बृजेश यादव
जेएनयू वालों को ‘पागल कुत्ते’ कहते समय इन नौजवानों को पता नहीं है कि वे दरअसल अपनी ही शिनाख़्त बता रहे हैं। (वीडियो में दोनों सामने लिखा हुआ बयान दोहरा रहे हैं)
आप देखें ये मोदी के ‘न्यू इण्डिया’ के ‘पागल कुत्ते’ हैं।
इनका ‘गुनाह’ तय करते समय ध्यान रहे कि इनकी यह गति-मति केवल खबरिया अफ़वाह मात्र की वजह से नहीं बनी है।
भक्ति-भजन-भगवान से पोषित भेदभाव की गहरी खाई वाले भारतीय समाज में आजादी और आधुनिकता जिस रूप में आई और खासतौर पर निजीकरण की कार्यवाही जिन हिंसक औज़ारों से – नफ़रत की शान पर – चलाई जा रही है – यह पूरा पसमंजर देखिए तो आप पाएंगे कि इस ‘पागल कुत्ते’ की यह शक्ल बनाने में एक सिस्टम काम कर रहा है, एक राजनीतिक विचारधारा काम कर रही है।
विकास+बेरोजगारी+देशभक्ति की ‘उपलब्धि’ हैं ये नौजवान। ठेकेदारी जितना बढ़ेगी, इन ‘पागल कुत्तों’ की तादाद अभी और बढ़ेगी।
यह फासिस्ट हैं। इसे गौर से पहचान लीजिए। देशद्रोहियों को वह जड़ से मिटा देना चाहता है – बिना यह जाने कि देशभक्ति क्या चीज़ होती है। वह पूँजीवादी विकास का शिकार है – शिकारी नहीं है वह – गुनहगार काँग्रेस भाजपा है, निजीकरण के ठेकेदार हैं।
वह क्या चाहता है और क्या कर रहा है – यह उसे नहीं पता। उसे नहीं पता कि जो काम वह किये डाल रहा है, वह उसकी अपनी ही चाह के खिलाफ है ; इसे यूँ कहिए कि उमर की हत्या करके वह एक सच्चे देशभक्त को मार डालता – तो वह उसी देश को चोट पहुंचा देता जिस देश का वह भला चाहता है, जिसके लिए वह जान देने को तैयार है। उसका संकट दिलचस्प है। जेएनयू के लोग, जो दिन रात हमारे समाज को जोड़ने और हमारी धरती की ज्ञान सम्पदा को उर्वर करने में प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं – उन एक से एक होनहार बच्चों को ‘देशद्रोही’ बताए जाने के सरकार समर्थित प्रचार का हू-ब-हू अनुगमन करने का अर्थ है कि अभ्यर्थी के यहाँ अकल का कोई भी फेस काम नहीं कर रहा है, कि उसे कुछ भी दिखाई सुनाई नहीं दे रहा है, कि उसकी क्रिटिकल फ़ैकल्टी फ़िलहाल उसकी कोई मदद नहीं कर पा रही है। वह फँस गया है।
उसे पागल कहना पागलों की तौहीन करना है। उसकी कठिनाई बड़ी है। उसे अपनों के ही खिलाफ़ खड़ा कर दिया गया है। वह तो एक कोई नौकरी चाकरी करके चैन से जीना चाहता था लेकिन बेरोजगारी और देशभक्ति के कोंग्रेसी भाजपाई सौदागरों ने उसे ‘पागल कुत्ता’ बना डाला। अब हाल ये है कि वह जान ले लेगा या जान दे देगा। उसे जरूरत ही नहीं है यह जानने की कि उसने जो कुछ सुना, उसे समझना भी चाहिए या कि उसमें समझने की भी कोई चीज़ है। वह सत्य का शत्रु है। वह न्याय का मुखालिफ़ ‘सेट’ हो गया है। वह पागल नहीं है लेकिन जिस मुश्किल में पड़ गया है वह पागलों से भी बदतर है – किसी दो-धारे छुरे से भी अधिक घातक हाल है इन नौजवानों का।
यह ‘पागल कुत्ता’ कई रूपों में पाया जा रहा है – गौरक्षक, लव जिहादी, कांवड़िया, बलात्कारी, स्वयंसेवक, नेता, पत्रकार, बकील, बनिया, दलित, ओबीसी, सैनिक, रामसैनिक वगैरह। कामन बात यह है कि ये सभी ‘देशभक्त’ हैं।
यह पेटी-बुर्ज्वा तत्व है जो इन दिनों कई राजनीतिक धाराओं व प्रवृत्तियों में भी पाया जा रहा है। वह संकटग्रस्त पूंजीवाद का तारणहार है।
नुक़ता देशभक्ति पर है।
चैनलों में बैठने वाले ‘देशभक्तों’ का आतंकी रवैया आपका खूब जाना हुआ है। खबरिया अफ़वाह की बात करते समय देखने की चीज़ यह होती है कि अफ़वाह किन राजनीतिक उद्देश्यों से संचालित है। वे लोग सही बात बताने लगेंगे तो उनके आका की दुकान चौपट हो जाएगी। वे दुकान चला रहे हैं, बिज़नेस बढ़ा रहे हैं, उनसे ख़बर की अपेक्षा न करें।
वीडियो में बड़ी कृतज्ञता से याद किया गया है – कवितायें सुनाकर देशभक्ति का ज्ञान देने वाले कवि हरिओम पवार को। कुमार विश्वाश भी देशभक्त कवियों के इसी गिरोह के स्टार हैं। ये लोग भी क्या देख रहे होंगे कि इनकी रचनाओं में क्या जबर्दस्त असर है कि कैसे कैसे सनकी बौड़म उसे हृदय से लगये फिर रहे हैं। फासीवाद का यह ‘पागल कुत्ता’ तैयार करने में इन कवियों की आपराधिक भूमिका पर फिर कभी।
शांति, एकता, अखंडता, देशभक्ति और भारतमाता की धुन पर विकास की बकवास ने जो कमाल किया है, उसे सगुण साकार रूप में साक्षात देख लीजिए। फासिज़्म कहने से बात समझ में नहीं आती।
कर्तार सिंह सराभा के यहाँ ले जाकर इन पगलेटों को जो लोग मत्था टिकवा रहे हैं, उनका खूनी शैतानी चेहरा कैमरे के पीछे से भी दिखलाई पड़ रहा है।
लेखक कवि और जेएनयू में शोधार्थी हैं।