‘जनताना’ सरकार की बैलेंस शीट में आखिर ऐसा क्या है कि मीडिया और सरकार ने उसे छुपा लिया?

Courtesy Outlook India

सीमा आज़ाद

24 नवम्बर 2017 के ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में एक खबर छपी, जिसका शीर्षक यह था कि नोटबन्दी से माओवादियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। इस तथ्य को इस हवाले से बताया गया कि 7 नवम्बर 2017 को नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ के पास हुए एक मुठभेड़ में ‘एण्टी नक्सल फोर्स’ को कुछ कागजात मिले हैं, जो कि नेलनार क्षेत्र की ‘जनताना सरकार’ की ‘बैलेन्स शीट’ है, जिसमें यह बताया गया है कि नेलनार में पिछले साल किस मद में कितना पैसा खर्च हुआ है। यह क्षेत्र माओवाद संचालित है और ‘जनताना सरकार’ इन क्षेत्रों में माओवादियों के नेतृत्व में बनायी गयीं गांव के लोेगों की सरकारें हैं, जो अपने क्षेत्र का विकास अपनी देखरेख में मिलजुल कर करते हैं। 7 नवम्बर को नेलनार में हुई मुठभेड़ में यहां काम करने वाली ऐसी ही एक सरकार के आय-व्यय का लेखा-जोखा पुलिस को और उनके माध्यम से मीडिया को मिला। इसी में इस बात का जिक्र है कि अकेले इस क्षेत्र की जनताना सरकार ने 2 लाख रूपये के 500 और 1000 के नोट बदल लिये। मीडिया के लिए मात्र यह ही सनसनीखेज खबर थी, लेकिन इस सनसनी के साथ कुछ और जानकारियां भी बाहर आ गयी, जिसे मीडिया ने कम महत्वपूर्ण माना लेकिन वे चौंकाने वाली हैं। समाचार के अन्दर इस बात का भी जिक्र है कि इस क्षेत्र की ‘जनताना सरकार’ के विभिन्न विभागों में पिछले साल किस मद में कितना खर्च हुआ। इस बैलेन्स शीट में यह भी बताया गया है कि गांवों में सामुदायिक संरचना बनाने जैसे कुएं खोदने, तालाब बनाने, चेकडैम बनाने में कितना खर्च हुआ है। साथ ही इस बात का भी उल्लेख है कि क्षेत्र की 16000 रुपये की सिलाई मशीनें भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा नष्ट कर दी गयीं।

निश्चित ही यह एक रोचक खबर थी, इसलिए भी कि यह खबर यह बता रही है कि मौजूदा व्यवस्था के अन्दर एक दूसरी व्यवस्था का भ्रूण मौजूद है। अखबार खुफिया विभाग के हवाले से खुद कहता है कि यह लेखा-ंजोखा तो केवल एक ‘जनताना सरकार’ का है, ऐसी कई ‘जनताना सरकारें’ क्षेत्र में माओवादियों द्वारा चलाई जा रहीं हैं और सबकी बैलेंस-शीट अलग-अलग है। यानि हर ‘जनताना सरकार’ ने लगभग इतने ही पुराने नोट नोटबन्दी के समय आराम से बदल लिए, जिससे सरकार का यह दावा खारिज हो जाता है कि नोटबन्दी ने माओवादियों की कमर तोड़ दी है।

लेकिन इस खबर में इसके अलावा भी बहुत सारी बाते हैं। खासतौर पर इस समय, जब कि महाराष्ट्र में हाल ही में होने वाली किसानों की रैली ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया और सरकार को विचलित भी कर दिया, ‘जनताना सरकार’ की कृषि व्यवस्था और नीति पर ध्यान देना समीचीन होेगा क्योंकि माओवादियों का कहना है कि वह भविष्य के ‘नवजनवादी समाज’ का भ्रूण है। मीडिया और मौजूदा सत्ता चाहती हैं कि यह मॉडल बाहर की दुनिया के सामने न आने पाये, लेकिन माओवादी पार्टी के समर्थक और प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव ने ‘जनताना सरकार’ के बारे में कई लेख लिखे हैं, जिन्हें इण्टरनेट से प्राप्त किया जा सकता है। बाद में अरूंधति रॉय ने भी अपने लेखों में ‘जनताना सरकार’ के बारे में लिखा है। वे अपने लेख में ‘जनताना सरकार’ के बारे में बताती हैं कि ‘सरकार चलाने के लिए लोगों को संगठित करने का यह सिद्धांत चीन की क्रांति और वियतनाम युद्ध से आया है। हर जनताना सरकार गांवों के कुछ समूहों से चुनी जाती हैं, जिनकी संयुक्त आबादी 500 से 5000 तक हो सकती है।’ पार्टी का ध्यान इस पर रहता है कि इसमें ‘दोस्त वर्गों’ का प्रतिनिधित्व हो, महिलाओं का भी।

कई सरकारें मिलाकर ग्राम राज्य कमेटियां बनाई जाती है, जिसमें माओवादी पार्टी और जनसंगठनों के लोग होते हैं। इन कमेटियों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। जनताना सरकार के मुख्य तौर पर नौ विभाग हैं।

  1. कृषि विभाग
  2. व्यापार-उद्योग
  3. आर्थिक
  4. न्याय
  5. रक्षा
  6. स्वास्थ्य
  7. जन सम्पर्क
  8. शिक्षा-रीतिरिवाज
  9. जंगल विभाग।

हर विभाग की कमेटी 9 लोगों से मिलकर बनती है। यहां क्योंकि बात केवल कृषि व्यवस्था की हो रही है, इसलिए जनताना सरकार के कृषि मॉडल पर ही हम बात करेंगे।

जनताना सरकार का कृषि विभाग

इस विभाग का मुख्य काम वह है, जिसे हमारी सरकार 1947 के बाद से आज तक टालती रही हैं- यानि क्रांतिकारी भूमि सुधार। जनताना सरकारों ने इसका पहला चरण पूरा कर लिया है और अलग-अलग क्षेत्रों में यह अलग-अलग स्तर पर है क्योंकि भूमि सुधार एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में पहले चरण में सभी को भूमि दी जा चुकी है। पूरे दण्डकारण्य क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति भूमिविहीन नहीं है। रोचक और उत्साहवर्धक है कि आम समाज से अलग यहां जमीनों को घर के पुरूषों के साथ महिलाओं के नाम भी किया जाता है यानि जमीन पर मालिकाना महिला और पुरूष दोनों का होता है। दूसरे चरण में अनाज उपजाने के लिए जमीनों की गुणवत्ता को चिन्हित करना और गुणवत्ता को बढ़ाने  का काम हो रहा है। पहले भी जमीनों का बंटवारा मिट्टी की गुणवत्ता के अनुसार किया गया है। यदि किसी को कम गुणवत्ता वाली जमीन पहले दे दी गयी, तो अब उसकी क्षतिपूर्ति भी की जा चुकी है। जंगल जलाकर घुमन्तू खेती का स्थान यहां स्थाई खेती लेने लगी है।

वरवर राव ने जनताना सरकार पर जानकारी देते हुए लिखा है कि जनताना सरकारों के एक सम्मेलन में कृषि विभाग और जंगल विभाग के बीच इस बात को लेकर विवाद खड़ा हो गया कि जंगल विभाग ने कृषि विभाग पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने खेती के लिए जंगल के पेड़ों को नष्ट किया। बात सही पायी गयी और कृषि विभाग पर यह जुर्माना लगाया गया उसने जितने पेड़ नष्ट किये हैं, वे उतने पेड़ लगाये। कृषि विभाग ने यह जुर्माना स्वीकार किया। इसका परिणाम ये है कि सरकारी रिपोर्ट खुद कहती है कि माओवादी क्षेत्रों में जंगल समृद्ध हुए हैं।

पूरे दण्डकारण्य में कोई भी महिला या पुरुष भूमिहीन नही है, लेकिन सापेक्षिक रूप से धनी किसानों की मौजूदगी भी बनी हुई है। यदि धनी किसान ने यहां के लोगों के खिलाफ कोई अपराध किया, तो उसकी जमीन ले ली गयी है या ले लिये जाने का प्रावधान है, लेकिन ऐसा मौका बहुत कम ही आया है। ऐसा करने का अधिकार अपराध की गंभीरता को देखते हुए ग्राम राज्य कमेटियों को ही है।

माओवादी पार्टी की ओर से अक्सर जमीन की जांच करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया  जाता है, जिसमें कृषि और जंगल विभाग दोनों शामिल होते हैं। इन कार्यशालाओं में खेती में कुशलता बढ़ाने, गुणवत्ता सुधार, सिंचाई व्यवस्था बेहतर बनाने, छोटे तालाब खोदने के बारे में विचार विमर्श किया जाता है। कई गांवों ने अपने यहां सिंचाई के लिए छोटे चेकडैम भी बना लिये हैं, यह सब विकास विभाग के साथ मिल कर किया जाता है। बारिश और पहाड़ों से आने वाले पानी को तालाब में इकट्ठा करने के लिए नहरें भी बनाई गयीं हैं। जहां के तालाब सिंचाई के लिए अनुपयोगी हो गये हैं, वहां उस तालाब को मछली पालन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह तालाब क्योंकि सामूहिक रूप से गांव का है, इसलिए इसमें पलने वाली मछलियां भी।

हरित क्रांति के दौरान भारत के खेतों को जहां साम्राज्यवादी बाजारों के बीज खाद और उर्वरकों से पाटकर खेती और लोगों को बीमार बना दिया गया, वहीं जनताना सरकार का कृषि विभाग खेती में उर्वरकों के प्रयोग को हतोत्साहित करता है। जंगल में  गिरी हुई पत्तियां और जानवरों के गोबर ही खाद के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। जानवरों को गोबर संग्रहण के लिए मैदानों में बांधा जाता हैं।

चावल, मक्का, दाल और कई अन्य ऐसे अनाज उगाये जाते हैं, जो सूखे के समय काम आ सकें।

हर घर में सब्जियां, फल और जंगली उत्पाद आवश्यक रूप से उगाने को प्रोत्साहन दिया जाता है। अच्छी पैदावार करने वाले को पुरस्कृत भी किया जाता है। अधिकांश क्षेत्रों में साल में दो फसलें होती हैं, जो कि ‘जनताना सरकार’ की नजर में आत्मनिर्भर बनने के लिए काफी है, जिन क्षेत्रों में साल में दो फसलें नहीं होती, वहां इसके लिए शिक्षित किया जा रहा है क्योंकि इन क्षेत्रों में दो-तीन महीने ऐसे होते हैं, जब खाने के लिए पर्याप्त नहीं होता। माओवादी पार्टी दो फसल के लिए, उत्पादकता बढ़ाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के काम में गंभीरता से लगी है। इसके अलावा सब्जियों की पैदावार को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है, जो कि जाड़े में अधिक होती हैं। क्षेत्र में एक छोटा राइस मिल भी है।

इन तकनीकी बातों के बाद ‘जनताना सरकार’ की खेती की राजनीति पर कुछ बातें-

इन क्षेत्रों में दो तरह की खेती है-

  1. सहकारी खेती
  2. सामूहिक खेती

सहकारी खेती के तहत 4 या 5 परिवार मिलकर एक टीम बनाते हैं। हर घर के पास खेत और खेती के उपकरण भी होते हैं। एक टीम दूसरी टीम के साथ मिल कर काम करती हैं। जैसे टीम अ और ब हैं, तो टीम अ पहले टीम ब के साथ मिल कर उनके खेतों पर काम करेगी, फिर टीम ब टीम अ के खेतों पर काम करेगी। इस तरह वहां जब से सहकारी खेती शुरू हुई है, कोई भी दूसरे के खेत पर काम करने वाला मजदूर नहीं, बल्कि सहयोगी है।

सामूहिक खेती के अर्न्तगत उन जमीनों पर सभी लोगों द्वारा की गयी खेती आती है, जिसे ‘सरकार’ ने जमीन बंटवारे के समय अपने पास रख ली है। भूमि वितरण के समय ‘जनताना सरकारें’ अपने लिए कुछ जमीने एलॉट कर लेती हैं, जिन पर लोग सामूहिक श्रम करके अन्न उपजाते हैं। वरवर राव अपने लेख में बताते हैं- “मान लिया कि कुल 400 एकड़ की जमीन है तो 370 एकड़ जमीन लोेगों में वितरित कर दी जाती है और 30 एकड़ जमीन सामूहिक खेती के लिए सरकार द्वारा रख ली जाती है। इस जमीन पर लोग सरकार कमेटी के नेतृत्व में सामूहिक खेती करते हैं। इस जमीन की उपज को तीन भाग में बांटा जाता है। इसका एक हिस्सा गांव के सामूहिक हित में इस्तेमाल किया जाता है। एक हिस्सा खेती के औजार, दवा के लिए रखा जाता है या उनके लिए जिनके पास अनाज पर्याप्त नहीं हैं या जिसकी खेती कम हुई है। कुछ हिस्सा महुआ बीनने के समय के लिए सुरक्षित रखा जाता है। शेष बचा हिस्सा रक्षा व्यवस्था पर खर्च किया जाता है, क्योंकि ‘जनताना सरकार’ हर वक्त यहां के लोगों की भाषा में ‘लूटी सरकार’ के निशाने पर है।” ज्ञात हो कि सलवा जुडुम के दौरान ‘जनताना सरकार’ वाले क्षेत्रों को पहला निशाना बनाया गया और आज भी यह कोशिश लगातार जारी है। पीएलजीए न केवल इन्हें सुरक्षा देने का काम करती है, बल्कि जनकल्याण के काम भी करती है। यानि यह सेना केवल लड़ने के लिए नहीं है, बल्कि समाज के लिए नियमित श्रम भी करती है।

नकदी फसलें जैसे कॉटन का उत्पादन हतोत्साहित किया जाता है, कुछ जगहों पर यह प्रतिबन्धित भी है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में उगाया जाता है, जहां इसे ‘अनुशासनभंग’ माना जाता है, बल्कि कई बार यहां कृषि कमेटियां खुद भी इस नियम को भंग कर देती हैं। ऐसा ज्यादातर सड़क से लगे गांवों में होता है जहां बाजार प्रवेश कर गया है और जहां ग्राम राज्य कमेटियां नहीं हैं। यहां इन्हें शिक्षित करने और राजनीतिक चेतना देने का काम किया जा रहा हैं। वरवर राव कहते हैं, “दरअसल इन क्षेत्रों में राज्य दो तरीकों से सेंध लगाने का प्रयास कर रहा है- एक तो सेना के माध्यम से दूसरे बाजार के माध्यम से।” बाजार खेती को तबाह करने का एक बड़ा माध्यम है जिससे खेती को बचाने का काम राजनीतिक काम है, वरना साम्राज्यवादी बाजार लोगों की जरूरत नहीं बल्कि अपनी जरूरत के अनुसार इसे संचालित करने लगता है। भारत की खेती भी इसका नमूना है। खेती के संकट की जब भी बात होगी तो इसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता।

यहां भी बाजार लगते हैं, साप्ताहिक बड़े बाजार भी लेकिन यहां बिकने वाले वस्तुओं के दाम बाहर का बाजार नहीं, बल्कि ‘जनताना सरकारें’ तय करती हैं, भले ही वह साहूकार या बिचौलिये के माध्यम से बाजार में लायी गयी हों। जनताना सरकार इनका विश्वास भी जीतने के प्रयास में है और काफी सफलता भी मिल रही है। लेकिन ‘जनताना सरकारें’ वस्तुओं का दाम निर्धारण कैसे करती हैं इसका कहीं भी जिक्र नहीं है इसलिए जानकारी नहीं हो सकी। ‘जनताना सरकार’ का कृषि मॉडल बहुत ही छोटे रूप में है, लेकिन तथाकथित ‘कृषि संकट’ का समाधान बताने की बड़ी ताकत रखता है। वास्तव में यह कृषि का संकट नहीं, व्यवस्था का संकट है, जो साम्राज्यवादी बाजार के हितों को साधने का काम कर रही है, किसानों या देश का नहीं।

जनताना सरकार का मॉडल जो बताता है उसमें पहला यह, कि समाज में भूमि वितरण का कार्य पूरा किया जाय।

दूसरे, उत्पादन बाजार की जरूरत को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि इंसान के उपभोग के लिए किया जाय।

तीसरा, भूमिहीनों को जमीन की निजी मिल्कियत देकर इससे आगे बढ़ते हुए इसे श्रम और उपभोेग दोनों के लिए सामूहिक मिल्कियत की ओर ले जाने चेतना से लैस किया जाय।

लेकिन हालत तो यह है कि देश में कृषि संकट को हल करने का पहला चरण यानि भूमि के वितरण का काम ही अभी नहीं पूरा किया गया है। यकीन मानिये, यह काम समाज में दलितों, पिछड़ों आदिवासियों और महिलाओं की स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा क्योंकि तब वे आर्थिक रूप से मजबूत होंगे, फलतः सामाजिक रूप से भी।

हाल ही में महाराष्ट्र में होने वाली कृषि रैली में अधिकांश ऐसे दलित और आदिवासी कृषक थे, जो कि भूमिहीन हैं। वे पट्टा भूमि लेने और वनोपज पर अपने अधिकार स्थापित करने की मांग के साथ रैली में शामिल हुए थे, भूमिहीनता की स्थिति में ये खेतिहर मजदूर बन गये हैं। एक ओर तो सरकारी विश्लेषक यह कहते हैं कि कृषि संकट की एक वजह खेतिहर मजदूरी का बहुत ज्यादा होना है और वे लोग इस मजदूरी के कम होने को खेती के लिए फायदेमंद मानते हैं, लेकिन भूमिहीन दलित आदिवासियों के इस बड़े हिस्से को कृषि भूमि देकर कृषि संकट, रोजगार संकट को हल करने और सामाजिक विषमता को दूर करने की वकालत कभी नहीं करते। जबकि ‘आस्पेक्ट’ के अध्ययन के मुताबिक 80 प्रतिशत दलित और 92 प्रतिशत आदिवासी ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और अन्य समुदायों की तुलना में कृषि पर ज्यादा निर्भर हैं।  ग्रामीण भारत में एक ओर तो 21 प्रतिशत परिवार दलितों के हैं लेकिन कृषि प्रयोग में आने वाली कुल जमीन का महज 9 प्रतिशत ही दलितों के हिस्से में आता है। आधे से ज्यादा दलितों की जायदाद आधे हेक्टेयर से कम थी।

औपनिवेशिक शासन ने ‘भारतीय वन कानून 1927’ लागू करके योजनाबद्ध ढंग से जंगलों को हड़प लिया और आदिवासियों को अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया। 1947 के बाद भी इस कानून में दिनों दिन कुछ नया जोड़कर इसे और भी आक्रामक बनाया जा रहा है। यह अनायास नहीं है कि सलवा जुडूम या माओवाद विरोधी सैन्य अभियानों का शिकार वे आदिवासी क्षेत्र ज्यादा हो रहे हैं, जहां जनताना सरकार भूमि वितरण की नवजनवादी व्यवस्था को लागू कर रही है।

कृषि क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति और भी बुरी है। खेतीबाड़ी से जुड़े अधिकांश कार्य वे करती हैं, लेकिन उन्हें कृषक माना ही नहीं जाता। एनएसएस के आकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में ‘विशेष रूप से कार्यरत’ महिलाओं का प्रतिशत 38.7 है। वानिकी और बगान के काम में लगे हर पांच व्यक्ति में से 3 व्यक्ति महिला है। इसके बाद भी कृषि उपज या कृषि भूमि पर मालिकाना उसका नहीं होता। इसी कारण जनताना सरकार कृषि भूमि महिला और पुरूष को संयुक्त रूप से देती है। उनका मानना है कि यह उनकी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने के लिए जरूरी है।

वैसे तो सरकारी योजनाओं में भी ग्राम समाज की भूमि के पट्टा वितरण में कई जगह महिला-पुरूष दोनों को संयुक्त रूप से दिये जाने के कागजी प्रावधान रखे गये हैं। लेकिन कागजों से बाहर इनका कोई मतलब नहीं है। उत्तर प्रदेश में तो यह भी चर्चा है कि योगी की सरकार ग्राम समाज की जमीन को पट्टा पर दिये जाने की व्यवस्था को न सिर्फ खत्म कर रही है, बल्कि इन जमीनों को वापस लेने की कवायद भी उसने शुरू कर दी है। आजमगढ़ के कुछ गांवों से ऐसी खबरें आ रही हैं।

यहां इस बात की याद दिलाना भी उचित होगा कि  2004 में जब आन्ध्रप्रदेश सरकार ने माओवादी पार्टी को वार्ता का न्यौता दिया तो, बाहर आये माओवादियों के आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने शांतिवार्ता में अपनी ओर से जो मांगें रखीं, उसमें सबसे महत्वपूर्ण मांग थी कि सरकार आन्ध्रप्रदेश के भूमिपतियों से जमीनें लेकर भूमिहीनों के बीच बांट दे। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी को उन भूमिपतियों की एक सूची भी सौंपी जिनके पास सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों एकड़ जमीनें थीं। इन भूमिपतियों में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर अनेक मंत्रियों, नेताओ, विधायकों, सांसदों और उद्योगपतियों के नाम शामिल थे। इतना ही नहीं रामकृष्ण के नेतृत्व में आये माओवादी प्रतिनिधिमंडल को जिस होटल में ठहराया गया था, वहां पत्रकारों ही नहीं, उनसे मिलकर अपनी समस्या बताने वालों की लाइनें लगी रहती थीं, जिसमें जोतने वाली भूमि पर मालिकाना हक दिलाना एक बड़ी समस्या थी। यह सब देख सुन कर आन्ध्रप्रदेश सरकार घबरा गयी थी लेकिन सरकारें जिस कदर इन भू-पतियों की मित्र और कॉरपोरेटों की दलाल हैं, वे इन मांगों को पूरा कर ही नहीं सकती थी। उन्हें इन मांगों पर सख्त ऐतराज था। जल्दी ही वह वार्ता से बाहर आ गयी और वार्ता तोड़ने का ठीकरा भी माओवादियों पर फोड़ दिया।

वास्तव में जमीन वितरण जैसा महत्वपूर्ण सवाल इस तथाकथित कृषि संकट के केन्द्र में है। सरकारें कृषि को घाटे का सौदा बना कर भले ही जमीन की मांग को धुंधला करने का सालों से प्रयास कर रही हो, लेकिन यह सवाल इसके केन्द्र में बना हुआ है क्योंकि उपभोग के मामले में पूरी और संसाधन के मामले आधी आबादी अब भी खेती पर ही आश्रित है। सरकारी कानूनों में बंटाई प्रथा भले ही प्रतिबन्धित कर दी गयी हो लेकिन भारत के प्रत्येक गांव में यह व्यवस्था खुलेआम चली आ रही है। जमीन का मालिक जोतने वाले किसान के श्रम बहुत बड़ा हिस्सा हड़पकर उसे बाजार तक पहुंचाकर यह मान रहा है कि खेती अब ‘पूंजीवादी’ हो गयी। दूसरी ओर बंटाई पर खेती करने वाला किसान अभी भी इसी आस में है कि यह सामंती व्यवस्था खत्म हो और खेती वाली जमीन पर उसका अधिकार हो।

दूसरे, सरकारें साम्राज्यवादी कारपोरेटों में मजदूरों की मजदूरी कम रखने के लिए और किसी चीज पर तो नहीं, लेकिन खाद्यान्न बाजार पर नकेल कसे रहने देना चाहती हैं। एक ओर तो खेती में लगने वाले सभी सामानों पर साम्राज्यवादी कारपोरटों का नियंत्रण हैं, जो खाद, बीज का दाम बढ़ाये रखते हैं। दूसरी ओर सरकारें ‘गरीब जनता’ का हवाला देकर खाद्यान्नों का दाम बढ़ाने नहीं देती हैं क्योंकि इसके बढ़ जाने से न्यूनतम वेतन में भी बढ़ोत्तरी करनी होगी, जो कॉरपोरेट हित में उचित नहीं है। यानि ‘जबरा मारे रोवहू न देय’ की स्थिति बना दी है उन्होंने किसानों की। भूमि वितरण तो छोड़ दीजिये हाल ही में उठी किसानों की इस मांग को भी सरकार नहीं मान रही है, उसका कहना है कि इससे मंहगाई बढे़गी। यानि समाज में मंहगाई कम करने का दारोमदार किसानों पर ही है कॉरपोरेटों पर नहीं। नतीजा सामने है- घाटा सहते किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

दरअसल यह कृषि का संकट नहीं, व्यवस्था का संकट है, जनताना सरकार इस संकट से निकलने के लिए एक मॉडल हो सकता है। यह नवजनवादी समाज का एक सरलीकृत रूप है, लेकिन यह अपने अन्दर नये समाज का भ्रूण संजोये हुए है और यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी व्यवस्था में यह मॉडल तमाम खतरों के साथ टिका हुआ है। सरकार इस मॉडल को सामने लाने की बजाय इस पर दमन कर रही है। यह तब है, जबकि भारतीय संविधान में हुआ 73वां संशोधन हर ग्राम पंचायत को चुने जाने के साथ अपना विकास अपने तरीके से करने का अधिकार देता है। 74वां संशोधन यही अधिकार नगरों को देता है। ये अलग बात है कि इसे लागू नहीं किया जाता। अमेरिका में बैठ कर प्रधानमंत्री ये तय कर लेते हैं कि इलाहाबाद का ‘विकास’ अमेरिका करेगा। जापान में बैठकर यह तय कर लेते हैं कि बनारस का ‘विकास’ जापान करेगा। ‘जनभागीदारी’ जिसकी बात ये दोनों संशोधन करते हैं हर जगह से गायब है। लेकिन दण्डकारण्य के गांवों ने अपने विकास के लिए जब एक नये मॉडल को चुना है, तो सरकारें इन पर दमन क्यों कर रहीं हैं इसकी सूचनायें बाहर आने से क्यों रोक रही हैं। कम से कम बहस के लिए ही इन खबरों का बाहर आना जरूरी है।

उपरोक्त कृषि व्यवस्था तो ‘जनताना सरकार’ के एक विभाग मात्र का कार्य है, इसके बाकी विभाग जिस तरह से जनभागीदारी के साथ चलाये जा रहे हैं, वह एक पिछड़े नहीं, बल्कि विकसित समाज का मॉडल है। कृषि संकट को हल करने के लिए ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य और जनभागीदारी वाली प्रशासनिक कुशलताओं को जानने के लिए भी ‘जनताना सरकार’ के बारे में जानना रोचक होगा।


लेखिका दस्तक पत्रिका की संपादक हैं और प्रतिबद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं 

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