कांचा इलैया शेफर्ड की पुस्तक पोस्ट-हिंदू इंडिया (2009) के कुछ अध्याय एक प्रकाशक द्वारा तेलुगु में पुस्तिकाकार दोबारा प्रकाशित किए जाने के बाद 65 वर्षीय लेखक को आर्य वैश्य समुदाय के कुछ लोगों की ओर से लगातार जान की धमकी, अपशब्द और निंदा झेलनी पड़ रही है। दि इंडियन एक्सप्रेस को हैदराबाद से फोन पर दिए इस साक्षात्कार में इस अकादमिक विद्वान ने ‘सोशल स्मगलिंग’ की अपनी अवधारणा की व्याख्या करते हुए बताया है कि आखिर भारतीय पूंजीवाद पर प्रभुत्व जमायी हुई जातियों को यह क्यों परेशान करता है। कांचा इलैया पूछ रहे हैं कि क्या प्रगतिशील बुद्धिजीवी उनके मसले पर केवल इसलिए चुप हैं कि वे निचली जाति से आते हैं?
पढि़ए पूरा साक्षात्कार हिंदी में:
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के आर्य वैश्य (बनिया) आपका विरोध क्यों कर रहे हैं?
मैंने 2009 में यह किताब योग्यता और निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की पृष्ठभूमि में लिखी थी। इसमें विभिन्न जातियों पर अलग-अलग अध्याय शामिल हैं- नाइयों पर एक अध्याय का नाम है ”सोशल डॉक्टर्स”, धोबियों पर अध्याय का नाम है ”सबाल्टर्न फेमिनिस्ट्स”, इत्यादि। बनियों पर लिखे अध्याय का नाम है ”सोशल स्मगलर्स” और ब्राह्मणों पर अध्याय का नाम है ”स्पिरिचुअल फासिस्ट्स”। इस जून में एक छोटे से प्रकाशक ने हर अध्याय को अलग पुस्तकाकार छाप दिया और आवरण पर जातियों का नाम डाल दिया। इसी के बाद आर्य वैश्य समुदाय की ओर से हिंसक प्रदर्शन शुरू हुआ। दो लोग टीवी पर मेरी जान लेने की धमकी दे चुके हैं। टीडीपी के एक सांसद पीजी वेंकटेश ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि मुझे फांसी पर लटका कर मार देना चाहिए जैसा मध्यपूर्व में होता है। मैं 23 सितंबर को एक बैठक से लौट रहा था जहां रास्ते में मेरी कार पर हमला किया गया। मैं बच गया क्योंकि मेरा ड्राइवर मुझे बचाकर किसी तरह थाने ले आया। मैंने उस्मानिया युनिवर्सिटी के थाने में केस दर्ज कराया है और पुलिस से पूर्ण सुरक्षा की मांग की है। राज्य ने अब तक कुछ नहीं किया है– बिलकुल वही हाल है जैसा कर्नाटक में बुद्धिजीवियों के मामले में मुख्यमंत्री सिद्धरामैया का व्यवहार रहा है।
क्या सरकार की ओर से किसी ने आपसे संपर्क किया?
मेरे राज्य तेलंगाना में गृह मंत्री समेत अन्य मंत्रियों ने आर्य वैश्य समुदाय की निंदा में अपना स्वर मिला दिया। मुख्यमंत्री चुप हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री संकेत दे रहे हैं कि वे पुस्तक को प्रतिबंधित करवा देंगे। आप देखिए कि मैं कैसे माहौल में यह लड़ाई लड़ रहा हूं- मेरे पड़ोसी राज्य में गौरी लंकेश और एमएम कलबुर्गी की हत्या हो चुकी है। मेरे मन में इस किस्म का भय है। मैंने इसीलिए खुद को घर में नजरबंद कर लिया है। मैं सबसे यही कह रहा हूं कि अगर भारत सरकार देश-दुनिया में ख्यात एक बुद्धिजीवी की रक्षा नहीं कर सकती है, तो देश में और कोई भी बुद्धिजीवी महफूज़ नहीं है।
बनियों को सोशल स्मगलर कहने से आपका आशय क्या है?
सोशल स्मगलिंग की अवधारणा मैंने जाति आधारित आर्थिक शोषण को सामने रखने के लिए बनाई, जिसकी शुरुआत गांव से होती है और एकाधिकारी बनिया पूंजी तक जाती है जिसमें अंबानी, अडानी, लक्ष्मी मित्तल इत्यादि शामिल हैं। सोशल स्मगलिंग धोखाधड़ी वाले कारोबार का तरीका है जो बनियों की अर्थव्यवस्था में पैसे को संकेंद्रित करता जाता है और इसे उत्पादकों तक वापस नहीं जाने देता, जो धन संपदा के स्रोत हैं। ऐतिहासिक रूप से बनिया और ब्राह्मणों के गठजोड़ के चलते धन संपदा मंदिरों में भी एकत्रित होती रही। इससे मध्यकाल और उत्तर-मध्यकाल में व्यापारिक पूंजी का विकास नहीं हो सका और बाद में देसी पूंजी नहीं पनप सकी।
कारोबार का यह दुश्चक्र मनु, कौटिल्य और वैदिक पाठ के आध्यात्मिक दिशानिर्देशों के आधार पर चलता है। पश्चिम से उलट भारत में केवल एक जाति को कारोबार करने की छूट थी। स्मगलिंग का मतलब होता है गैर कानूनी तरीके से धन संपदा को देश की सरहदों से बाहर ले जाना, लेकिन सोशल स्मगलिंग का मतलब है सभी जातियों की धन संपदा को छीन कर एक ही जाति के दायरे में इकट्ठा कर देना- बनिया, जहां तक दूसरों की कोई पहुंच न हो। इस तरह धन संपदा देश के भीतर ही रहती है लेकिन एक जाति के कब्जे में हो जाती है। यह लौट कर कृषि या धर्मादा व शिक्षण कार्यों में नहीं जा पाती। यह ऐतिहासिक रूप से यहां हुआ है और आज भी आधुनिक निजीकृत अर्थव्यवस्था में जारी है। यही वजह है कि भारत में 46 फीसदी कॉरपोरेट निदेशक जाति से बनिया हैं जबकि इनकी आबादी 1.9 फीसदी है। ब्राह्मण दूसरे स्थान पर आते हैं जिनकी जाति के कॉरपोरेट निदेशकों की दर 44.6 फीसदी है।
मतलब आपका कहना है कि पूंजीवाद के इस स्वरूप में जाति को चुनौती नहीं दी जा सकती?
यह जाति नियंत्रित सामाजिक रूप से स्मगल की हुई पूंजी ही है जो निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू नहीं होने देना चाहती है। वे हमारी अयोग्यता की बात करते रहे हें लेकिन हमने कृषि अर्थव्यवस्था में धन संपदा के सृजन में अपनी योग्यता साबित कर दी है। आखिर वे निजी क्षेत्र में बाकी की 90 फीसदी जातियों को जगह देकर उनके साथ धन को साझा क्यों नहीं कर रहे, जिनमें जाट, पटेल इत्यादि भी शामिल हैं।
क्या यह सच है कि आपने किताब वापस लेने के लिए शर्त रखी है?
मैंने ये शर्तें रखी हैं (बनिया समुदाय के लिए यह साबित करने के लिए कि वे सोशल स्मगलर नहीं हैं)। सरहद पर तैनात हमारे फौजियों को देखिए। जब राष्ट्रवाद पर बहस छिड़ती है, अमित शाह और मोदी सिपाहियों का उदाहरण देते हैं। इन प्यादों में कोई भी बनिया या ब्राह्मण नहीं होता। मैं मांग कर रहा हूं कि हर फौजी के परिवार से एक नौकरी निजी क्षेत्र में दी जाए। नक्सल इलाकों या कश्मीर में लड़ रहे सिपाहियों को देखिए। इनके परिवार के लोगों को निजी क्षेत्र में नौकरी मिलनी चाहिए। देश में आज किसानों की खुदकुशी सबसे बड़ा मुद्दा है। मैं समूची औद्योगिक पूंजी से किसानों की सुरक्षा के लिए कोष बनाने की मांग कर रहा हूं- कम से कम उनके सालाना मुनाफे का 1 फीसदी यानी 30,000 करोड़। कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी जाति से नहीं लड़ती है या दलित और आदिवासी मसलों में सहयोग नहीं देती। उसे कायदे से सामाजिक जिम्मेदारी होना चाहिए।
सोशली स्मगल की हुई पूंजी के सामाजिक निहितार्थ क्या हैं?
एडम स्मिथ ने जब थियरी ऑफ मोरल सेंटिमेंट्स लिखा था, तो उन्होंने कहा था कि एक नैतिक भाव के बगैर पारदर्शी पूंजीवाद वजूद में नहीं रह सकता। खरीदार और विक्रेता को ईमानदार होना होगा और एक दूसरे के साथ सम्मान बरतना होगा। बनिया-ब्राह्मण पूंजीवाद में यह सहानुभूति, गरीबों के प्रति वह सहिष्णुता ही नदारद है। जो किसान धन संपदा का सर्जक है, उसकी मौत तक की उपेक्षा की जा रही है। जिस तरह सरहद पर सिपाही अपना राष्ट्रवाद साबित कर रहे हैं, उसी तरह उद्योगों को भी अपना राष्ट्रवाद साबित करना चाहिए।
आपकी राय में आज लेखकों को इतने गुस्से का सामना क्यों करना पड़ रहा है?
पहले हमारे यहां किसी का लिखा तब विवाद में आता था जब ईश्वर, पैगंबर या औरत का मामला जुड़ा होता था, लेकिन यह तो अकादमिक अवधारणा है और एक शोधार्थी की हैसियत से इसे सूत्रीकृत करने का मुझे पूर्ण अधिकार है। यह मसला सड़कों पर हल होने वाला नहीं है। मुझे आश्चर्य है और यह त्रासद है कि भारतीय बुद्धिजीवियों या अर्थशास्त्रियों ने इस विमर्श पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है। गो-आतंकवाद के इस दौर में जबकि बुद्धिजीवी मारे जा रहे हों, अगर कम्युनिस्ट-लिबरल चुप हैं और अंग्रेजी का मीडिया इसे रिपोर्ट तक नहीं कर रहा, तो यह मेरे लिए बहुत भयावह बात है। यह बात मुझे सबसे ज्यादा डराती है। हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं? क्या केवल इसलिए कि मैं निचली जाति का बुद्धिजीवी हूं?
साभार दि इंडियन एक्सप्रेस, अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव