कश्मीर पर अर्णव VS राजदीप बनाम सच की पत्रकारिता और पत्रकारिता का सच !

(कश्मीर कवरेज पर जारी बहस में नयूज़ चैनलों की दुनिया के दो सबसे चर्चित चेहरों की अलग राय ने पत्रकारिता को लेकर एक पुरानी बहस को नये सिरे से सामने ला दिया है। यह बहस है, अपनी आँख से दिख रहे सच को बताने या सरकार की आँख से दिखाये गये या कूटनीतिक ज़रूरतों के लिहाज़ से बताये जा रहे ‘सच’ को बताने की। एम्बेडेड जर्नलिज़्म या नत्थी पत्रकारिता का ही नतीजा है कि मेसोपोटामिया जैसी सभ्यता को जन्म देने वाली इराक की धरती आज बारूदी गंध में डूबी है। अमेरिका जैसे युद्धपिपासु साम्राज्यवादी देशों ने अपनी हवस को पूरा करने के लिए कुछ झूठ प्रचारित किये जिसका मीडिया ने “राष्ट्रहित” या “आतंकवाद के ख़िलाफ़” युद्ध के नाम पर परीक्षण नहीं किया। इराक ही नहीं, कई देश बरबाद होते गये और आज आईएस जैसा जिन्न सामने है। उसे भी शक्ति संपन्न बनाने में साम्राज्यवादी देशों का कितना हाथ है, यह छिपा नहीं है।  इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री इराक युद्ध के लिए अब माफ़ी माँग रहे हैं, लेकिन इससे समय का चक्र उलट नहीं जाता। हाँ, लाखों स्त्रियों, बच्चों और बुज़ुर्गों की जान लेने वाले ये देश आतंकवादी नहीं कहे जाएँगे क्योंकि  मीडिया की ‘परिभाषा’ में आतंकवाद सिर्फ़ कथित ‘जिहाद’ के नाम पर की जाने वाली हिंसा है !……नीचे वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्त ने राजदीप सरदेसाई और अर्णव गोस्वामी के नज़रिये में फ़र्क के बहाने पत्रकारिता के दायित्व को रेखाँकित किया है–संपादक )  

 

कश्मीर के हालात को देखने परखने में मुख्य धारा के हिंदुस्तानी मीडिया और कश्मीर के स्थानीय मीडिया के नजरिये में जमीन आसमान का अंतर है.

देश के दो बड़े टीवी संपादकों की बहस भी यही साबित करती है. इंडिया टुडे ग्रुप के सलाहकार संपादक राजदीप सरदेसाई ने अपने ब्लॉग पर एक लेख केदौरान बर्र के छत्ते में हाथ दे दिया. उन्होंने लिखा,– “देश के पत्रकारों और मीडिया संस्थानों का देशप्रेम कश्मीर प्रकरण की कवरेज के जरिये कसौटी पर कसा जा रहा है”

राजदीप का कहना है कि पत्रकार का धर्म है कि घटना को जहां है, जैसी है वैसी ही रिपोर्ट करना. न कि लोगों और सुरक्षा बलों को देशप्रेम और देशद्रोह के पाठ पढ़ाना. अपने लेख में उन्होंने ब्रिटेन की पूर्वप्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर द्वारा बीबीसी की 1983 के फॉकलैंड युद्ध की कवरेज के लिए की गयी तीखी टिप्पणी का भी ज़िक्र किया. तत्कालीन बीबीसी डायरेक्टर जॉन बिर्ट का जवाब था – ‘उनकी संस्था राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं है. हमारा उत्तरदायित्व सिर्फ सच के प्रति है न कि देश के प्रति.”

बस फिर क्या था. उसी दिन टाइम्स नाऊ के मुख्य संपादक अरनब गोस्वामी ने लाइव कार्यक्रम में बिना नाम लिए सरदेसाई पर हमला बोला. कहा —

‘मुझे दया आती है उन छद्म-उदारवादियों पर जो पत्रकारिता में हैं लेकिन चाहते हैं कि हमारे सुरक्षा बल ज्यादा जिम्मेदार बनें. उन्हें समझ नहीं आ रहा बुरहान की मौत के बाद भड़की हिंसा की रिपोर्टिंग कैसे करें?मुझे कोई दुविधा नहीं है. जब बात आतंकी और सुरक्षा बलों में चुनने की हो, देशप्रेमी और देशद्रोही में चुनना है, राष्ट्र की संप्रभुता और उससे समझौता या राष्ट्रीय ध्वज के पक्ष या विपक्ष की हो तो मेरे लिए कोई बीच का रास्ता नहीं है. मैं हमेशा देश के पक्ष में हूं.”

लेकिन इसी सवाल के जवाब में कोई कश्मीरी पत्रकार उलटा यह सवाल पूछ सकता है- किसका मुल्क – मेरा या आपका. किसका झंडा मेरा या आपका… ?

मीडिया के इसी रुख से नाराज हो सिविल सेवा की परीक्षा में टॉप कर चर्चा में आए आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने इस्तीफा देने की धमकी दी है. वे आजकल कश्मीर सरकार में शिक्षा निदेशक के पद पर तैनात हैं.

अफ़्रीकी देशों के दौरे से लौटकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकीबुरहान वानी की मृत्यु के बाद कश्मीर में भड़की हिंसा पर चिंता जतायी. सरकार की ओर से यह पहली प्रतिक्रिया बुरहान की मृत्यु के चार दिन बाद आयी. उन्होंने इन घटनाओं की मीडिया कवरेज पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि बिना वजह मीडिया ने बुरहान हीरो बनाया हुआ है.

आख़िर सरकार का निष्कर्ष यह निकला कि 1989 के बाद से घाटी में भड़की सबसे जबरदस्त हिंसा की वजह मीडिया कवरेज था. लेकिन कौन सी कवरेज?हमारे यहां सारे अखबार बुरहान को नहीं बल्कि सुरक्षा बलों को शाबाशी दे रहे थे. घाटी की हिंसा महज आंकड़ों में थी. सुरक्षा बलों की फ़ायरिंग में 12दंगाई मारे गए. या मरने वाले दंगाइयों की संख्या 32 हो गयी है. या फिर सुरक्षा बल बहुत संयमित तरीके से कार्रवाई कर रहे हैं. यह कवरेज किसे हीरो बनाती है, बुरहान को या दंगाइयों को या फिर सुरक्षा बलों को?

अगर यह नहीं बना रही तो कौन सी कवरेज बुरहान को हीरो बना रही है? यह वह कवरेज है जो कश्मीर के अख़बारों, रिसालों,टीवी चैनल और सोशल मीडिया के जरिए हो रही है. इसीलिए यह हम तक नहीं पहुंच पाती.

लेकिन बुरहान की मृत्यु के तुरंत बाद कश्मीर में कर्फ़्यू लगा दिया गया. इंटरनेट बंद कर दिया गया. रिसालों और अखबारों पर कड़ी नज़र रखी गयी. तो फिर इतनी बडी भीड़ पूरी घाटी में क्यों और कैसे उमड़ पड़ी? आजादी के नारे फिर फ़िज़ाओं में गूंजने लगे. करीब चार साल की शांति के बाद घाटी फिर जल उठी.

दरअसल, यह घाटी और बाकी देश के बीच सोच की खाईं है जो दोनों जगहों के मीडिया तक में घर कर गयी है. हमारे लिए मरने वाले दंगाई हैं. घाटी के लोगों के लिए वे शहीद हैं. हमारे अख़बारों के लिए 32 दंगाई सिर्फ संख्या है. उनमें से एक आदमी का भी नाम हमारे अखबारों में नहीं दिया गया. घाटी के अख़बारों में उन 32लोगों के चेहरे हैं. उनके नाम हैं. उनके परिवार वालों के नाम हैं. उनका बैकग्राउंड है. वे कितने साल के थे, क्या करते थे, कैसे मारे गये, इन सब बातों के ब्यौरे हैं.

यही वजह है कि लाख रोक-टोक और निगरानी के बाद भी घाटी में ख़बरें फैल ही रही हैं. जब सूचना पर रोक लगती है तो अफ़वाहें खबर बन जाती हैं.एक व्यक्ति की मृत्यु घाटी के दूसरे छोर तक पहुंचते-पहुंचते दस की मौत बन जाती है. साथ ही जुड़ जाती हैं सुरक्षा बलों की ज़्यादती की दास्तानें.

कश्मीर हिंसा के वीडियो से साफ़ है कि सुरक्षा बल कितनी एहतियात बरत रहे हैं. मुंह पर मफलर लपेटे युवा गलियों से निकल कर उन पर पत्थर बरसा रहे हैं, लाठियां चला रहे हैं और कहीं कहीं पेट्रोल बम भी फेंक रहे हैं. फिर भी सुरक्षा बल अधिकतर बख्तरबंद गाडियों में बंद हो खुद की सुरक्षा कर रहे हैं. सहज ही समझा जा सकता है कि हवा में फ़ायरिंग करते,पीछे हटते सुरक्षाकर्मी तभी किसी पर गोली चलाते होंगे जब खुद उनकी जान पर बन आती होगी.

ऐसे में पूरा राजनीतिक घटनाक्रम जिसे देश के मीडिया का समर्थन है, यह सिद्ध करने में लगा है कि घाटी में हिंसा पर उतारू युवा आतंकियों के समर्थक देशद्रोही हैं. लेकिन इस पर कोई बात नहीं कर रहा कि इनके अंदर यह ‘देशद्रोह’ की भावना आयी कैसे? हमारी सरकार इस दौरान क्या कर रही थी? क्या कश्मीर साल दर साल यूं ही जलता रहेगा या इसका कोई राजनीतिक समाधान हो सकता है? या कश्मीर से भारत का संबंध केवल हिंसा रोकने,दबाने, काबू करने भर का है और शांतिकाल में पर्यटन का? सवाल उठाने का मतलब है आपको भी कश्मीर के देशद्रोहियों का समर्थक मान लिया जायेगा.

यह समस्या तब तक बनी रहेगी जब तक कश्मीरी हमारे राष्ट्रीय ध्वज को अपना न समझने लगें और यह काम बलपूर्वक नहीं हो सकता. पिछले सत्तर सालों में तो नहीं हुआ है. यह केवल बातचीत से ही संभव है

शरद गुप्त

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