पंकज श्रीवास्तव
‘जंग में सब जायज़’ जैसे अनैतिक मुहावरे को स्वीकार करने वाले देश में इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि रवीश कुमार के ख़िलाफ़ लगातार झूठ फैलाया जा रहा है। मक़सद लोगों में रवीश के प्रति नफ़रत भरना है। और गुनाह? गुनाह बस इतना है कि रवीश ‘गोदी पत्रकारिता’ को निशाने पर रखते हुए पत्रकारिता का बुनियादी काम कर रहे हैं। यानी औरों की तरह उन्होंने सवाल उठाना बंद नहीं किया है। और भक्तों को निर्देश है कि ‘भगवान’ पर सवाल उठाने वालों को छोड़ना नहीं है। इतिहास इस पर हँसेगा कि रवीश का यह गुनाह ही सरकार के ख़िलाफ ‘जंग’ छेड़ना कहा गया!
वैसे गौर से देखिए तो रवीश की पत्रकारिता में कुछ भी ‘महान’ नहीं है। वे तमाम आँकड़ों को जुटाकर पर्दे पर लंबे-लंबे निबंध पढ़ते हैं (ओ शिट, बैड टीवी- नंबरी चैनल वाले बोलते हैं)। बस होता ये है कि ये आँकड़े आमतौर पर सरकारी होते हैं जिससे सत्ताधीशों का असली चेहरा उजागर हो जाता है। हद तो ये है कि रवीश आजकल राजनीतिक मसलों पर कार्यक्रम लगभग नहीं करते, फिर भी वे राजनीति के निशाने पर हैं। उनकी बैंक सिरीज़, नौकरी सिरीज़ या विश्वविद्यालय सिरीज़, बीस साल पहले की पत्रकारिता की याद दिलाता है जो लिबरलाइज़ेशन के साथ चमकी ‘फ़ील गुड’ पत्रकारिता में कहीं फिट नहीं बैठती। लेकिन यह फिट न बैठना ही महाबली मोदी जी को ‘मिसफिट’ करार देती है और उनके भक्त इस ‘ज़ीरो टीआरपी ऐंकर’ के ख़िलाफ़ पिल पड़ते हैं।
ये हमले उसी की सबूत हैं। आज तक किसी ने भी रवीश के किसी आँकड़े, या किसी स्टोरी के तथ्यपरक न होने का सवाल नहीं उठाया। रवीश पर हमले के लिए आरोप ‘गढ़े’ जाते हैं। अब जैसे गाज़ीपुर में हाल में एक मदरसे में हुए रेपकांड का ही मामला लीजिए। रवीश के ख़िलाफ़ ऐसा घृणित अभियान चलाया गया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हालाँकि ऐसा करने वालों के दिमाग़ी हाल की कल्पना आप आसानी से कर सकते हैं।
इस पूरे मामले का भंडाफोड़ आल्ट न्यूज़ ने किया है। इस मामले में देशहित की बात नाम के एक फेसबुक पेज ने 29 अप्रैल 2018 को एक फ़र्ज़ी तस्वीर शेयर की जिसे 8000 से ज्यादा बार शेयर किया गया। इस पेज के 75000 पालोअर्स हैं। इसके मुताबिक रवीश कुमार ने रेप को इच्छा से यौन संबंध करार दिया था।
इस तस्वीर को ऐसे कई फ़ेसबुक पेज पर जमकर शेयर किया गया जो बीजेपी या मोदी के प्रशंसकों ने बनाए हैं। आप यह पूरी स्टोरी यहाँ पढ़ सकते हैं।
रवीश ने फ़ेसबुक पर इसकी सफ़ाई दी, लेकिन कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
यह समकालीन टीवी पत्रकारिता, ख़ासतौर पर हिंदी पत्रकारिता पर एक गंभीर टिप्पणी है जब एक ऐंकर को अलग-थलग करके शिकार किया जा रहा है। उससे भी बड़ी बात है पत्रकारों, संपादकों और संगठनों की चुप्पी। अक्सर यह देखा गया है कि किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या अन्य रसूखदार व्यक्ति के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर टिप्पणी को लेकर मुकदमे दर्ज होते हैं, और पुलिस झटपठ गिरफ्तार भी कर लेती है, लेकिन रवीश कुमार के मामले में किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
ऐसा लगता है कि हम भारत के गणतंत्र के साक्षी नहीं रोम में ग्लेडियेटर को लहूलुहान होता देख रहे हैं। दरिंदे हमला कर रहे हैं,सभासद ताली बजा रहे हैं और नीरो बंसी बजाता झूम रहा है।
हालात इतने बुरे हो चले हैं, इसे समझने के लिए रवीश कुमार की यह फ़ेसबुक पोस्ट पढ़िए। और सोचिए कि क्या किसी पत्रकार का इस तरह आखेट किया जा सकता है–
“अब मेरी एक तस्वीर वायरल की जा रही है, मैं ईयरफोन लगाकर रखता हूं और रखूंगा
कल रात मेरी सुरक्षा से एक समझौता हुआ। ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ था। तभी देखा कि एक लड़का अपना चेहरा छिपा कर फोन ऊपर कर तस्वीर ले
कई बार कार का पीछा कर देते हैं। फोटो लेने लगते हैं। फैन का फोटो खींचना अलग होता है। मगर ये लोग चेज़ करते हैं। संदिग्ध तरीके से फोटो लेकर, गाड़ी का नंबर लेने लगते हैं। अब दिमाग़ ऐसा हो गया है कि पहले अलर्ट बटन ऑन हो जाता है। कल मेरी कार जाम में रूकी हुई थी। फोन पर लगातार ट्रोल के फोन आ रहे थे। शक हो गया कि पता नहीं यह इस सूचना का क्या करेगा। किसे बताएगा। मैं ईयरपीस पर बात नहीं करता। मुझे पता है इसके ख़तरे मगर मैं ईयरपीस लगाकर रखता हूं और रखूंगा। मैं इसका कुछ नहीं कर सकता। आप क्या करेंगे जब कोई चेज़ करने लगे। आप अंत समय में तार नहीं खोजेंगे। फोन नहीं खोजेंगे।
जो लड़का फोटो खींच रहा था वो एक प्राइवेट टैक्सी में जा रहा था और आगे की सीट पर बैठा था। मैंने कार बराबर ले जाकर हार्न भी बजाया कि ये कौन है क्यों फोटो खींच रहा है तो पीछे की सीट पर बैठे उसके मां बाप हंस रहे थे। ट्रैफिक जाम के कारण एक बार और मौका मिला तो साथ बैठे किसी को भेजा। लड़के ने कहा कि तस्वीर इसलिए ली क्योंकि हम उनके फैन हैं।
मैं ख़तरों के बीच रहता हूं। मुझे अलर्ट रहना ही पड़ता है। मैं खुद नियमों का पालन करने वाला नागरिक हूं। आज तक कार चलाते वक्त कभी कोई नियम नहीं तोड़ा है। लेकिन कोई फोटो खींचे और वीडियो बनाए तो मुझे शक करना पड़ता है कि इसका इरादा क्या होगा। कोई फैन ऐसे तो नहीं करेगा। कुछ दिन पहले फैमिली के साथ खाने गया था। बगल की मेज से चार लड़के अपना फोन छिपा कर वीडियो बना रहे थे। पूरी लाइफ बदल गई है।
आज आप उस तस्वीर को वायरल होते देख रहे हैं। क्या कर सकते हैं। ये पहले भीड़ से आप पर हमले करवाएंगे, फोन पर दिन रात गाली दिलवाएंगे और एक बार आप आपा खो दें और किसी को गाली बक दें तो उसकी रिकार्डिंग कर वायरल करेंगे। अब ये सब मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है। आप इस ख़तरे की आशंका में बिना सुरक्षा के जी कर दिखा दीजिए तब जब हज़ारों की भीड़ आपका पीछा कर रही हो। फोन पर और कभी भी सड़कों पर भी। इस लड़के ने मेरी सुरक्षा से भी क्रांपोमाइज किया है। अब सबको पता है कि मैं अकेले आता हूं कार चला कर। ऐसे किसी वक्त किसी पत्रकार जी ने जोश में फर्ज़ी सैलरी लिख दी। मेरी सुरक्षा को ख़तरे में डाल दिया। उन्हें तो यह बात समझ नहीं आई होगी मगर ध्यान से सोचेंगे तो समझ जाएंगे। जिस दिन कुछ हुआ उस दिन उनको पकड़ूंगा।”
कभी-कभी शक होता है कि रवीश पर ऐसे हमले सिर्फ़ पत्रकारिता की वजह से हो रहे हैं या बात कुछ और है। एक चीज़ है जो इस झुंझलाहट की वजह हो सकती है। रवीश अपने कार्यक्रमों में लगातार ‘हिंदू-मुस्लिम’ छोड़ कर, रोज़गार, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर बात करने की अपील करते हैं। यही नहीं, उनके आह्वान पर सैकड़ों हिंदू-मुस्लिम नौजवानों ने शपथपत्र में लिखकर उनके पास भेजा है कि वे आगे से ऐसा नहीं करेंगे। (यह काम खुद को सेक्युलर कहने वालों दलों को करना चाहिए, पर वे चुप हैं।) एक ऐसे दौर में जब पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा दंगाई हो उठा हो, एक पत्रकार का अकेले ऐसे करना बड़ी ख़बर है जो न कहीं छप रही है और न दिखाई जा रही है। हालांकि एक ज़माने में पत्रकारिता करने वालों का यह मूल धर्म था समझा जाता था कि वे हर हाल में धार्मिक उन्माद के ख़िलाफ़ अलख जगाएँगे। गणेश शंकर विद्यार्थी इस मोर्चे पर शहीद हुए थे। वे आज भी हिंदी पत्रकारिता के सिरमौर कहे जाते हैं। (यह अलग बात है कि उनके नाम पर स्थापित सम्मान दंगाई पत्रकारों को दिए जा रहे हैं।)
समझा जा सकता है कि बीजेपी समर्थकों और भगवान के भक्तों की आँख में रवीश इस कदर क्यों खटकते हैं। रवीश को मिलने वाला हर शपथपत्र इस राजनीति पर एक गाली है।
वैसे, इस मसले पर ‘चुप्पी’ भी गाली ही है।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।