डी.यू की ‘ज़ीरो कटऑफ़ पीएच.डी’ का सच और ‘सवर्ण एक्सप्रेस’ बनना इंडियन एक्सप्रेस का !

पत्रकारिता के रेगिस्तान में इंडियन एक्सप्रेस की उपस्थिति किसी नखलिस्तान की तरह लगती है। इन ‘अच्छे दिनों’ में भी सरकार से जवाब माँगने की परंपरा वहाँ बची हुई है। देश के ज़रूरी सवालों को उठाने का मसला हो या हाहाकारी और ढपोरशंखी प्रचार के दौर में मोदी सरकार का दावों को तथ्यों की कसौटी पर कसने का काम, एक्सप्रेस वाक़ई एक साहसी अख़बार लगता है, ‘निर्भय पत्रकारिता’ के दावे को सच साबित करता हुआ।

लेकिन माफ़ करिए, एक्सप्रेस की सारी क्रांतिकारिता बेहद खोखली नज़र आती है जब आरक्षण का सवाल आता है। ऐसा लगता है कि अख़बार का संपादकीय विभाग मंडल विरोधी आंदोलन में सक्रिय रहे ‘सवर्ण-वीरों’ से भरा हुआ है। वरना क्या वजह है कि पनामा पेपर्स के तिलिस्म को अपने मेहनत और मेधा से तार-तार करने वाले एक्सप्रेस के पत्रकार दिल्ली विश्वविद्यालय में ज़ीरो कटआफ़ के मसले पर निहायत आलसी साबित होते (या यह उनके दलितों और आदिवासियोंं के प्रति सवर्ण-घृणा को पुष्ट करने वाली बात थी !) ।

आइए, पहले जानें कि हुआ क्या ?

दरअसल, दिल्ली विश्वविद्यालय ने ऐलान किया कि गणित में पीएच.डी करने की इच्छा रखने वालों दलित और आदिवासी छात्रों के लिए इंटरव्यू में शामिल होने के लिए ‘कट ऑफ़’ (न्यूनतम अंक) ज़ीरो है। यानी अगर किसी को लिखित परीक्षा में ज़ीरो नंबर भी मिले हों तो दलित और आदिवासी होने पर वह इंटरव्यू में शामिल हो सकता है।

ज़ाहिर है, एक्सप्रेस की इस ख़बर ने आरक्षण विरोधियों को एक मौक़ा दे दिया। हज़ारों की तादाद में ख़बर शेयर होने लगी और ट्विटर पर तरह-तरह के सवाल उठने लगे।

अजीब बात है कि एक्स्प्रेस ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आख़िर गणित विभाग ने ही ऐसी सूचना क्यों निकाली? बाक़ी विभागों की इस मुद्दे पर क्या राय है? और क्या वाक़ई छात्र पढ़ने में इतने कमज़ोर हैं कि उन्हें लिखित परीक्षा में ज़ीरो मिले हैं। आख़िर लिखित परीक्षा में दलित और पिछड़े छात्रों का क्या स्कोर रहा ? जब विश्वविद्यालय ने इंटरव्यू करने वालों की लिस्ट निकाल दी तो फिर उनकी शैक्षिक योग्यता की जानकारी लेना कौन सा मुश्किल था। अगर किसी को ज़ीरो मिले ही नहीं तो ज़ीरो कटआफ़ का मुद्दा उछालने का क्या मतलब है ?

हद तो ये हुई कि दूसरे समाचार समूहों ने भी इस ख़बर को जाँचने की ज़रूरत नहीं महसूस की। इंडिया टुडे तक ने अपने रिपोर्टर को दिल्ली विश्वविद्यालय भेजने की जहमत नहीं उठाई। ‘एक्सप्रेस के मुताबिक’ लिखकर वही बात लिख दी और ट्विटर रुदन करने वाले  शर्मा जी लोग आर्यभट के ‘आविष्कार’ ज़ीरो तक पहुँच गए (‘मेरिट’ वाले शर्माजी को यह भी नहीं पता कि ज़ीरो का व्यवहार उससे भी पहले होता था। आर्यभट ने पृथ्वी की स्थिरता के सिद्धांत को चुनौती दी थी।)

शर्मा जी का आर्यभट को आर्यभट्ट लिखना भी कोई आलोचना की बात नहीं। वे मेरिटधारी हैं।

इस मुद्दे के तमाम सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर इंडिया टुडे के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने जो लिखा है, वह समकालीन पत्रकारिता के ब्राह्मणवादी स्वरूप को बेपर्दा करता है। पढ़िए–

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10 hrs ·

“यूनिवर्सिटी और मीडिया के कमीनेपन और हरामखोरी का मेरे पास कोई जवाब नहीं है।
आपके पास हो तो बताएँ।

अब तक आपमें से हर किसी ने मीडिया में पढ़ लिया होगा देश की सबसे बड़ी दिल्ली यूनिवर्सिटी दिल्ली यूनिवर्सिटी में मैथ्स में PhD के इंटरव्यू के लिए SC और ST का कट ऑफ Zero है।

कैसा फ़ील हो रहा है?
अपमानित महसूस कर रहे होंगे?
कुछ को यह भी लगा होगा कि रिज़र्वेशन की व्यवस्था में कुछ तो गड़बड़ी है।

राइट?

जी नहीं। रॉन्ग। सरासर ग़लत। आपका अपराधबोध ग़लत है।

आइए हम बताते हैं कि ज़ीरो कट ऑफ का सच क्या है।

फ़िलहाल एससी का मामला देखिए।

दिल्ली यूनिवर्सिटी ने पीएचडी एडमिशन के इंटरव्यू के लिए रिटेन और दूसरे आधार पर, कुल 223 कैंडिडेट की लिस्ट निकाली है। इनमें से 20 कैंडिडेट एससी हैं।

इनके नाम हैं – अभिषेक, अमलेंदु, अंजली, अंशुल, अनुज, अनुराधा, अवनीश, गीतांजलि, जगतार, सागर, कामिनी, कपिल, मीनाक्षी, मुकेश, प्रीति, प्रीति छाछिया, राजीव, सुनीता, स्वप्निल, विनीता।

तो क्या इनमें से किसी को रिटेन में ज़ीरो नंबर आया है?

नहीं, इनमें किसी को 41 से कम नंबर नहीं आया है।

वैसे इसी साइट पर रिटेन एंट्रेंस का रिज़ल्ट देखें तो एससी में 20वें नंबर के कैंडिडेट स्वप्निल को 46 नंबर आए हैं। जीरो का तो मतलब ही नहीं है।

फिर ये ज़ीरो का चक्कर क्या है?

कोई नहीं बता रहा है। मैथ्स के अलावा किसी सब्जेक्ट की लिस्ट के साथ कट ऑफ का ज़िक्र नहीं है। बाक़ी सब्जेक्ट में कटेगरी का भी ज़िक्र नहीं है।

मेरिट लिस्ट और इंटरव्यू लिस्ट अलग क्यों है? एक कैंडिडेट का नाम दो बार क्यों है। इंटरव्यू लेने वालों को पहले से कटेगरी क्यों पता होनी चाहिए?

ऐसा क्यों है? मीडिया ने ये सवाल क्यों नहीं पूछे?

मैं क्या बताऊँ?

यूनिवर्सिटी और मीडिया की कॉलर पकड़िए।

वरना ये कमीने आपके आत्मविश्वास को तोड़ देंगे। झूठ बोलना इनके लिए मामूली बात है। ”

सामाजिक न्याय के प्रश्नों पर बेहद मुखर दिलीप मंडल की भाषिक तिक्तता पर किसी को आपत्ति हो सकती है, लेकिन क्या यह उस कुटिलता से ज़्यादा आपत्तिजनक है जो आरक्षण का सवाल आते ही सवर्ण मीडिया में उफनाने लगती है। क्या इसका कोई रिश्ता सुब्रहम्ण्यम स्वामी जैसे हिंदू राष्ट्र के उन वीरों से भी है जो कहते हैं कि आरक्षण को ख़त्म तो नहीं करेंगे लेकिन उसे बेमानी बना देंगे ?

‘मेरिट’ वालों में आख़िर इतनी समझ कब आएगी कि आरक्षण भीख नहीं, संवैधानिक संकल्प है। यह हज़ारों साल से वंचित समुदायों को भागीदारी देने का एक तरीक़ा है, ना कि ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम। आरक्षण के तमाम प्रावधानों के बावजूद सत्तर सालों में दलितों और आदिवासियों का कोटा षड़यंत्रों की वजह से भरा नहीं जा सका ?

एक सवाल इंडियन एक्सप्रेस भी पूछा जा सकता है कि अगर सत्तर साल बाद भी किसी समाज को वाक़ई ज़ीरो कटआफ़ पर एडमीशन देने की बात की जाए तो ज़िम्मेदारी किसकी बनती है ? क्या यह वंचित समुदायों की ग़लती है ? क्या सरकार और समाज से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए ? आख़िर उसे किसने रोका था कि इस ख़बर के तमाम पहलुओं की पड़ताल करता ? वह क्यों भूला कि वह ‘सवर्ण एक्सप्रेस’ नहीं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ है और ‘इंडियन’ होने का कुछ मतलब भी होता है !

बर्बरीक

 

 

 

 

 

 

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