राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) में ‘उड़ान’ और ‘स्मार्ट’ नामक परियोजनाओं के प्रमुख रहे फौज के एक पूर्व अधिकारी अजय कुमार को केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा सार्वजनिक रूप से अपशब्द कहे जाने की चर्चा पिछले दिनों खूब हुई। पता चला कि कौशल विकास मंत्रालय के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने अपने ही जारी दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए अपने किसी आदमी को मान्यता देने का आदेश कुमार को दिया था, जिस पर आपत्ति जताने के चलते सेना के पूर्व अफसर को गाली खानी पड़ी और अंतत: इस्तीफा देना पड़ा।
अजय कुमार ने लिंक्डइन पर एक पोस्ट लिखकर अपनी आपबीती बतायी जिसे 28 अप्रैल को ‘दि प्रिंट’ ने प्रकाशित किया। दो दिन बाद राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) ने वेबसाइट को एक पत्र भेजकर सारे आरोपों को बेबुनियाद करार दिया। वह पत्र नीचे दिया जा रहा है:
अजय कुमार की पोस्ट के मुताबिक जम्मू और कश्मीर में ‘उड़ान’ परियोजना की अगुवाई करने के दौरान उन्हें एक बड़ा घोटाला हाथ लगा था जिसमें कुछ बड़ी एजेंसियां शामिल थीं। एक संस्था विज़नइंडिया या वीआइएसपीएल बिहार से आने वाले एक केंद्रीय मंत्री के बेटे की है। इसी तरह उड़ान के क्रियान्वयन संबंधी इस घपले में अंतरराष्ट्रीय एजेंसी केपीएमजी, अपोलोमेडिस्किल्स, माउंटटैलेंट, एसईबिज़, एसटीसी की भी कथित संदिग्ध भूमिका है। योजना के तहत 750 करोड़ की लागत से राज्य के 40,000 युवाओं को कुशल बनाया जाना था। अजय कुमार लिखते हैं कि उनके पूर्ववर्ती प्रभारियों के नोट में इस संबंध में कहीं किसी गड़बड़ी का जिक्र तक नहीं है जबकि ज़मीनी हकीकत अलहदा है।
उन्होंने जब क्रियान्वयन की असली तस्वीर खंगाली तो अधिकतर आंकड़े फर्जी निकले, जो केवल काग़ज़ों तक सीमित थे। वे लिखते हैं कि पैसा कमाने के लिए देश के बड़े कॉरपोरेट जम्मू और कश्मीर के युवाओं के साथ छल कर रहे थे। इन्होंने यह मामला एनएसडीसी में उठाया। उन्हें कहा गया कि भ्रष्टाचार को देखने का काम एनएसडीसी प्रबंधन का नहीं है। उनके दबाव के चलते एनएसडीसी और गृह मंत्रालय को आखिरकार हलकी फुलकी कार्रवाई करनी पड़ी। वे लिखते हैं कि एनएसडीसी के प्रमुख के लिए योजना के क्रियान्वयन में खामियों को दूर करने से ज्यादा प्राथमिकता वाला काम था संयुक्त सचिव की पदोन्नति।
क्या अजय कुमार का मामला पहला है?
बात अगस्त 2017 की है जब केंद्रीय कैबिनेट में हुई उलटफेर की प्रक्रिया में राजीव प्रताप रूडी की कुर्सी चली गई। मीडिया ने उनसे जब पूछा कि उन्हें मंत्रालय से क्यों हटाया गया तो उन्होंने इससे अनभिज्ञता जतायी। उन्होंने कहा था, ‘’यह मेरा फैसला नहीं है, पार्टी का है और मैं उसका पालन करूंगा।‘’ हटाए जाने से पहले रूडी की पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से लंबी मुलाकात हुई थी। इस पर आज भी अस्पष्टता है कि उक्त कैबिनेट रीशफल में कुछ को क्यों हटाया और दूसरों को क्यों लिया गया, लेकिन इस घटना से ठीक पहले अगस्त में चावड़ी बाजार, दिल्ली के एक निवासी विष्णु ठाकुर की उच्चाधिकारियों को लिखी एक चिट्ठी का हवाला देना ज़रूरी है। पत्र की प्रति राजीव प्रताप रूडी को भी भेजी गई थी।
पत्र में दिल्ली के ओखला फेज़-1 स्थित डीडीए शेड, सी-57 की प्रॉपर्टी का जिक्र था जिसकी खरीद-फरोख्त में काले धन और वेश्यावृत्ति के एक रैकेट का संदर्भ दिया गया था। पत्र भेजने वाले ठाकुर ने लिखा था कि मेसर्स सिल्वरस्ट्रीक नाम की एक कंपनी ने यह संपत्ति किसी व्यक्ति को फर्जी स्टाम्प पेपर पर पिछली तारीख में बेच दी है। उसने बताया था कि खरीददार काले धन से हुई इस लेनदेन को छुपाने के लिए कौशल विकास मंत्री के साथ इंडियन प्लम्बिंग स्किल्स काउंसिल में खींची गई फोटो और मंत्रालय के उच्चाधिकारियों से अपने संपर्क का बेज़ा इस्तेमाल कर रहा था। रूडी की बरखास्तगी से करीब एक हफ्ते पहले यह पत्र कुछ मीडिया संस्थानों को भी भेजा गया था लेकिन किसी ने भी इसकी जांच कर के इसे छापना ज़रूरी नहीं समझा। यह मामला उठे बगैर दब गया। मंत्री को हटा दिया गया और उनके कार्यकाल में इस योजना के लिए आए करोड़ों रुपये की जवाबदेही भी इस तरह निपटा दी गई।
रूडी के कार्यकाल में ही 28 जनवरी 2017 को अचानक कुछ प्रदर्शनकारी कौशल विकास मंत्रालय के भीतर प्लेकार्ड लेकर घुस आए थे। इस खबर को पीटीआइ ने जारी किया लेकिन अखबारों ने इसे नहीं उठाया। उन प्रदर्शनकारियों में कुछ प्रशिक्षण सहयोगी और फ्रेंचाइज़ी शामिल थे जिनका आरोप था कि सरकार की अग्रगामी परियोजना पीएमकेवीवाइ-2 के तहत सीटों और स्किलिंग लक्ष्य का आवंटन नहीं किया गया है। शिवाजी स्टेडियम के एनेक्सी में स्थित दफ्तर को इन प्रदर्शनकारियों ने उस दिन घेर लिया था। रूडी दिल्ली से बाहर थे। इनका कहना था कि प्रभावशाली व ताकतवर ट्रेनिंग पार्टनरों को केंद्र आवंटित किए जा रहे हैं जबकि उन्हें छोड़ दिया गया है।
पीटीआइ की खबर में अधिकारियों के हवाले से बताया गया था कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में फ्रेंचाइज़ी कौशल विकास केंद्रों के भीतर ‘’घोस्ट’’ (केवल काग़ज़ पर) प्रत्याशियों के फर्जी पंजीकरण जैसी अनियमितताओं को देखते हुए पीएमकेवीवाइ-2 के तहत आगे का आवंटन रोका गया था। इन प्रदर्शनकारियों में कई गले तक कर्ज में डूबे हुए थे और खुदकुशी करने की भी धमकी दे रहे थे। ऐसे ही एक ट्रेनिंग पार्टनर ने बाद में मीडियाविजिल से संपर्क किया जो भोपाल में कौशल विकास केंद्र चलाते थे, पूर्व पत्रकार थे और जिनके ऊपर लाखों का कर्ज चढ़ गया था। फिलहाल वे गाजियाबाद के बाहरी इलाके में एक ढाबा चला रहे हैं।
ईमानदार पर भ्रष्टाचार की मार
मंत्रालय द्वारा किए गये एक आंतरिक ऑडिट के मुताबिक सरकार द्वारा वित्तपोषित सभी प्रशिक्षण केंद्रों में से लगभग 7 प्रतिशत वजूद में नहीं थे। जो वजूद में थे, उनमें से 21 फीसदी के पास कौशल प्रशिक्षण देने के लिए आवश्यक बुनियादी उपकरण नहीं थे और युवाओं को दिलवाने में मदद करने के लिए प्लेसमेंट सेल नहीं था।
आज 13,353 चालू औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (ITI) में से लगभग 11,000 निजी हैं जबकि 2009 में 6,906 ऐसे आइटीआइ थे। इस श्रेणी में सालाना 15 फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है। आइटीआइ को दी गई मान्यता पर प्रशिक्षण महानिदेशालय (DGE&T) द्वारा आयोजित ऑडिट की एक श्रृंखला के कुछ प्रमुख निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:
- 2016 तक के ऑडिट मे पाया गया कि निजी तौर पर चलने वाले ऐसे कई आइटीआइ को मान्यता प्रदान की गई थी जिनके भवन निर्माणाधीन थे, जो टिन शेड के नीचे और बेसमेंट के बाहर काम कर रहे थे।
- एक ही पते पर अलग अलग नाम से कई आइटीआइ को मान्यता दी गयी।
- रिकार्ड में दर्ज पते पर संस्थान मौजूद ही नहीं थे और कई मे आवश्यक उपकरणों की कमी थी।
- रिकॉर्ड बताते हैं कि QCI द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थानों मे से सिर्फ 5 प्रतिशत निरीक्षण के लिए चुने गए सैम्पल का हिस्सा थे।
- वर्तमान में मान्यता प्रक्रिया में QCI की कोई भूमिका नहीं है और 180 से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं।
आश्चर्य की बात है कि 2012 से लेकर जून 2016 तक QCI प्रक्रिया के खिलाफ कहीं कोई शिकायत नहीं थी लेकिन मान्यता प्रक्रिया के बीच में बिल्डिंग कंप्लीशन सर्टिफिकेट के मानदंडों को जोड़ने के बाद से अदालती मामलों और शिकायतों का ढेर लग गया।
पानी की तरह बहाया गया पैसा
आज स्किल इंडिया एक ऐसे मरीज़ की तरह दिखता है जिसका सरकारी तौर पर तो इलाज सफल हो गया लेकिन वास्तविकता में वह अपने सर्जनों द्वारा की गई गलतियो के कारण पहले से भी बदतर हालत में जा चुका है। जर्मनी, यूके, जापान और चीन जैसे अग्रणी देशों में कौशल और शिक्षा बहुत ही बारीकी से बुने हुए है। भारत 1977 में ऐसी ही एक उत्तम नीति के क्रियान्वयन के बहुत करीब आ कर चूक गया था जिसे तब के यूजीसी अध्यक्ष डीएस कोठारी ने पेश किया था। दुर्भाग्य से उस दौर में हाथ से काम करने को लेकर सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण व्यावसायिक शिक्षा के लेकर लोग कम उत्साहित रहते थे, नतीज़तन साल दर साल स्कूलों में कौशल के लिए बजटीय प्रावधान सूखते रहे और आज यह एक सड़ी-गली योजना के रूप में अंतिम सांसें गिन रहा है।
योजना की शुरुआत करते वक्त प्रधानमंत्री का अगले सात वर्षों (2015-22) के दौरान 40 करोड़ भारतीय युवाओं को प्रशिक्षित करने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य था, जिसके लिए 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का बजटीय आवंटन प्रस्तावित था। इस दृष्टि से मंत्रालय द्वारा चार ऐतिहासिक पहल की गई, जिसमें राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY), कौशल विकास योजना के साथ कौशल विकास और उद्यमिता के लिए राष्ट्रीय नीति शामिल थी। नीति के प्रमुख तत्वों की निगरानी के लिए एक नीति कार्यान्वयन इकाई (पीआईयू) बनाई गई। कौशल ऋण योजना ने 5000 रुपये से 1.5 लाख रुपये तक 34 लाख ऐसे युवाओं को कर्ज देने की जिम्मेदारी ली जो अगले पांच वर्षों में कौशल विकास कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले थे। इनके साथ राष्ट्रीय कैरियर सेवा (NCS) को नीति परामर्श और रोजगार केंद्र के रूप में कार्य करना था। यह एक ऑनलाइन जॉब पोर्टल के रूप में 15 जुलाई 2015 को शुरू हुआ जब पहली बार विश्व युवा कौशल दिवस मनाया गया था।
2022 तक 40 करोड़ से अधिक लोगों को स्किल करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वित्तीय संसाधन उधारी से आये जिसे भारत सरकार ने कॉरपोरेट्स में पंप किया। कॉरपोरेट्स व एनजीओ ने विभिन्न चैनलों के माध्यम से इसे सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) में लगाया। इसके साथ ही विश्व बैंक ने प्रशिक्षण के लिए 250 मिलियन डॉलर का कर्ज दिया।
इस दौरान रोजगार मेले भी हुए और मेलों में नेताओं के भाषण भी। ये भाषण रोजगार मेलों और उनकी युवाओं को रोजगार से जोड़ने में भूमिका पर ज्यादा केंद्रित थे, न कि युवाओं को रोजगार के लिए अवसर पैदा करने और प्रदान करने की प्रतिबद्धता के साथ। अप्रैल 2019 के आंकड़ों के मुताबिक अब तक कुल 845 रोजगार मेले आयोजित किए जा चुके हैं जिनमें से 440 मेले (52 फीसदी) केवल पांच राज्यों में हुए (उत्तर प्रदेश में 109, पश्चिम बंगाल में 105, मध्य प्रदेश में 104, हरियाणा में 68 और बिहार में 54 मेले) जबकि पूर्वोत्तर में कुल मिलाकर 6 (नगालैंड में 3, मेघालय में 2 और त्रिपुरा में 1) मेला आयोजित हुआ। उपलब्ध डेटा के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मिज़ोरम में एक भी मेला आयोजित नहीं किया गया है।
दिलचस्प तथ्य यह है कि सरकार पांच राज्यों में ज्यादातर हुए ऐसे आयोजनों में इतनी व्यस्त रही की एनएसडीसी को 2015-16 और 2016-17 का वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने तक का मौका उसे नहीं मिला।
रोजगार पर फैलाया जा रहा सरकारी भ्रम
रोजगार सृजन मोदी सरकार के सबसे बड़े रहस्यों में से एक बना हुआ है। रोजगार पर बहस ने जिन सवालों को जन्म दिया है, उनके जवाब शायद किसी जन-प्रतिनिधि के पास नहीं हैं। वर्तमान सरकार ने जीडीपी की गणना जैसे अहम आंकड़ों की मापन प्रणाली को ही बदलकर रख दिया। पीएमकेवीवाई डैशबोर्ड के मुताबिक 2016-20 में 29 लाख 71 हज़ार लोगों ने शॉर्ट टर्म प्रोग्राम में नामांकन कराया जिनमें 25 लाख से ज़्यादा लोग ट्रेनिंग प्राप्त कर चुके हैं और उनमें से 11 लाख 27,217 लोगों को नौकरी मिल गयी है जबकि आरपीएल योजना के तहत 19,818 लोगों ने नौकरी प्राप्त की। रोजगार मेलों पर प्रकाशित मासिक रिपोर्टों में उच्चतम प्राप्त वेतन तो दिखाया जाता है पर औसत वेतन नहीं। गरीब घरों से आये नवयुवक चार अंकों वाली तनख्वाह के लिए घर से हज़ारों मील दूर रहते हैं, जहां इतने पैसे में गुज़ारा करना भी मुश्किल होता है, बचत तो लगभग असम्भव है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE), जिसने हाल ही में बेरोजगारी पर अपना सर्वेक्षण जारी किया है, उसके मुतबिक बेरोजगारी में वृद्धि हुई है और श्रमबल की भागीदारी दर (एलएफपीआर) में गिरावट आई है। LFPR नौकरियों की तलाश कर रहे लोगों का एक माप है और अगर यह घट रहा है जबकि बेरोजगारी बढ़ रही है, तो इसका मतलब है कि नौकरियों पर गंभीर संकट है। एनएसएसओ की रिपोर्ट जारी करने में सरकार की विफलता नौकरियों के आंकड़ों के संबंध में पारदर्शिता की कमी का सबसे ताज़ा संकेत है। 2017-18 में एनएसएसओ की रिपोर्ट पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने खबर छापी थी कि आज की तारीख में बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर है, जिसमें 15 से 29 वर्ष की आयु के युवाओं के बीच बाकी की तुलना में बेरोजगारी दर ज़्यादा है। यह खबर श्रम अर्थशास्त्रियों, बेरोज़गारों और श्रमिकों के अनुसार जमीन पर दिखने वाले रुझानों का एक सत्यापन थी। इस लीक हुई रिपोर्ट के बाद जिस तरीके से मंत्रालय के दो सबसे बड़े सांख्यिकी अधिकारियों को इस्तीफा देना पड़ा, उससे यह हकीकत और खुल जाती है कि सरकार की मंशा रोजगार के वास्तविक आंकड़ों को छुपा ले जाने की है।
आंकड़ों को छुपाने के पीछे मामला किसी सांख्यिकीय गड़बड़ी का नहीं है, बल्कि रोजगार पैदा करने के लिए शुरू किए गए महत्वाकांक्षी स्किल इंडिया में उधारी पर दुनिया भर से आए भारी-भरकम पैसे और उसके प्रति गैर-जवाबदेही का है। नई सरकार बनेगी तो जाहिर है कि मंत्री भी नया आएगा। पहले की तरह पूर्ववर्ती मंत्रियों के कार्यकाल में हुए पाप छुपा लिए जाएंगे और ऐन चुनाव के बीच आवाज उठाने वाले और उसकी कीमत झेलने वाले मंत्रालय के विसिल ब्लोअर अजय कुमार को हमेशा के लिए भुला दिया जाएगा।
लेखक सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में अच्छा दखल रखते हैं और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं