दलित-मुस्लिम एकता की बात करने वालों से कुछ सवाल: संदर्भ राजसमन्‍द

शाहनवाज़ आलम

पिछले दिनों मुसलमानों से द्वेष के तहत राजसमंद में हुई अफराजुल की हत्या या मोदी के आने के बाद से हुई इस किस्म की तमाम हत्याओं पर सेक्यूलर, उदारवादी और मुस्लिम समुदाय के बीच काफी बहस होती रही है। इस बहस में अखलाक से लेकर अफराजुल तक पीड़ित के बतौर मुस्लिम नामों की सूची बार-बार दोहराते हुए इस पर चिंता जाहिर की गई कि मुसलमानों पर किस तरह हमले बढ़े हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन मुसलमानों के हत्यारों के जातिगत सेन्‍सस से बचा गया। जो इस पूरी बहस को ना सिर्फ अधूरा साबित करता है बल्कि उस दबाव को भी जाहिर करता है जिसके चलते हमारा कथित सेक्यूलर तबका ऐसी घटनाओं पर बहुत ईमानदारी से बात करने से बचता है। जाहिर है ऐसा इसलिए हुआ कि हत्यारों की सूची में अधिकतर दलित और पिछड़ी हिंदू जातियों से आते हैं जिनका खुला जिक्र करना सेक्युलर तबके को रणनीतिक तौर पर उचित नहीं लगता है।

अपनी इस समझदारी के चलते ही या तो इन दानिश्वर तबकों ने इन हत्याओं के पीछे हिंदुत्ववादी विचार जिसके मूल में उनके मुताबकि ब्राह्मणवाद है (मेरा मानना है कि इसकी केंद्रीय धुरी ब्राह्मणवाद नहीं बल्कि मुसलमानों से नफरत है और इसीलिए हम देखते हैं कि इस हिंसा में वे तबके बड़ी संख्या में शामिल हैं जो अपने हिंदू सामुदायिक जीवन में ब्राह्मणवाद और उसके प्रतीकों के विरोधी हैं या जो हिंदू सामाजिक पद सोपान के शीर्ष पर कायम जातियों से नफरत करते हैं), को केंद्रीय बहस बनाने की कोशिश की या फिर तथ्यात्मक दिखने की कोशिश में यहीं तक पहुंच पाए कि दलितों और पिछड़ों को उकसा कर उनसे मुसलमानों की हत्याएं हिंदुत्ववादी शक्तियां करवा रही हैं।

पहली व्याख्या जहां रणनीतिक ऐतबार से तो गलत है ही, वह हिंदुत्व की समझ के स्तर पर भी बचकानी है या फिर सच्चाई को जानते हुए भी उसे नकारने की कोशिश है क्योंकि एक राजनीतिक परियोजना के बतौर हिंदुत्व की आलोचना करना उन्हें आसान और फैशनेबल लगता है लेकिन उसके सामाजिक (पिछड़ी और दलित जातियों) अवयवों पर बात करना या उसे निशाना बनाना मुश्किल। अपनी इस स्थिति को अक्सर वह घटनाओं को टोटेलिटी (सम्पूर्णता) में देखने का परिणाम बताता है, जिससे उसका राजनीतिक विश्लेषण और भी हास्यास्पद और अप्रासंगिक हो जाता है क्योंकि ‘सम्पूर्णता’ में आप तस्वीर को बहुत दूर से देखने को मजबूर होते हैं और बारीकियों पर नजर नहीं रख पाते या उसे जानबूझ कर नजरअंदाज करते हैं। तो वहीं दूसरी व्याख्या हत्यारों की एक अबोध, एक, दूसरों के बहकावे में आ कर ऐसे जघन्य अपराध कर देने वाले की छवि निर्मित करता है जिसमें अंततः उनके लिए राजनीतिक और सामजिक तौर पर ‘इम्प्यूनिटी’ की भूमिका तैयार होती है।

इन दोनों तरह की व्याख्याओं जिसे मैं अपरिपक्व या फ्रॉड से ज्यादा मुस्लिम विरोधी मानता हूं, के कारण मुसलमानों पर बढ़ती हिंसा और एक समाज के बतौर उनका डर तो चर्चा में आ जाता है लेकिन इन तबाकों से आने वाले हत्यारों (जिसमें अधिकतर दलित और पिछड़े हिंदू हैं) का मनोबल, उनकी इम्प्यूनिटी चर्चा से बाहर हो जाती है। वहीं इसका दूसरा परिणाम यह होता है कि यह जानते हुए भी कि इन मुसलमानों के हत्यारे पिछड़े और दलित वर्ग से आते हैं, इस दुष्चक्र को राजनीतिक शिकस्त देने की रणनीति के बतौर ‘दलित-मुस्लिम एकता’ का नारा भी लगाया जाने लगता है। यानी मुसलमान सब कुछ जानते हुए भी अपने हत्यारों के साथ रणनीतिक एकता की बात करने को मजबूर बना दिया जाता है। इस तरह यह मुस्लिम विरोधी दुष्चक्र, तमाम शोर शराबे के बावजूद और मजबूत होता जाता है।

अफराजुल जैसी हर हत्या के बाद लगाए जाने वाले दलित-मुस्लिम एकता के नारे में अंतरनिहित मुस्लिम विरोधी स्वर पर बात करने से पहले, दलितों (पिछड़ों पर फिर कभी बात होगी) के सामाजिक और राजनीतिक उपागम (एप्रोच) को समझना जरूरी होगा। दरअसल, हिंदू सवर्ण जातियों के प्रति दलितों का उपागम सामाजिक तौर पर उनमें अपने लिए स्वीकार्यता बनाने की होती है, वे किसी तरह इस हिंदू समाज व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था नहीं) में अपने लिए एक स्थान बनाने के स्वाभाविक उद्येश्य से संचालित होता है, लेकिन वो अपने साथ हुए ऐतिहासिक अन्यायों को भी भूलना नहीं चाहता और इसीलिए वो इन ‘ऐतिहासिक अन्यायों’ को एक बारगेनिंग के औजार के बतौर भी इस्तेमाल करता है। और चूंकि ये ‘ऐतिहासिक अन्याय’ सवर्णों के हाथों हुए हैं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वे ही इन्हें सही भी कर सकते हैं। लिहाजा, दलितों की हर आक्रामक मुद्रा के सामने हमेशा सवर्ण ही खड़ा होता है। इसलिए उनके बीच की बारगेनिंग हमेशा दलितों को ब्राह्मणवाद के निकट ही ले जाती है, ये बारगेनिंग चाहे दलितों के हित में जितना ही प्रगतिशील क्यों न दिखे, मसलन, मंदिर में प्रवेश या मंदिर में पुजारी बनना। वहीं कुछ हद तक अम्बेडकर और उससे ज्यादा कांशीराम की ‘किसी भी तरह सत्ता तक पहुंच या उसमें हिस्सेदारी’ की समझ उन्हें किसी भी तरह की विचारधारात्मक या अस्मिता आधारित ऐतिहासिक दबाव से मुक्त एक सत्तालोलुप, राष्ट्रीय या सामाजिक महत्व के किसी भी दूसरे मुद्दे के बजाय सिर्फ अपने स्थान प्राप्ति के लिए अति सचेत और अतिसक्रिय समाज में तब्दील कर देती है। समायोजित किए जाने (आरक्षण) के अधिकार और उसके दायरे को बचाए रखने की चिंता ही उसकी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता का एकमात्र द्योतक होता है। यहां तक कि वह दलितों के साथ होने वाले अत्याचारों पर भी गैर-प्रातिनिधिक या आरक्षण के खांचे से बाहर जा कर नहीं सोच पाता। ऐसे हर अन्याय के बाद वो आरक्षण के पूरी तरह से लागू नहीं किए जाने के आंकड़ों के साथ शिकायती मुद्रा अख्तियार करता दिखता है। यानी उसका गुस्सा भी किसी स्वाभाविक इंसानी मुद्रा में तब्दील होने के बजाए कृत्रिमता जिसमें और कुछ पा लेने की इच्छा छुपी होती के साथ, का रूप ले लेती है। सत्ता संचालन करने वाली ब्राह्मणवादी शक्तियां जानती हैं ऐसे तबकों को कैसे संतुष्ट किया जाता है।

यूपी में (पिछड़ावादी) सपा और (दलितवादी) बसपा में से पहले बसपा का खुलेआम भाजपा के साथ शुरू में ही चले जाना, उसके सामाजिक उपागम को और बेहतर तरीके से समझाता है। लेकिन इस पर फिर कभी।

अब चूंकि मुस्लिम समाज राजनीतिक तौर पर इतनी हैसियत नहीं रखता कि वह निकट भविष्य में सत्ता तक पहुंच पाए या उसका महत्वपूर्ण अवयव हो जाए इसलिए वो दलितों के सामने उनकी बेहतरी का वादा भी नहीं रख सकता। जिसकी एक वजह यह भी होती है कि दलितों के ‘विक्टिमहुड’ का कारण चूंकि ऐतिहासिक तौर पर मुसलमान नहीं रहा है, इसलिए वो उनसे अपनी ‘पुरानी गलतियों’ को दुरूस्त करने जैसा कोई समझौता भी नहीं कर सकता। यानी मुसलमानों के पास दलितों से समझौता करने का कोई आधार नहीं होता। लिहाजा वो उसी हिंदुत्व के पास स्वाभाविक तौर पर जाता है जो उसे राजनीतिक तौर पर सत्ता में भागीदारी और सामाजिक तौर पर समाज में बराबरी देने का वादा करता है। या फिर वो मुसलमानों के अतिरिक्त हिंदू पद सोपान में अपने से मजबूत तबकों से समझौते की राजनीति करके सत्ता तक अपनी स्वतंत्र पहुंच बनाने की कोशिश करता है। यानी, इस पूरी प्रक्रिया में मुसलमान स्वभावतः बाहर रहता है।

ऐसे में जब एक सामान्यतः मुस्लिम विरोधी माहौल बना हो तब दलितों का अपने में एक स्वतंत्र मुस्लिम विरोधी मुद्रा में आ जाना बहुत अस्वाभाविक नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में दलितों का मुस्लिम विरोधी मुद्रा संघ परिवार या हिंदुत्व की देन कम और उनके सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता और उद्देश्यों का परिणाम ज्यादा है।

वहीं दलित-मुस्लिम एकता की बात करने वाली दलित राजनीति और उसके दलित नेतृत्व की भाषा को भी गम्भीरता से परखने की जरूरत है जिसमें वे इसे स्वाभाविक बताने के लिए इसे बार-बार दोहराते हैं कि मुसलमान उनके स्वाभाविक दोस्त इसलिए हैं कि वे भी कभी दलित और पिछड़े हिंदू थे जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। मायावती और कांशीराम के भाषणों और दलित साहित्य में, यहां तक कि प्रगतिशील विश्लेषकों में भी इस तर्क का भंडार मिल जाएगा। तथ्यात्म तौर पर इसके सही होने में कोई दो राय नहीं हो सकती क्योंकि मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा हिंदू जातियों के कथित निचले तबके से ही कनवर्ट हुए हैं। लेकिन यह मुहावरा इसलिए आपत्तिजनक और मुस्लिम विरोधी व मुसलमानों को दोयम दर्जे का साबित करने वाला है कि वह मुसलमानों को उनकी स्वायत्त धार्मिक पहचान के साथ स्वीकार नहीं करती बल्कि पूर्व हिंदुओं के बतौर स्वीकार करती है। यानी इस रिश्ते का बाहरी आडम्बर भले ही दलित और मुस्लिम का हो, लेकिन इसके मूल में उसका केंद्रीय स्वर ‘हिंदू’ है। ‘मौजूदा हिंदू और पूर्व हिंदू के बीच की एकता’, जिसका नेतृत्व ‘मौजूदा हिंदू’ को ही करना है, जिसकी सामाजिक और राजनीतिक उपगामिता हिंदुत्व की ओर ही है।

यानी, अफराजुल की किसी शम्भू कुमार रैगर द्वारा हत्या जैसी हर घटना के बाद मुसलमानों को इस पर बार-बार सोचने की जरूरत है कि दलित-मुस्लिम एकता ना तो स्वाभाविक है और ना ही फायदेमंद। दरअसल, मुसलमानों और सेक्यूलरिज्म के विचार में यकीन रखने वाले लोगों को इस मूर्खतापूर्ण धारणा से बाहर निकलना होगा कि सेक्युलरिज्म कोई ऐसी चीज है जो हिंदू वर्णव्यवस्था के आपसी अंतरविरोधों में पैदा होती है या जिसे इन अंतरविरोधों से जिंदा रखा जा सकता है। सेक्युलरिज्म एक विचार है जिसका वाहक कोई भी हो सकता है-सवर्ण भी और दलित और पिछड़ा भी। ठीक जिस तरह साम्प्रदायिक कोई भी हो सकता है- सवर्ण भी अवर्ण भी। दरअसल, सच्चाई तो यह है कि जब से भारतीय राजनीतिक जीवन में एक विचार के बतौर सेक्युलरिज्म अपनी स्वतंत्र पहचान खो कर जातियों के सापेक्ष परिभाषित होने लगा, मुसलमानों के खिलाफ निर्णायक तौर पर साम्प्रदायिक माहौल बनना शुरू हुआ।

वहीं मुसलमानों को भी यह समझ लेना होगा कि दलित या कोई भी समाज उनका स्वाभाविक मित्र नहीं हो सकता क्योंकि राजनीति में कोई भी मित्रता स्वाभाविक नहीं होती और ना उसे होना ही चाहिए, वह शर्तों पर टिकी होती है और उसी से संचालित भी होती है। इसलिए दलितों के साथ मुसलमानों की कोई एकता बनती भी है तो उसे इसलिए नहीं होना चाहिए कि वे ब्राह्मणवाद से पीड़ित हैं। यह तो एक सच्चाई है ही, लेकिन उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि मुसलमान ब्राह्मणवाद से पीड़ित नहीं हैं, वे साम्प्रदायिकता से पीड़ित हैं, यानी यहां पीड़ितों के बीच एकता वाला तर्क भी नहीं लागू होता। और जब दलितों का हिंदुत्व से अंतर्विरोध उसकी साम्प्रदायिक विचारधारा के कारण नहीं है तो फिर उनके साथ जा कर मुसलमान साम्प्रदायिकता से कैसे लड़ लेंगे? ऐसा सोचना भी मूर्खता है। वहीं मुसलमानों को इस भ्रम से भी बाहर निकल आने की जरूरत है कि भारत में मुसलमान और दलित दोनों ही समान बदहाल स्थिति में हैं। यह एक भ्रम है जिसे बहुत चालाकी से दलित राजनीति ने या फिर अगम्भीर तरीके से मुसलमानों की समस्या को देखने वाले प्रगतिशील लोगों ने फैलाया है। इस भ्रम से मुसलमान हमेशा धोखा खाएंगे।

मसलन, समाज चाहे जितना दलित विरोधी हो जाए, सत्ता चाहे जितनी दलित विरोधी हो जाए लेकिन राजनीतिक हिस्सेदारी के ऐतबार से वो कभी दलित विरोधी नहीं हो सकती, भारतीय संविधान इसकी गारंटी करता है। विधानसभाओं और संसद में उनका निश्चित प्रतिनिधित्व होना ही होना है, आरक्षित सीटों पर खुलेआम मनुवाद का समर्थन करने वाली पार्टियों को भी दलितों को टिकट देना ही देना है। इसलिए समाज के बिल्कुल दलित विरोधी होने के बावजूद भी दलित को सदन में पहुंचना ही है। वहीं अगर समाज मुस्लिम विरोधी हो जाए तो एक भी मुसलमान सदन में नहीं जा सकता यहां तक कि भाजपा का भी, मसलन शाहनवाज हुसैन। इसलिए जबरन, दलितों को अपनी बदहाल स्थिति के समकक्ष बता कर उनसे उन बातों के लिए सहानुभूति दिखाना जिसके लिए मुसलमान तो बिल्कुल ही जिम्मेदार नहीं हैं, मूर्खतापूर्ण है। इससे राजनीतिक तौर पर दलित मजबूत होते हैं क्योंकि आप की इस हमदर्दी से राजनीतिक ताकत उन्हीं की बढ़ती है, मुसलमान खुद कमजोर होते हैं।

राजसमन्‍द: मुस्लिमों को डराने और दलितों को हिंदुत्‍व की छतरी के नीचे लाने का दोहरा फॉर्मूला

इसलिए अगर दलितों के साथ मुसलमानों को राजनीतिक साझेदारी बनानी है तो उसकी कुछ ठोस बुनियादी शर्त होनी चाहिए। मसलन, गौरतलब है कि मुसलमानों के दलित तबकों को 1936 से 1950 तक हिंदू दलितों के साथ ही आरक्षण का लाभ मिलता था। लेकिन 1950 में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा धारा 341 (1) के संदर्भ में यह आदेश जारी कर दिया गया कि कोई भी व्यक्ति जो हिंदू धर्म के अलावा किसी धर्म को मानता हो उसे अनुसूचित जाति के दायरे से बाहर माना जाएगा। जाहिर है, इससे मुसलमान दलितों का पूरा का पूरा हिस्सा ही आरक्षण से वंचित कर दिया गया जबकि हिंदू दलित ये पाते रहे। सबसे अहम कि यह सब बाबा साहब भीम राव रामजी अम्बेडकर के कानून मंत्री रहते हुए हुआ और आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने इस नाइंसाफी पर आपराधिक चुप्पी साधे रखी। मुसलमानों को दलित-मुस्लिम एकता की बात करने वाले और मुसलमानों को भी पूर्व दलित बताने वाले दलित राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से यह पूछना चाहिए कि वे इस पर चुप क्यों रहते हैं, वे क्‍यों ‘पूर्व दलितों’ से वोट तो ले लेना चाहते हैं लेकिन उनका वाजिब हक उन्हें नहीं देना चाहते? जाहिर है 341, दलित राजनीति की ऐसी साम्प्रदायिक और मुस्लिम विरोधी नब्ज है जिसका जिक्र आते ही वो संघ की भाषा बोलने लगता है क्योंकि सत्ता और रोजगार में किसी भी तरह हिस्सेदारी पाने से बाहर, कुछ भी न सोच पाने वाला दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा कभी नहीं चाहेगा कि उसे मिलने वाले आरक्षण में मुस्लिम दलितों को भी हिस्सेदारी मिले। जाहिर है कोई भी ‘दलित-मुस्लिम एकता’ इस बुनियादी सवाल को नजरअंदाज करके या उसे खारिज करके नहीं बनाई जा सकती। इस पर दलित राजनीति को अपनी पोजीशन साफ करनी पड़ेगी।

इसी तरह, आम तौर पर सच्चर कमेटी की सिफारिशों से अपनी सहमति जताने वाली दलित राजनीति से मुसलमानों को इस पर भी स्पष्टीकरण मांगना चाहिए कि इसमें और रंगनाथ मिश्र कमेटी की सिफारिशों में उल्लेखित इस सवाल पर वे क्या सोचते हैं जिसमें साफ कहा गया है कि मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिधित्‍व को कमजोर करने के लिए मुस्लिम बहुल सीटों को आरक्षित कर दिया जाता है। यह एक ऐसी विडम्बनापूर्ण स्थिति को पैदा करता है जहां मुसलमान दलित नेता तो पैदा कर सकता है लेकिन खुद संख्याबल के बावजूद अपना नेता नहीं पैदा कर पाता।

जाहिर है, यह सवाल भी दलित राजनीति सुनना पसंद नहीं करती क्योंकि इससे उसके राजनीतिक प्रतिनिधित्व की संख्या में कमी आ जाएगी। इस मसले पर हम मुस्लिम विरोधी मुख्य सत्ताधारी राजनीतिक शक्तियों और साम्प्रदायिक ब्यूरोक्रेसी, जो परिसीमन के वक्त सचेत तरीके से मुसलमान बहुल सीटों को दलितों (हिंदू) के लिए आरक्षित कर देती है के साथ दलित राजनीति के नाभिनाल सम्बंध को देख सकते हैं। यह दरअसल एक शास्त्रीय उदाहरण है कि कैसे मुख्यतः सवर्णों द्वारा संचालित हिंदुत्ववादी व्यवस्था मुसलमानों का हिस्सा छीन कर दलितों को फायदा पहुंचाती है, जिस पर न्याय की बात करने वाला कोई घोर दलितवादी या अम्बेडकरवादी भी सवाल नहीं उठाता, क्योंकि उसकी न्याय की पूरी समझ ही जाति केंद्रित है।

जाहिर है, इस तरह के तमाम मुद्दे हैं जिन पर मुसलमानों को किसी भी ‘दलित-मुस्लिम एकता’ की बात करने वालों से बात करना चाहिए। किसी अफराजुल की राजनीतिक हत्या पर महज आक्रोश और चिंता जाहिर करने के बजाए मुसलमानों को ऐसी घटनाओं को एक समाज के बतौर अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता के खामियाजे के बतौर देखना होगा।


लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और रिहाई मंच के प्रवक्‍ता हैं
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