‘फ़र्जी़वाड़ा’ है अररिया में ‘पाक ज़िंदाबाद’ का वायरल वीडियो!

अररिया लोकसभा उपचुनाव के दौरान बिहार बीजेपी अध्यक्ष नित्यानंद राय के इस बयान पर बड़ा हंगामा हुआ था कि अगर आरजेडी जीती तो यह क्षेत्र आईएसआईएस का गढ़ बन जाएगा। सोशल मीडिया में यही सब प्रचारित किया गया। लेकिन 14 मार्च को मतगणना हुई तो आरजेडी के सरफ़राज़ आलम जीत गए।

साफ़ है कि अररिया में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सारी कोशिशों पर जनता ने पानी फेर दिया। पर कोशिश करने वाले आसानी से हार कहाँ मानते। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने नित्यानंद राय जैसी भाषा नतीजा आने के बाद बोली, और जल्दी ही एक वीडियो सामने आ गया जिसमें सरफ़राज़ आलम की जीत का जश्न मनाते लड़के ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा लगा रहे थे। वीडियो वायरल हो गया जिसे देखते हुए पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर दो लोगों को गिरफ़्तार कर लिया।

इसके बाद तो स्वयंभू राष्ट्रभक्त चैनल ‘देशद्रोहियों’ के ख़िलाफ़ मोर्चे पर डट गए। नंबर वन चैनल ‘आज तक’ के संवाददाता रोहित सिंह ने बिना किसी फ़ारेंसिक जाँच के, पुलिस के हवाले से ऐलान कर दिया कि वीडियो असली है। सरफ़राज आलम के समर्थकों ने पाकिस्तान ज़िंदाबाद और भारत तोड़ो के नारे लगाए। स्टार ऐंकर श्वेता सिंह ने अफ़सोस में डूबी आवाज़ में सवाल किया- ‘राजनीतिक विरोध का ये कैसा नशा होता है जिसमें हम देश विरोध की सीमा भी लाँघ जाते है।’

उधर,टीवी के पर्दे से आए दिन पाकिस्तान के दाँत खट्टे करने वाले इंडिया टुडे के ऐंकर गौरव सावंत ने तुरंत अपराधियों को सख्त सज़ा देने का आह्वान कर डाला।

दूसरे चैनलों और एजेंसियों का भी यही हाल था।


लेकिन क्या मीडिया का ये फ़र्ज नहीं था कि इस वीडियो की सच्चाई का पता लगाता। ऐसा क्यों है कि संपादकों के दिमाग़ में एक बार भी ये सवाल नहीं उठता कि अररिया के बच्चे जीत की ख़ुशी में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे क्यों लगाएँगे? क्या यह समझ, उनके मन में छिपी उसी ग्रंथि का पता नहीं देती कि ‘सभी मुस्लिम देशद्रोही होते हैं, उनकी आस्था भारत नहीं पाकिस्तान के साथ है’ (आज़ादी के समय से आरएसए यही प्रचार करता आया है और वह इस सैद्धांतिकी पर भरोसा रखता है कि जिसकी पुण्यभूमि और पितृभूमि भारत नहीं है, वह देशभक्त हो ही नहीं सकता)।

यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि अररिया का मामला भी जेएनयू की तरह निकलता दिख रहा है। जैसे गढ़े गए वीडियो के ज़रिए जेएनयू और वामपंथी छात्रसंगठनों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया गया था, वैसे ही कुछ अररिया को लेकर भी हुआ। मीडिया में फ़र्जीवाड़ों के ख़ुलासे के लिए प्रतिबद्ध वेबसाइट आल्ट न्यूज़ ने वीडियो की वैज्ञानिक पड़ताल की तो पता चला कि वीडियो में अलग से ऑडियो जोड़ा गया है।

आल्ट न्यूज़ ने इस वीडियो को तीन तरीक़े से जाँचा। सबसे पहले आवाज़ की एडिटिंग करने वाले साफ्टवेयर AUDACITY में देखा गया तो पता चला कि इस संबंध में प्रसारित तीनों वीडियो में दो जगह ऑडियो वाल्यूम शून्य है (गोले में देखें), जिसका अर्थ है कि आवाज़ उड़ाई गई है।

उपर वेवफार्म का विस्तारित चित्र  है जिसमें शून्य ऑडियो लेबल साफ़ दिख रहा है यानी आवाज़ ग़ायब कर दी गई है।

जब साफ्टवेयर स्पेक में इसे जाँचा गया तो यहाँ भी वही दो जगह मिलीं जहाँ आवाज़ ग़ायब थी। यहाँ ये अंतर कुछ ज़्यादा ही साफ़ नज़र आ रहा था।

अगर वीडियो को सुना जाए तो बैकग्राउंड में गाड़ियों की आवाजाही की आवाज़ साफ़ है। लेकिन उसी निर्धारित जगह आवाज़ पूरी तरह ग़ायब हो जाती है।

यही नहीं, ये भी देखा गया कि आडियो और वीडियो में सिंक नहीं है। इसके लिए वीडियो एडिटर ffmpeg का इस्तेमाल किया गया। इससे वीडियो को 30 फ्रेम प्रति सेकेंड के हिसाब से तोड़ा गया। नीचे का कोलाज 3.100 सेकेंड से 3.767 के बीच का है।

और यह वेवफार्म बताता है कि 3.250 सेकेंड से 3.500 सेकेंट के बीच आवाज़ लगभग ग़ायब है। मुंह खोलने और आवाज़ आने के बीच बहुत गैप है। किसी फारैंसिक लैब से इसकी जाँच हो तो फर्जीवाड़ा आसान से प्रमाणित हो जाएगा।

सवाल ये है कि मीडिया बिना किसी किंतु-परंतु के ऐसी ख़बरों को क्यों प्रसारित करता है जो स्पष्ट रूप से राजनीतिक लाभ के लिए प्रसारित की जाती हैं। क्या इसे बिलकुल भी परवाह नहीं कि इससे देश में सांप्रदायिक तनाव फैल सकता है और तमाम बेगुनाहों की ज़िंदगी बरबाद हो सकती है।

आज तक वालों से यह सवाल ख़ासतौर पर है जिसके मालिक अरुण पुरी ने हाल ही में मुंबई में आयोजित इंडिया टुडे कान्क्लेव में इस प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए इसे लोकतंत्र के लिए ख़तरा बताया था। आज तक की हरक़तों से सिर्फ़ ये संदेश जाता है कि अरुण पुरी नाटक कर रहे थे। क्या नंबर वन चैनल के संपादक गण यही चाहते हैं।

 

बर्बरीक

 



 

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