अगर इतना ही होता तो क्या बात थी, लेकिन इस धटना पर बस्तर के आइजी कल्लूरी
एक लोकतांत्रिक देश का पुलिस अफ़सर अगर ऑन दी रिकॉर्ड ऐसी अभद्र भाषा का प्रयोग किसी महिला के साथ करता है, एक महिला को खुलेआम मिली धमकी पर उससे मकान खाली करवा लेता है और मीडिया में इस पर चुप्पी छाई रहती है, तो समझिए कि यह चुप्पी चुनी हुई है।
बेला ने उनसे थोड़ा समय मांगा और मौका देख कलक्टर को फोन कर मामले की जानकारी दी। इसके थोड़े देर बाद ही यहां मौके पर पुलिस पहुंची। लेकिन हुडदंगियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और वह लगातार उनके विरोध में नारे लगाते रहे। इसके बाद बेला द्वारा गुजारिश करने पर वे मंगलवार को शाम 6 बजे के पहले मकान खाली करने की बात पर सहमत हुए। उसके बाद यह लोग चले गए। घटना के वक्त बेला घर पर अकेली थी। वहीं बेला ने बताया कि जब उनकी कलक्टर से बात हुई तो उन्होंने वस्तु स्थिति की प्रत्यक्ष तौर पर उपस्थित होकर जानकारी देने की बात कही है।
बेला भाटिया पहली सोशल एक्टिविस्ट नहीं हैं जिन्हें बस्तर छोडऩे की धमकी मिली हो। इससे पहले मालिनी सुब्रह्मण्यम और जगदलपुर के लीगल ऐड की शालिनी गेरा, इशा खंडेलवाल को इसी तरह से धमकाकर बस्तर से बाहर किया जा चुका है। बेला के घर पहले भी धमकी भरे पर्चे फेंके जा चुके हैं। साथ ही बेला हाल ही में एनएचआर की टीम की मदद के लिए उनके दल के साथ पेद्दागेलूर और चिन्नागेलूर भी गईं थी। इससे पहले आप नेत्री सोनी सोढ़ी पर भी लगातार ऐसे हमलों का शिकार हो चुकी हैं।
बेला का कहना है कि मेरे मकान मालिक को परेशानी ना हो इसलिए मैं घर तो छोड़ रही हुं लेकिन बस्तर नहीं। बेला का यह भी कहना है कि बस्तर में जो कोई आदिवासियों के हक़ की बात कहेगा उसे इसी तरह बस्तर से बाहर निकाल दिया जायेगा। वह इससे डरने वाली नहीं, आदिवासियों के हक की लड़ाई वे हमेशा लड़ती रहेंगी। यह मेरा अधिकार है, और इसे उनसे कोई छीन नहीं सकता।
बेला ने बताया कि पुलिस व सरपंच के सामने हुड़दंगियों ने उनसे मकान खाली करवाने पत्र लिखवाया। जिसमें उन्होंने मंगलवार की शाम 6 बजे तक मकान खाली करने की बात खुद लिखी। वहीं उनका कहना है कि जो हुड़दंगी पहुंचे थे, वे इस गांव के नहीं थे। वह यहां करीब डेढ़ साल से रह रही हैं। इसलिए वे गांव वालों को अच्छी तरह पहचानती हैं।
ये घटनाएं दरअसल चुनी हुई चुप्पियों के सिलसिले का परिणाम है। साल भर पहले जब कुछ पत्रकारों को बस्तर छोड़ने की धमकी दी गई थी, तब भी मीडिया चुप था। जब सड़कों पर पुलिसवालों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के पुतले जलाए, तब भी मीडिया चुप था। जब कल्लूरी को प्रधानमंत्री मोदी ने सम्मानित किया, तब भी वह चुप रहा। मानवाधिकार आयोग के समन भेजने पर जब आइजी बस्तर पेश नहीं हुए, तब भी किसी पत्रकार ने पलट कर उनसे सवाल नहीं पूछा। आज बस्तर में जो कुछ हो रहा है, वह इन्हीं चुप्पियों का नतीजा है।
यही वजह है कि 24 जनवरी को जब देश के मानवाधिकार अधिवक्ताओं ने ”डे ऑफ
सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री रमन सिंह जब 26 जनवरी को रायपुर में छत्तीसगढ़ पुलिस की परेड से सलामी लेंगे, तो संविधान के किन मूल्यों की रक्षा करने की शपथ दुहरा रहे होंगे। जिस देश के एक प्रांत में लोकतंत्र केवल काग़ज़ पर बाकी हो और संविधान की धज्जियां पुलिस खुद उड़ा रही हो, वहां गणतंत्र दिवस मनाने का क्या औचित्य है?