहा है तो लेफ़्ट का उसमे बहुत योगदान है. और यह भी कि किसी स्टूडेंट को लेफ़्ट विरोधी विचारधारा की वजह से कभी किसी को जेएनयू नहीं छोड़ना पड़ा.’

हम तो समझे थे कि बीबीसी अल्पसंख्यक छात्र का अनुभव के बहाने दुनिया के सामने कुछ और लाना चाहता था…और जो कुछ भी वह इस लेख के बहाने सामने लाता है वह महज आरोप है. जैसे-अगर आप लेफ़्ट से रहे हैं, तो प्रोफ़ेसर आपके लिए अलग नियम रखते हैं. लेकिन यह नियम क्या हैं, पूरा लेख पढ़ने पर भी स्पष्ट नहीं होता.

सच तो यह है कि दक्षिणपंथी विचारवाले जेल में छात्रों को भरते रहे हैं. चाहे कांग्रेस की सरकार हो (आपातकाल के दौरान) या बीजेपी की वर्तमान सरकार.

एक बात लेखक ने ठीक ही लिखा है कि-जेएनयू ने हमेशा हर सरकार की नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई. चाहे वो पुरानी सरकारें रही हों या वर्तमान में मोदी सरकार.

मतलब जेएनयू से प्रतिरोध का स्वर हमेशा उठता रहा है. हाल के वर्षों में छात्रों ने निर्भया आँदोलन को देश और पूरी दुनिया में पहुँचाया था. हैदराबाद और पुणे स्थित फिल्म संस्थानों के छात्र आँदोलन में शिरकत की थी. और अब जब मोदी सरकार अपने पूरे बल के साथ उनके पीछे पड़ी है तब वे लड़ रहे हैं, एक नहीं कई मोर्चे पर.

लेखक लिखता है- ‘वैसे संस्थान के भीतर भी विचारधारा इतनी सतही हो चुकी है कि यहां खुद जेएनयू को अपने फ़ायदे के लिए दक्षिणपंथी प्रोफ़ेसर्स इसे बंद कराने तक की बात कर देते हैं.

मतलब दक्षिणपंथी विचारधारा वाले इतने कूढमगज़ है कि वे संस्थान को बंद करवाने कि लिए तत्पर हैं. फिर सोचिए कि लेखक के इस पंक्ति को ‘मेरे अपने अनुभव में कभी भी लेफ़्ट ने दक्षिणपंथ को बराबरी की नज़र से नहीं देखा’, हम किस रूप में पढ़े.

ऐसा लगता है कि बीबीसी के सारे संपादक सिरिज शुरू कर छुट्टी पर चले गए, या वे भी मौजूदा दौर में सत्ता के विचार और विचारधारा के साथ कदमताल मिलाने की कोशिश में हैं जैसा कि भारत का मीडिया मोदीमय हो चुका है.

अंत में, लेख का शीर्षक है- ‘सतही हो चुकी है जेएनयू की भीतरी विचारधारा’ (इसे कोट के अंदर रखा गया है).

क्या भीतरी और बाहरी विचारधारा अलग-अलग होती है. पेट की अलग और पीठ की अलग? बीबीसी हिंदी को खुद से यह पूछना चाहिए!



लेखक पेशे से पत्रकार हैं। मीडिया पर कई शोधों में संलग्‍न रहे हैं। नब्‍बे के दशक में मीडिया पर बाज़ार के प्रभाव पर इनका शोध रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से पढ़ाई-लिखाई। इनकी पुस्‍तक ‘हिंदी में समाचार’ काफी लोकप्रिय रही है। दो विदेशी लेखकों के साथ धर्म और मीडिया पर एक पुस्‍तक का संयुक्‍त संपादन। फिलहाल करण थापर के साथ जुड़े हैं।


 

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