प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को 50 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने की बुनियाद रख चुके हैं, लेकिन कॉफी कैफे डे के मालिक सिद्धार्थ की आत्महत्या और लाखों लोगों की छूटती नौकरियां अर्थव्यवस्था के पटरी पर से उतरने की कहानी बयां कर रहा है। सवाल है कि क्या यह ट्रेंड अर्थव्यवस्था में साइकलिक डाउनटर्न है, या उससे आगे कहीं किसी गहरे संकट की ओर जाने का इशारा कर रहा है।
बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ रहा है। मतलब साफ है नया निवेश नहीं आ रहा है। न सिर्फ कंपनियां कर्ज चुकाने में चूक रही हैं, बल्कि होम लोन, कार लोन ऑर पर्सनल लोन जैसे स्मॉल टिकट साइज लोन की ईएमआई डिफॉल्ट होने की रफ्तार बढ़ने लगी है। इससे बैंकों पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है। घरों की बिक्री कमजोर है यानी रियल एस्टेट सेक्टर की कमजोरी का नुकसान सीमेंट और स्टील के साथ साथ असंगठित रोजगार को भी हो रहा है। पहली बार भारत में मोटरसाइकिल उधोग संकट में है। बाइक की बिक्री लगातार घट रही है। मारुति सुजुकी ने अपना उत्पादन 50 फीसदी तक घटा दिया है। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में करीब 3.7 करोड़ लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसका जीडीपी में 7 फीसदी योगदान है, लेकिन इस समय 5 लाख पैसेंजर कार और करीब 30 लाख दोपहिया वाहन बिक्री के इंतजार में है। उपरोक्त हालात से तय है कि न सिर्फ रोजगार मार्केट पर संकट रहेगा, और करोड़ों नौकरियां संकट में रहेंगी बल्कि डायरेक्ट और इनडाइरेक्ट टैक्स कॉलेक्शन में भारी कमी आ सकती है। अभी भले सरकार आंकड़ों की बाजीगरी से फील गुड कराते रहे, लेकिन मार्च 2020 आते आते देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मंदी की गिरफ्त में आ सकती है।
गिरावट को इस तरह से भी समझें, देश के करीब 75 प्रमुख कारोबारी रूट पर माल की आवाजाही में 25-30 फीसदी तक कमी आ चुकी है और यह तब है जब माल भाड़ा में अलग-अलग जगहों पर 15 फीसदी तक कमी आई है। जाहिर है मांग और उत्पादन का संतुलन बिगड़ रहा है और इसकी वजह से माल की आवाजाही घट रही है। सरकार वित्तीय घाटा कम करने और वेतन मद के दवाब को कम करने के साथ साथ सरकारी निवेश में कमी लाने के लिए सरकार रेल से लेकर कई कंपनियों से नौकरियों को कम कर रही है और कुछ दर्जन कंपनियों को बेचने का भी मन बना चुकी है।
इससे भले ही सरकार कुछ समय के लिए वित्तीय घाटा कम कर दिखा सकेगी, लेकिन लंबी अवधि में सरकार की आमदनी पर भी असर दिखेगा। सरकार के वित्तीय दवाब को इस तरह से भी समझना चाहिए कि वह एलआईसी जैसी सबसे भरोसेमंद निगम को भी शेयर मार्केट में उतारना चाह रही है, ताकि हिस्सेदारी बेचकर कुछ हजार करोड़ का इंतज़ाम कर सके। वैसे निवेषकों के मोदी 2.0 सरकार में अब तक 12 लाख करोड़ रुपए स्वाहा हो चुके हैं। बहरहाल, अभी मंदी के प्रमुख चिन्ह बहुत नहीं दिख रहे हों, लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट है कि मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को संभाल पाने की पुख्ता कोषिष की जगह ख्वाब दिखाने की अपनी आदतन कोशिश में ही लगी है।