क्या सरकार का विरोध देश का विरोध है?

बेंगलुरु में AIMIM सांसद असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी में CAA के विरोध में एक रैली आयोजित की गई थी। इसी रैली में मंच पर मौजूद 19 साल की अमूल्या लियोन ने पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगा दिए। उसके बाद उसने हिन्दुस्तान जिन्दाबाद के भी नारे लगाये पर तब तक उसके हाथ से माइक छीन लिया गया। उनका यह विडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और उन्हें कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी। इसके अलावा, उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। 

अब सवाल ये उठता है कि क्या देश में देशभक्ति  या राष्ट्रप्रेम की गढ़ी जाने वाली नई परिभाषाएँ इतनी कच्ची और दूषित हैं कि किसी देश के ज़िन्दाबाद कह देने मात्र भर से वे आहत हो जाती हैं?क्या एक नये तरह के तथाकथित लोकतंत्र के निर्माण में सरकार की आलोचना या किसी दूसरे मुल्क को ज़िन्दाबाद कहना राजद्रोह की श्रेणी में जुड़ गया है? और क्या इसके बाद किसी उन्मादी भीड़ को इस बात लाइसेंस मिल जाता है कि वह उसके घर में पत्थर मारे तोड़ फोड़ करे और उसके पिता से ज़बर्दस्ती भारत माता की जय के नारे बुलवाये। या फिर किसी श्री राम सेना का कोई कार्यकर्ता किस दबंगई से अमूल्या को जान से मारने की धमकी देता है और उसके ऊपर 10 लाख का ईनाम रख देता है।क्या किसी ख़ास वर्ग के लिये  क़ानूनों की इस तरह खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना अब आम बात हो गई है इस देश में?

एक 19 साल की लड़की अमूल्या जो विश्व शान्ति में यक़ीन रखती है और अपने आप को विश्व नागरिक बताती है।उसकी फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर नेपाल,बांग्लादेश,श्रीलंका तथा चीन समेत तमाम देशों के ज़िन्दाबाद के नारे चस्पा हैं।आख़िर क्यों इस लड़की को राजद्रोह के आरोप में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया और क्या यह संवैधानिक लोकतांत्रिक दृष्टि से सही है?

जबकि संविधान के अनुच्छेद 51 में स्पष्ट लिखित है कि राज्य का ये कर्तव्य है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाये जिससे नागरिकों में भी विश्व शांति का भाव पैदा हो।

कौन है अमूल्या?

ओवैसी के मंच से भाषण देने वाली अमूल्या एक स्टूडेंट ऐक्टिविस्ट है और वह बेंगलुरु के NMKRV कॉलेज से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं। उन्होंने यहां स्नातक में दाखिला लिया है। इससे पहले उन्होंने सेंट नॉर्बर्ट सीबीएसई स्कूल, क्राइस्ट स्कूल मनीपाल और सेंट जोसेफ स्कूल कोप्पा में भी पढ़ाई की है। सोशल मीडिया पर काफी ऐक्टिव अमूल्या मूल रूप से चिकमंगलूर की रहने वाली हैं। सीएए के खिलाफ बेंगलुरु में होने वाले छोटे-छोटे प्रदर्शनों के लिए सोशल मीडिया के सहारे समर्थन जुटाकर वह चर्चा में आईं।

बताया गया कि लोगों को जागरूक करने और उनका समर्थन हासिल करने के लिए अमूल्या ने सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लैटफॉर्म्स जैसे, टिंडर, हुकअप आदि की भी मदद ली थी। अमूल्या ने अपने ज्वलंत भाषणों की मदद से इलाके में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों में एक खास जगह बना ली थी। इस वजह से उन्हें बड़े नेताओं वाले मंचों पर भाषण देने के लिए माइक थमा दिया जाता था।

क्या है राजद्रोह का क़ानून?

इस क़ानून को ब्रिटिश शासकों ने भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में 1870 में धारा 124-A  के तहत जोड़ा।

राजद्रोहक़ानून का इतिहास 

राजद्रोह का क़ानून यानी 124-A एक ब्रिटिश क़ालीन औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है। संविधान विशेषज्ञ फैलाव मुस्तफ़ा बताते हैं कि मूल भारतीय दंड संहिता 1860 में सेक्शन 124-A नहीं था। यह क़ानून आया देवबंद के उलेमा के एक फ़तवे के बाद जिसमें हिन्दुस्तान के लोगों को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जिहाद करने के लिये कहा गया।और ये भी स्पष्ट तौर पर कहा गया कि हिन्दुस्तान के मुसलमान अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ जिहाद करें।

आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्दो घोष और तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर इस काले क़ानून के तहत कार्रवाई हुई थी।

आज़ादी के बाद एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक मुल्क में भी इस क़ानून का अस्तित्व बना रहा। हालाँकि संविधान सभा की बहसों में इस पर खूब तीखी बहस हुई थी और के.एम. मुंशी ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं से दूर रखने की वकालत की थी।

आज़ाद मुल्क में भी राजद्रोह के क़ानून के तहत अरुन्धति रॉय, विनायक सेन, भरत देसाई, असीम त्रिवेदी, प्रवीण तोगडिया, कन्हैया कुमार आदि पर केस दर्ज हुआ है।अभी हाल ही में जेएनयू के एक और शरजील इमाम पर भी देशविरोधी नारेबाज़ी और देश को तोड़ने की साज़िश करने के आरोप में राजद्रोह का केस दर्ज किया गया है।

राजद्रोह पर क्या कहते हैं सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले 

देश में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना से पहले फ़ेडरल कोर्ट हुआ करती थी।उसके चीफ़ जस्टिस मॉरीस ग्वेयर ने कहा था कि 124-A के तहत – कोई बात कह देना या कोई नारा लगा देना राजद्रोह नहीं होगा जब तक उस नारे की वजह से कोई हिंसा न हो।

1962 में केदारनाथ सिंह के केस में सुप्रीम कोर्ट ने भी यही बात दोहराई कि सिर्फ़ नारे लगा देने से या कोई स्पीच दे देने से राजद्रोह का केस नहीं बनता जब तक उसके नतीजे में हिंसा न हो।

साल 1995 में बलवंत सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और उसकी व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण है।

हुआ ये था कि इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद चंडीगढ़ में ‘खालिस्तान ज़िन्दाबाद’ सहित खालिस्तान के समर्थन में तमाम नारे लगे थे जिस वजह से राजद्रोह का केस लगा था।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे राजद्रोह मानने से इंकार कर दिया।

इसी से सम्बन्धित 2003 का नज़ीर खान का केस है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये हर नागरिक का मूल अधिकार है कि उसका कोई राजनीतिक विचार और विचारधारा हो सकती है । वह पूरी तरह से इन विचारों का प्रचार प्रसार कर सकता है और अगर इसके लिये वह इन शब्दों का इस्तेमाल करें कि ‘इसके लिये जंग करेंगे’ लड़ेंगे तो यह राजद्रोह नहीं है।

संविधान सभा की बैठक की दिलचस्प कहानी

30 जनवरी 1948 को गाँधी जी हत्या के बाद 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा की बैठक होती है। सुबह के 11 बज रहे थे संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने सदस्यों से अपील करते हुए कहा कि इससे पहले हम आज  की संविधान सभा की चर्चा शुरू करें आप सब अपने अपने स्थान पर खड़े हो जायें ताकि हम राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि दे सकें।सभी सदस्य खड़े होते बापू को श्रद्धांजलि देते हैं और वापस अपनी जगह बैठ जाते हैं।डा. प्रसाद सदस्यों से एक और आग्रह करते हैं कि वे सभी क़ायद ए आज़म जिन्ना और डीपी खेतान को श्रद्धांजलि देने खड़े हों। और कहा कि,” मैं आप सब से अपने स्थान पर खड़े होने का आग्रह करता हूँ ताकि हम कायद ए आज़म जिन्ना को श्रद्धांजलि दे सकें जिन्होंने दृढ़ निश्चय और अडिग निष्ठा से पाकिस्तान की स्थापना की। उनका इस समय गुजर जाना हम सबके लिये अपूरणीय क्षति है। हम सीमा पार रहने वाले अपने बहनों और भाइयों के लिये सहानुभूति पेश करते हैं”।

गांधी जी की हत्या के बाद जिन्ना ने भी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि हमारे जो भी मतभेद रहे हों लेकिन गांधी हिन्दू समाज से निकले महान शख़्सियतों में से एक थे।

विभाजन के बवंडर में भी हमारे तमाम नेताओं का क़द और किरदार कितना बड़ा था। उस वक्त दोनों तरफ़ सभी मज़हबों के लगभग 20 लाख लोग मारे गये थे। तब भी डा. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा में पहले बापू को श्रद्धांजलि देते हैं फिर जिन्ना को।

उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजद्रोह की कितनी प्रासंगिकता है?

हमारी संस्कृति में बार बार कहा गया है ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जिसके तहत अनादि काल से भारत सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानने का दावा करता है। लेकिन क्या बदलते भूमंडलीकृत युग में हम अपनी संस्कृति और सभ्यता की पहचान भी भूलते जा रहे हैं? क्या किसी मुल्क के लिये ज़िन्दाबाद कहना कभी भी राजद्रोह की श्रेणी में आ सकता है? उदारतावादी लोकतंत्र जो मनुष्यों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे बड़ा पैरोकार है आख़िर उस व्यवस्था में राजद्रोह जैसे क़ानून की भला क्या प्रासंगिकता हो सकती है। आज पूरे विश्व में राजद्रोह से जुड़े क़ानूनों में पर्याप्त सुधार और ढील की प्रक्रिया जारी है और बहुत हद तक वे सरल भी हैं।

अमेरिका में राजद्रोह के क़ानून की व्याख्या ही अलग है। सरकार विरोधी प्रदर्शनों में वहाँ राष्ट्रीय ध्वज को जलाया गया, फाड़ दिया गया और उस पर थूका तक गया। 50 में से 48 राज्यों में राष्ट्रीय ध्वज के साथ इस तरह की हरकत वहाँ एक बड़ा अपराध माना जाता था। अमेरिकी कोर्ट ने ये सभी 48 राज्यों के क़ानूनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बताते हुए निरस्त कर दिया।

लेकिन नये भारत में राजद्रोह का क़ानून सामान्यीकरण की ओर है जहां किसी भी छोटे मोटे सरकार विरोधी कृत्य के लिये भी इसका प्रयोग कर नागरिकों के अंदर एक विशेष प्रकार का राज्य प्रायोजित भय पैदा किया जा रहा है।

नदी में बाँध बनने के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों से लेकर विश्वविद्यालयों में फ़ीस वृद्धि और सरकार की नीतियों का विरोध करने पर भी राजद्रोह का केस दर्ज किया गया है।

उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था का ये संकट ही है कि सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में बाँधने का और सीमाओं को तोड़ने का दावा करने वाली इस व्यवस्था में राजद्रोह जैसा क़ानून मौजूद है।

लेकिन ये भी सत्य है कि जहां जहां धुर दक्षिणपंथी सर्सत्तावादी सरकारें मौजूद हैं वहाँ राजद्रोह क़ानून पर्याप्त उपयोग में लाकर नागरिकों में भय पैदा किया जाता है।

ऐसा नहीं है कि किसी देश के पास उसके परंपरागत दुश्मन नहीं हैं जैसे, इज़राइल- फ़िलिस्तीन, उत्तर कोरिया- दक्षिण कोरिया लेकिन भारत पाकिस्तान के केस में ये बिल्कुल अलग है कि उनके नागरिकों में उसका नाम लेने पर भी राजद्रोह लग जाये। असल में ये यहाँ की राजनीतिक सामाजिक  संस्कृति की जटिल बुनावट का परिणाम है।


लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली में पत्रकारिता के छात्र हैं 

First Published on:
Exit mobile version