जयंती: 19 सितम्बर
कृष्ण प्रताप सिंह
इसमें अयोध्या में प्रभु राम के साम्राज्य के एक विवादित स्थल में सिमट जाने पर चिंता जताते हुए वे उनसे ‘सविनय निवेदन’ करते हैं कि जंगल-जंगल भटकने के बजाय ‘सकुशल सपत्नीक…/किसी पुरान-किसी धर्मग्रंथ में’ लौट जायें’ क्योंकि ‘अबके जंगल वो जंगल नहीं/ जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि’।
पूरी कविता इस प्रकार है:
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है!
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान-किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!
कुंवरनारायण की चिर-परिचित मिथकीय चेतना की प्रतिनिधि और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रची गई इस कविता को उनकी जन्मभूमि के सन्दर्भ में देखें तो अयोध्या का जुड़वां शहर फैजाबाद भी अब वह फैजाबाद नहीं ही रह गया है, 19 सितम्बर, 1927 को जिसके मोतीबाग मुहल्ले में पिता विष्णुनारायण अग्रवाल के दूसरे बेटे के तौर पर उनका जन्म हुआ। उन दिनों के फैजाबाद की सामाजिक चेतना को समझना हो तो जानना चाहिए कि कुंवरनारायण के जन्म के महज तीन महीने बाद 19 दिसम्बर को देश की गोरी सरकार ने ऐतिहासिक काकोरी कांड के क्रांतिकारी नायक अशफाकउल्लाह खां को ‘जिन्दान-ए-फैजाबाद’ से ही ‘सू-ए-अदम’ भेजा था! इसके दो साल बाद 1929 में महात्मा गांधी ने अपने हरिजन फंड के लिए धन जुटाने के सिलसिले में फैजाबाद के मोतीबाग में ही सभा की थी।
इस सभा की बाबत एक किस्सा प्रचलित है। यह कि बापू को उक्त फंड के लिए चांदी की एक अंगूठी प्राप्त हुई तो वे सभा में ही उसकी नीलामी कराने लगे। ज्यादा ऊंची बोली लगे, इसके लिए उन्होंने घोषणा कर दी कि जो भी वह अंगूठी लेगा, उसे अपने हाथों पहना देंगे। एक सज्जन ने पचास रुपये की बोली लगाई और नीलामी उन्हीं के नाम पर खत्म हो गई। तब वायदे के मुताबिक बापू ने वह अंगूठी उन्हें पहना दी। सज्जन के पास सौ रुपये का नोट था। उन्होंने उसे बापू को दिया और बाकी के पचास रुपये वापस पाने के लिए वहीं खड़े रहे। मगर बापू ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया कि हम तो बनिया हैं, हाथ आये हुए धन को वापस नहीं करते। वह दान का हो तब तो और भी नहीं। इस पर उपस्थित लोग हंस पड़े और सज्जन उन्हें प्रणाम करके खुशी-खुशी लौट गये।
उन दिनों कुंवरनारायण का अपना घर भी कांग्रेस के समाजवादियों की गतिविधियों ओर जमावड़ों का केन्द्र हुआ करता था। आचार्य जे. बी. कृपलानी, उनकी जीवनसंगिनी सुचेता कृपलानी, आचार्य नरेन्द्रदेव और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे नेता वहां आते, ठहरते और विचार-विमर्श किया करते थे। कुंवरनारायण के पिता थे तो महाजन और जरूरतमंदों को सूद-ब्याज पर रुपये दिया करते थे, लेकिन देश और समाज के सरोकारों से ऐसे जुड़े थे कि अपने घर का नाम ही ‘सुचेता सदन’ रख दिया था। प्रसंगवश, बाद में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी बनीं। पिता के ही कारण कुंवरनारायण को किशोरावस्था से ही इन समाजवादी नेताओं का सान्निध्य मिलने लगा था, जिसका प्रभाव उनकी साहित्य सर्जना पर भी दिखाई देता है। उन्होंने कई जगहों पर इस प्रभाव को ईमानदारीपूर्वक स्वीकार करने से भी परहेज नहीं किया है।
लेकिन कई तरह की दूषित चेतनाओं से पीड़ित आज के फैजाबाद ने ‘अपने’ कुंवरनारायण के निधन के बाद आई उनकी पहली जयंती पर उनके प्रति हैरतनाक अपरिचय व बेगानापन ओढ़ रखा है। इसकी हद यह है कि वह उनसे जान-पहचान कुबूल करना या उनकी स्मृति में दो पल उदास होना भी गवारा नहीं कर रहा। जिस घर में उनका जन्म हुआ था, उनके जन्म के बाद से उसकी कम से कम दो बार खरीद बिक्री हो चुकी है। सो, वहां तो उनकी स्मृतियों से जुड़ा कुछ होने या दिखने का सवाल ही नहीं है,लेकिन इस अंचल या शहर के खुद को कवि या साहित्यकार कहने वाले महाशयों में भी उनके इस शहर का होने को लेकर कोई गौरवबोध नहीं दिखता। उनकी स्मृतियों की बात करें तो उनकी रक्षा की चिंता तो खैर उन्हें भी नहीं सताती जो उनके रहते बेहद गर्व और दर्पपूर्वक उन्हें अपना अभिभावक बताया करते थे।
अवध में पुरानी कहावत है-घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध। लेकिन आज का फैजाबाद कुँवरनारायण को घर के जोगी जितनी भी तरजीह नहीं देता। इस विडम्बना को क्या कहा जाये कि अपने जीवन के इक्यावन साल हिन्दी साहित्य को देने, व्यापक मान्यता पाने और अनेक पुरस्कारों से विभूषित होने के बावजूद वे अपनी जन्मभूमि में अपनी किंचित भी जमीन नहीं तलाश पाये। यह विडम्बना इस अर्थ में कहीं ज्यादा दंशित करती है कि बगल का बस्ती जिला ‘कुआनो के कवि’ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को अपनी माटी की उपज के रूप में निरंतर याद रखता है और वहां उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर लेखक संगठनों व साहित्यिक संस्थाओं की ओर से आयोजनों की झड़ी-सी लग जाती है।
सर्वेश्वर के विपरीत कुंवरनारायण इतने अभागे हैं कि जीते जी तो अपनी जन्मस्थली से संवाद नहीं ही रख पाये, जीवन के उस पार चले जाने के बाद भी उसमें उनके प्रति कृतज्ञता का कोई भाव नहीं है। कवि के रूप में तो एकदम से नहीं। न वे ‘कुआनो के कवि’ की तरह ‘सरयू के कवि’ हो पाये, न ही अयोध्या या फैजाबाद के। तिस पर अपनी जन्मस्थली से उनके तार कुछ यों टूटे हुए हैं कि दो दिन पहले इन पंक्तियों का लेखक उनके मुहल्ले मोतीबाग में जाकर उन्हें अपने बड़े ताऊ का छोटा बेटा बताने वाले बयासी वर्षीय नरेशचन्द्र गर्ग से मिला तो उन्हें कुंवरनारायण के निधन तक की सूचना नहीं थी। बात शुरू हुई तो उन्होंने कहा कि ‘अब तो वे नब्बे से ऊपर के हो गये होंगे। मुझसे सात आठ साल बड़े थे।’ लेखक ने उन्हें बताया कि वे तो अब इस दुनिया में रहे ही नहीं, तो भावुक होकर कहने लगे-‘कुछ साल पहले तक कभी-कभी मुझसे मिलने-जुलने आया करते थे।’ लेकिन बस, इतना ही। करते क्या थे वे, सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘ताऊ जी का व्यापार तो उनके बड़े बेटे कृष्णनारायण ही संभालते थे। बाद में उनके न रहने पर कृष्णनारायण ने ही सारे परिवार को एकजुट रखा और संभाला। कुंवरनारायण तो बाहर निकले तो बाहर के ही होकर रह गये।’
गर्ग के बताये इस कड़वे सच का दूसरा पहलू यह है कि उन दिनों पूरी तरह लाइलाज माने जाने वाले क्षयरोग से असमय ही पहले मां, फिर चाचा और फिर बहन को खोकर कुंवरनारायण ने फैजाबाद छोड़ा तो अरसे तक लौटने का कोई कारण ही नहीं तलाश सके। अलबत्ता, कुछ वर्ष पूर्व तक अयोध्या के विमला देवी फाउंडेशन के, जिसके वे संस्थापक सदस्य थे, वार्षिक समारोह में शिरकत करने आया करते थे।
फैजाबाद से उनके तार इसलिए भी टूटे रहे कि उनके परिवार ने यहां स्थित ज्यादातर परिसम्पत्तियां बेच डालीं और लखनऊ में नया व्यवसाय आरंभ कर लिया। कुंवरनारायण ने वहीं विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में इंटरमीडियेट की परीक्षा पास करने के बाद साहित्य में अपनी गहन अभिरुचि के कारण आगे का रास्ता बदल लिया और 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय से 1951 अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। उनकी काव्ययात्रा ‘चक्रव्यूह’ से शुरू हुई, जिसमें उन्होंने अपने पाठकों में लगातार एक नई तरह की समझ पैदा की। कहते हैं कि उनके रचनात्मक जीवन की शुरुआत में लखनऊ शहर का विशेष योगदान रहा, लेकिन 15 नवम्बर, 2017 को 90 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दिल्ली के सी.आर पार्क स्थित घर में अंतिम सांस ली तो पत्नी भारती गोयनका और बेटा अपूर्व ही उनके साथ थे। भारती ने 1966 में उनसे विवाह रचाया और 1967 में अपूर्व को जन्म दिया था।
लेखक फ़ेज़ाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।