इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा विश्वविद्यालय या संस्थान नहीं विभाग को इकाई मानकर आरक्षण लागू किए जाने के आदेश ने आरक्षण को जैसे निष्प्रभावी कर दिया है। विभागों में इतनी कम सीटें निकलती हैं कि आरक्षण लागू करने की ज़रूरत ही नहीं रहती। लेकिन यूजीसी ने इसके पालन का निर्देश जारी कर दिया है जिसके ख़िलाफ़ तमाम जगह आंदोलन जारी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) इसे लेकर सिलसिलेवार आंदोलन में जुटा है। मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) भी दायर की गई है, लेकिन यह महज़ नाटक है। वरना तमाम विश्वविद्यालयों में धड़ाधड़ नियुक्तियों का अभियान न चल रहा होता। कहा जा रहा है कि यह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले की आड़ में आरक्षित वर्गों के अधिकार को लूट लेने की योजना है। मोदी सरकार को इसका मौन समर्थन लगता है क्योंकि कुलपतियों की नकेल केंद्र से लेकर ज़्यादातर राज्य सरकारों के हाथ है, जहाँ ज़्यादातर बीजेपी का राज है। हद तो यह है कि 5 जून को जब डूटा के प्रतिनिधि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर से मिलने गए तो उन्होंने यह जानकारी होने से इंकार कर दिया कि विश्वविद्यालय और संस्थानों में नियुक्तियाँ हो रही हैं। पढ़िए इस आंदोलन में लगातार सक्रिय दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक डॉ.लक्ष्मण यादव क्या लिख रहे हैं। वे आँकड़ों के साथ लूट के इस खेल का पर्दाफ़ाश कर रहे हैं—संपादक
”मेरे जीते जी कोई माई का लाल आरक्षण को हाथ भी नहीं लगा सकता”- प्रधान सेवक ने यह बयान देने के पहले ही बिना हाथ लगाए आरक्षण ख़त्म
राजस्थान केन्द्रीय विवि
विज्ञापित पद- 33
Gen. – 33
OBC- 00
SC- 00
ST- 00
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कंगालान्चेरी, तमिलनाडु
विज्ञापित पद- 65
UR- 63
SC- 00
ST- 00
OBC- 02
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक
विज्ञापित पद- 52
UR- 51
SC- 00
SC- 00
OBC- 01
अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल
विज्ञापित पद- 18
UR- 18
SC- 00
SC- 00
OBC- 00
हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय
विज्ञापित पद- 80
UR- 80
SC- 00
ST- 00
OBC- 00
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
विज्ञापित पद- 99
UR- 79
SC- 07
ST- 00
OBC- 13
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
विज्ञापित पद- 60
UR- 52
SC- 03
ST- 00
OBC- 05
अब आप यदि प्रधान सेवक जी पर फ़िदा हैं तो भी या उनके आलोचक हैं तो भी; क्या आप इस खेल को सदी का सबसे नायाब मनुवादी, सामंती खेल नहीं कहेंगे? वंचित-शोषित तबके के वे लोग, जो आज भी अपने बच्चों का भविष्य विश्वविद्यालयों में देख रहे हैं, उनके लिए ये अंतिम मौक़ा है अपने बच्चों के भविष्य को बचाने की लड़ाई लड़ने का. अब ये आखिरी बार स्थाई नियुक्तियाँ हो रही हैं, उसके बाद सब बेंच दिया जाएगा. दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक, पसमांदा व महिलाएँ अब कभी शिक्षा जगत में न्यायप्रिय हिस्सेदारी ले पाएँगी. सामाजिक न्याय की राजनीतिक नुमाइंदगी का दावा करने वाली उन पार्टियों के लोग जाने कब इस मसले पर मुखर होकर बोलेंगे. आज सामाजिक न्याय की लड़ाई को विश्वविद्यालयों को बचाने की लड़ाई के रूप में ही लड़ना होगा. और ये रोस्टर उस संघर्ष की बुनियादी ज़मीं है.
अभी नहीं तो कभी नहीं.