असीम सम्भावनाओं का पिटारा ‘घुमन्तू समाज’

सांकेतिक चित्र

अपने सम्पूर्ण जीवन को यायावरी और जुगलबन्दी से जीने वाला 10 फीसदी घुमन्तू समाज आज विडम्बना की स्थिति में हैं। जहाँ एक तरफ उसको अपनी मूल पहचान खोने की चिंता है तो दूसरी ओर आजीविका की मजबूरी ने उसे घेर रखा है। ऊपर से सरकारों के नित- नये नियम कानूनों ने उसका मजाक बना दिया है।

घुमन्तू लोग कौन हैं ?

यह लोग तो समाज को चलाने वाले ऊंचे दर्जे के लोग हैं, इनकी जीवन शैली बहुत साधारण किंतु इनके जीवन संदेश बहुत गहरे होते हैं, बेहद मामूली का जीवन जीने वाले यह लोग अपनी ग़ैर मामूली मौजदगी से हमारे जीवन को प्रकाशित करते रहे हैं। इनके अतीत की धरोहर इतनी समृद्व है जिसे एक जीवन मे समझ पाना मुमकिन नही है।

ये लोग काम क्या करते थे?

यह लोग हमारे इतिहास के प्रसंगों, रंग बिरंगी जीवन शैली, कला- शिल्प और ज्ञान की परम्परा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाते। कृषि, व्यापार, परिवहन, जड़ी- बूटियों के ज्ञान से लेकर, चिकित्सा विज्ञान का आधार तैयार किया। पानी और मिट्टी के प्रबन्धन का आधार यही समाज रहे हैं। विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों में अंतर संवाद से लेकर सामाजिक सौहार्द और समाज सुधार के अग्रिम पंक्ति के लोग रहे हैं।

जनगणना की स्थिति

आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद भी हमारे पास इन समाजों के सम्बंध में कोई ठोस जानकारी नही हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरे भारत मे 840 घुमंन्तु समुदाय हैं। जिनकी आबादी कुल जनसंख्या के 10 फीसदी है। ये 840 समाज केवल संख्या मात्र नहीं हैं। बल्कि इन समाजों के पास ये 840 प्रकार के सृजित ज्ञान की पूंजी है। दुनिया को देखने के अलग- अलग नजरिये हैं। ये नजरिये हमारे पुरखों ने सदियों की मेहनत से सीखे थे। किंतु इतिहास की कारगुजारियों, सरकारों के संवेदनहीन निर्णयों ने ओर अधिकारियों की अज्ञानता ने इस सृजित ज्ञान को पीछे धकेल दिया है।

हमने इन समाजों को अब तक क्या दिया

जन्मजात अपराधिक कानून और अभ्यस्थ अपराधिक कानून, जंगल के अधिनियम, रस्सी पर चलने पर रोक, वन्य जीव अधिनियम, मेडिकल प्रक्टिसनर कानून, नमक बेचने पर रोक। कठोर दंड सहिंता। जंगल की बाड़ाबंधी। ऊंट बिठाने के पक्के फर्श। टैक्स ओर टैक्स कलेक्टर। इतिहास से बेइज्जती।

परिणाम क्या हुआ

इन लोगों के सर चोर- उचक्के होने के आरोप की वजह से समाज के लोग इनसे नफ़रत करने लगे। नफरत का स्तर ऐसा की इनको गांव के नजदीक बसना तो दूर रहा इनके मृत लोगों को अपनी शमशान भूमि में जलाने भी नही देते। ये लोग तीन- तीन दिन तक लाश को लेकर घुमते रहते हैं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में घुमन्तू बच्चों के साथ अपने बच्चों को बिठाना भी नही चाहते।

पुलिस और प्रशासन के ये लोग आसान शिकार हैं

ये लोग पढ़े- लिखे नहीं हैं। इन लोगों के पास कानून की कोई समझ है ओर न ही ये लोग संगठित है। इसलिये पुलिस इनको आसान शिकार बनाती है। पुलिस अपने अधिकांश मामलों को हल करने के नाम पर इनके सर अपराधी होने का तमका लगा देते हैं।

इन समाज के टोलों की आज पहचान देह व्यापार के केंद्रों ओर नशे के अड्डे के तौर पर हो गई है। संगठित गिरोह छोटे बच्चों के जरिये इन गैर कानूनी कार्यों को अंजाम दिया जाता है। कुछ लोग इस स्थिति को संक्रमण काल की संज्ञा देते हैं। किन्तु जो संक्रमण काल होता है वो बीत जाता है और बीतने के बाद भी उसके प्रतिमान वोही रहते हैं। जबकि यहां तो प्रतिमान विस्थापन का समय है। जहां उन्हें केवल अपनी जीवन शैली से ही दूर नही होना बल्कि अपने मूल्यों ओर जीवन चिंतन से अलगाव करना पड़ रहा है।

ये लोग अपनी पारम्परिक जीवन पद्धति मे भी नही लौट सकते और इस जीवन- शैली को भी नही अपना पा रहे। सरकार, नीति – निर्माताओं ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं के समक्ष ये सवाल हमेशा से ही मौजूद रहा है। की ऐसा क्या हो जिससे उस जीवन की महक भी बची रहे और इस समय को भी वे लोग भरपूर तरीके से जी पाएं ?

इतिहास में कुछ ब्रेक पॉइंट आते हैं। जहां से इतिहास की दिशा तय होती है। इन समाजों के संदर्भ में इतिहास में एक ब्रेक पॉइंट 1871 में आया था। जब अंग्रेजों ने इनको जन्मजात अपराधी करार दिया गया। उसके बाद एक ब्रेक पॉइंट 1952 में आया । जब भारत सरकार ने इन्हें विमुक्त जाति का दर्जा दिया।

आज हम उसी ब्रेक पॉइंट पर खड़े हैं। इन घुमन्तू समाजों के लिये आज हम क्या करेंगे इससे केवल इन घुमन्तू जातियों का ही नही बल्कि हमारा भविष्य भी तय होगा।क्या हम अपनी इतिहास की भूल को ठीक करेंगे या आने वाली पीढ़ियों को शर्मिन्दा होने के अवसर छोड़ेंगे।

घुमन्तू समाजों का विकास

हमारे लिये ये समाज केवल सरकारी नीतियों के विषय वस्तु और वाही- वाही लूटने की कोई आइटम मात्र नही हैं।कार्य ऐसे होने चाहिए जो वर्तमान के चश्मे के अनुरूप तो हों ही भविष्य के खांचे में भी फिट बैठें। आत्मनिर्भर ओर स्वावलंबी बने बिना विकास के बारे में बात करना बेमानी होगी। संसाधनों की कमी। सावधानी एवं समझदारी से दूर की जा सकती है। विकास ऐसा हो जो इनके आत्मविश्वाश, विचार व चिंतन में बढ़ोतरी करे।

इन समाजों के सहज और उपयोगी ज्ञान से वर्तमान समाज की अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। ऐसा नही है कि ये समस्यायें केवल भारत की है बल्कि ये अधिकांश समस्या पूरे विश्व की हैं। हमें  ये समझना है कि ये ज्ञान किसी किताब में लिखा हुआ नही है और न ही इसे किसी डिग्री- डिप्लोमा में हासिल किया जा सकता है। ये समाज की जरूरत ओर प्रकिया से निकला है। इसलिये हमे इस सृजित ज्ञान के अथाह भंडार को सहेजना है।

आजीविका को सहेजना

बंजारों ने रेगिस्तान में जीवन को सम्भव बनाया है। यदि वे नही होते तो यहां जीवन की कल्पना करना भी सम्भव नही था। इनके द्वारा बनाई गई संरचनाएं जिसमें बावड़ी, टांके, झील और जोहड़ हैं। जो न केवल शिल्प- कला के लिहाज से बल्कि पानी के प्रबंधन के लिहाज से भी अनूठी हैं।

सदियां बीतने के बाद भी ये संरचनाओं के रंग धुंधले जरूर हुए हों किन्तु फीके नही पड़े। ये वैसी के वैसी हैं। न तो उनमें इंद्रा गांधी नहर की तरहं कहीं लवणता की समस्या आई और न हीं कहीं जलभराव या रिसाव की दिक्कत हुई। उनकी इन संरचनाओं में हमारे पुरखों के सदियों का सीखा हुआ ज्ञान छुपा है। उनकी शिल्प की जानकारी दबी हुई है। पानी के प्रति उनका अनुराग छिपा है। उनके इस पानी के प्रबंधन के ज्ञान को हम अपना सकते हैं। इसके लिये हमें न तो बड़े- बड़े बजट चाहिये और न ही अधिकारियों की बड़ी- बड़ी मीटिंगे।

बिंजारी से बेहतरीन कशीदाकारी ओर गोदना तो आज तक कोई नहीं कर पाया है। हम उनके ज्ञान से तो अन्य समाज की महिलाओं को भी जोड़ सकते हैं। इसे बड़ा मंच बनाया जा सकता है। बागरी अपने भेड़- बकरियों के जरिये, ओड़ अपने ख़ास प्रकार के खच्चरों की मदद से तो कुचबन्दा अपने हाथ से मिट्टी का प्रबंधन करता है। ये समाज मिट्टी के शिल्पी हैं। जिन्हें मिट्टी के वैज्ञानिक कहना ज्यादा उचित है।

हम इनके ज्ञान से मिट्टी के प्रबंधन की समस्या का समाधान कर सकते हैं। आज पूरी दुनिया मे मिट्टी की उत्पादकता, पानी का जहरीलापन, फसलों की उत्पादकता जैसे कठिन सवालों का जवाब किसी व्यक्ति या तकनीकी के पास नहीं हैं। जबकि इन सवालों के जवाब इन समाजों की रोज़मर्रा की जीवन- शैली में छिपे हैं। हम उस जीवन- शैली को बचाकर उन तौर- तरीकों को अपनाकर वर्तमान की इस मिट्टी की समस्या का समाधान किया जा सकता है।

कालबेलिया ओर सिंगीवाल के जड़ी- बूटी के ज्ञान तथा कंजर जाति के चिकित्सा की पारंपरिक पद्धति से वर्तमान एंटीबायोटिक दवा की समस्या और चिकित्सा पद्धति के साइड इफ़ेक्ट से बच सकते हैं। इनके पास अजीबोगरीब जड़ी- बूटियां हैं जिनका प्रभाव भी गुणकारी है। हम उनके दावों पर शोध करके उसे पेटेंट करवा सकते हैं। इससे हमारे विज्ञान को भी फायदा होगा और इन्हें भी लाभ मिलेगा। कालबेलिया को एन्टी वेनम सीरम बनाने वाली दवा कंपनी के साथ जोड़ सकते हैं।

कर्नाटक और तमिलनाडु की सरकार ने इरुला ट्राइब्स को एन्टी वेनोम सीरम बनाने वाली दवा कंपनी के साथ जोड़ा है। इससे कंपनी की लागत भी कम हुई और सांप से जहर निकालना भी आसान हुआ और उसके बाद सांपों का मरना भी इससे कम हुआ है। इससे हमारा पारम्परिक ज्ञान भी बचेगा, कालबेलिया को रोजगार भी मिलेगा, जड़ी- बूटियों ओर उसके साथ मे जो- हरड़ की फंकी, जन्मघुट्टी ओर सूरमा इत्यादि दैनिक जीवन मे उपयोग में आने वाली वस्तुओं को एस. एच. जी. से जोड़ा जा सकता है।

बहुरूपि कला तो विलक्षण कला है, जिसे मजहब की दीवारों में नहीं बांटा जा सकता। जहां मुस्लिम बहुरूपिया शिव, नारद मुनि बनने में गुरेज नही करता ठीक वैसे ही हिन्दू बहुरूपिया भी पीर, फ़क़ीर ओर ईमाम- औलिया बनकर सन्देश देता है। बहुरूपिये और मिरासी का सहयोग समाज मे शांति, भाईचारे ओर प्रेम फैलाने में कर सकते हैं। आज चुनावों में जाति और धर्म के सवाल को हल करने में ये एक कारगर माध्यम हो सकता है। इनके वाक्पटुता से लेकर, इनके तर्क करने की क्षमता और आम इंसान के मत निर्माण में उनकी भूमिका गजब की है।

नट बच्चे जन्म से रस्सी पर चलते हैं, करतब दिखलाते हैं। और उनमें ये कला जन्म से है। हम यदि इनको जिम्नास्टिक से जोड़ पायें तो ये गजब का मिश्रण हो सकता है। कंजर बच्चे सतरंग अच्छा खेलते हैं। सांसी, बावरी ओर सिकलीगर बच्चे अच्छे धावक हैं, यदि उन्हें खेलों के साथ जोड़ा जाये तो हम खेलों में आगे जा सकते हैं। हरियाणा राज्य के जैसे अन्य सरकारें में इन समाजों हेतु स्पोर्ट्स अकादमी खोल सकती हैं।

नट, भाट, कंजर, पेरना महिलायें फुस के घोड़े, ऊंट, जिराफ व हाथी बनाते हैं। जो गजब की शिल्प है। ये समाज बांस की लकड़ी से विभिन्न उत्पाद भी बनाते हैं। हम उनके उत्पादों को एस. एच. जी से जोड़ सकते हैं। भोपा बच्चे बेहतरीन रावण हत्था बजाते हैं। जबकि भाट बच्चे गजब के कलाकार हैं। इनके गीतों ओर संगीत का प्रयोग समाज सुधार में किया जा सकता है। इनके खेलों ओर कार्यक्रमों के जरिये सरकारी स्कीमों को आम जन तक पहुँचाया जा सकता है। जिसका परिणाम भी अच्छा रहेगा।

कठपुतली को शिक्षण का माध्यम बनाया जा सकता है। इससे बच्चों में रुचि भी पैदा होगी और उसका परिणाम भी आयेगा। इससे बच्चे की क्षमता भी विकसित होगी। भोपे के रावनहत्थे ओर गीतों का प्रयोग सरकारी स्कूलों में राजस्थान के इतिहास को बताने में किया जा सकता है। वे इसका प्रयोग राजस्थान की संस्कृति बताने में कर सकते हैं।

कलन्दर, बाजीगर ओर मदारी का उपयोग सुंदरता और जैव- विविधता संरक्षण में कर सकते हैं। इन समाजों को वन बचाने में लगा सकते हैं। जंगल के प्रबंधन में लगा सकते हैं। उनको जू से जोड़ सकते हैं। इनके नुक्कड़ नाटकों के जरिये हम सरकारी स्कूल बच्चों की पढ़ाई करवा सकते हैं।

कुचबन्दा समाज मिट्टी के बेहतरीन उपकरण तैयार करता है। उरई खोदकर उसकी झाड़ू बनाता है। उसके अन्य वस्तुएं बनाता है। सिकलीगर, लोहे के उपकरणों पर धार के साथ मुंज की रस्सी ओर बांस के टोकरी, पीडा, मुड्ड़ी व अन्य दैनिक जरूरत की वस्तुएं।

पशुओं की पाठशाला

इन समाजों की कई खूबियां हैं, उसमें एक खूबी इनके पशु हैं, जो इनके जीवन और परिवार का अहम हिस्सा हैं। जो उनके जन्म से लेकर मरने तक इनके साथ रहते हैं। सभी घुमन्तू समाजों के अपने खास पशु हैं। ये लोग उनको नाचने- कूदने, दौड़ने, इतराने, अकड़ कर चलने में, दो पैरों पर खड़ा होने में। शिकार करने में ओर उनकी सौंदर्य प्रतियोगिता करने में ट्रेंड करते हैं। जिन लोगों को हमने अनपढ़ मान लिया है। ये स्कूल उन लोगों को प्रोत्साहित करेगा। ये अपने आप मे एक अनूठा स्कूल होगा। जहां सीखने और सिखाने के लिये न कोई किताब होगी और न कोई मास्टर। ये स्कूल खुले मैदान में चलेगी जिसे देखने के लिये विदेशों से पढ़े- लिखे लोग आयेंगे।

पशुओं के रोगों का उनकी ताशीर का जितना अच्छा ज्ञान इन लोगों के पास है इतना तो हमारी वेटनरी साइंस में भी नहीं हैं। ये सदियों का ज्ञान है जो इन लोगों ने पशुओं के साथ रहते हुए सीखा है। हमे कोसिस करनी चाहिये कि हमारे वेटनरी डॉक्टर्स अपनी ट्रेनिंग के अंतिम 6 महीने इन स्कूलों में बितायें।

महिला उद्यमियों की चेन बनाना

सरकारी दफ्तरों, विभागों, बोर्ड और विभिन्न मेलों ओर उत्सवों में कैंटीन से लेकर, चाय की आउटलेट तक घुमन्तू समाज की महिलाएं कैटरिंग की व्यवस्था को चलायें। ऐसे सभी कार्यक्रमो में जहां पर सरकार सहयोगी की भूमिका में है वहां पर इनके स्टॉल हैं। कैटरिंग की सुविधा केवल इन्ही समाज के महिलाओं के एस.एच .जी. के जरिये मुमकिन हो। जो न की केवल क्षेत्र के खानपान, पहनावे की झलक देंगी बल्कि उसमे भारत की संस्क्रति की छवि मिलेगी।

आवासीय स्कूल

घुमन्तू समाज के बच्चों को ख़ास तरीके से ट्रीट करने की आवश्यकता है। सरकार को चाहिए कि इनके बच्चों के लिए आवसयुक्त स्कूल बनाए ताकि वो अपनी कला और परम्परा को भी सिख सकें और आधुनिक शिक्षा तक पहुँच भी हो सके। क्योंकि घुमन्तू की भाषा ख़ास तरहं की भाषा है। उनकी उसी भाषा मे उनके लोकाचार छुपे हैं। प्रकृति से संवाद छुपा है। यही भाषा इनको शेष विश्व से जोड़ती है। ये काम आवसयुक्त स्कूल से ही सम्भव हो सकता है। जहां शिक्षक और शिक्षण पद्धति इनफॉर्मल तरीके से होनी चाहिये। इन बच्चों को उनके शिल्प की भी जानकारी रहे ताकि वे पढ़- लिखकर अपने आजीविका चला सकें न कि पढ़े लिखे बेरोजगार बने।

जुगलबन्दी के केंद्र

पंचायत समिति स्तर पर घुमन्तु भवन बनाया जा सकता है जहां उस जिले के घूमंन्तु समाज से संबंधित जानकारी उपलब्ध होगी। जिसका इंचार्ज सामाजिक सुरक्षा अधिकारी होगा। जिसके पास उस क्षेत्र के घुमन्तू समाजों के आंकड़े होंगे। ये केंद्र एक तरहं से मीटिंग- पॉइंट होंगे जहां पर अन्य समाजों के साथ संवाद हो सके। इसी केंद्र के जरिये घुमन्तु समाज के ज्ञान को अलग- अलग क्षेत्र से जोड़ना आसान होगा। इसी केंद्र के जरिये बिचौलियों का समापन हो सकेगा।

चारागाह और गोचर भूमि को खाली करवाना

घूमन्तु समाज के जीवन का आधार यही गोचर और चारागाह भूमि होती है। यहीं पर इन समाजों के तांडे/गाढ़े पड़ते थे। यहीं पर इनकी भेड़-बकरी, ऊंट और गाय चरते थे। इसी भूमि पर खेल तमाशे होते थे। यही भूमि हमारी इन समाजों के साथ जुगलबन्दी का आधार हुआ करती थी। इस भूमि से अवैध कब्जे हटे यह सभी के हित मे हैं, यही वो क्षेत्र है जो जैव- विविधता को पालता है। सूखे के समय मवेशियों के जीवन का आधार यही भूमि हुआ करती थी। ये भूमि इंसान, पर्यावरण ओर अर्थव्यवस्था के हित मे हैं।

आवास और पशु बाड़ों हेतु जमीन का आवंटन

केरल सरकार ने घुमन्तू समाजों के रहने और उनके पशु बाड़ों के लिए भूमि आवंटित की है। वैसे ही अन्य राज्य सरकारों को भी प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत घर देना चाहिये। जो परिवार की महिला के नाम से हो और जिसे बेच न सकें।

घुमन्तू बोर्ड की स्थापना-

हमे ये समझना होगा कि घुमन्तू बोर्ड बनाना पर्याप्त नही है बल्कि उसमे जो लोग बैठे वो सम्वेदनशील, जानकार, ईमानदार ओर दूरदर्शी हों। इन समाज के साथ होने वाले अपराध और कार्यवाहियों को डैली- बेसिस पर घुमन्तु बोर्ड के सदस्यों के सामने रखना चाहिये। जिससे इस समाज के लोगों के अधिकारों का बचाव किया जा सके। बोर्ड के अंतर्गत न्यायायिक अधिकारी हों जो उच्च न्यायलय में इन समाजों का प्रतिनिधित्व कर सकें। ये सम्वेदनशील समाज हैं। इनके खिलाफ होने वाले अपराध को एससी. एसटी. वर्ग में शामिल करना चाहिये।

बोर्ड के पास असली दांत हो। जहां वो डिस्ट्रिक्ट अथॉरिटी को न केवल नोटिस जारी कर सके बल्कि उस अधिकारी के संदर्भ में कार्यवाही की अनुसंशा भी कर पाये। जिसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग या सही से उपयोग न किया हो। लोक कला मेलों, महोत्सवों में घुमन्तु समाजों की भागेदारी उनके तरीकों का मॉनिटरिंग बोर्ड के सदस्यों के पास हो।ज़िलें में चलने वाली विकास गतिविधियों की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी बोर्ड के पास हो।

गैर जरूरी हस्तक्षेप से बचना

हमे ये प्रयास करना चाहिये की हम इनके जीवन व सोच में जहां तक हो सके, हस्तक्षेप से बचे। ये लोग उन्मुक्त भाव से जीने वाले लोग हैं। इनको आजीविका जीने के लिये चाहिये न कि बड़ा बनने के लिये। इनके महोत्सवों ओर मेलों में इनकी परम्परा को ही रहने देना चाहिये। न कि इवेंट कंपनी को इसमे गुसाना चाहिये। जैसे पुष्कर मेला हो या मरु महोत्सव इनकी सहज परम्परा को चलने देना समाय की मांग भी है और जरूरत भी।

गम्भीर शोध कार्य की आवश्यकता

घुमंन्तु समाज के संस्कृति, परम्परा ओर पुरखों के ज्ञान को लोगों के समक्ष लाने के लिए गंभीर शोध कार्य की आवश्यकता है। इससे लोगों के मन मे इनके प्रति सहज प्रेम पैदा हो और घृणा का भाव समाप्त हो सके। इन समाजों को उनकी भूमिका के अनुरूप उन्हें इतिहास में स्थान देना होगा जो किसी भी सरकार का प्राथमिक कार्य होना चाहिये। जिन रोमा लोगों से हमारा रिश्ता रहा है उनके कार्य के संदर्भ में हमे दोबारा से इतिहास की व्याख्या करनी होगी। भले ही वो आजादी की लड़ाई में इनकी भूमिका हो, इनके परिवहन और व्यापार का पक्ष हो, इनका समाज सुधार का पक्ष हो, इनके जड़ी- बूटी का ज्ञान हो, हस्त- शिल्प निर्माण की जानकारी हो या फिर पर्यावरण प्रबंधन का ज्ञान हो।

घुमन्तु साहित्य का लिखा जाना

स्कूली स्तर पर किताब ओर विद्यालय स्तर पर घुमन्तू समाजों से सम्बंधित कोर्स पढ़ाया जाना चाहिये। जिससे उन समाजों की सही तस्वीर लोगों के समक्ष आ सके। उनके प्रति सहज प्रेम का भाव पैदा हो सके। इतिहास में उनको स्थान मिले।



 

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