बजरंग दल, बजरंग बली और बजरंग पूनिया के कवरेज का फ़र्क़

 

हिन्दूवादी सरकार के जमाने में निष्पक्ष चुनाव और पत्रकारिता 

 

आज के अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया और द टेलीग्राफ ने ही खिलाड़ियों के मामले को लीड बनाया है। अखबार ने बजरंग पूनिया का दुख तो छापा ही है पुलिस का खंडन भी छाप दिया है और साथ में बताया है कि दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख स्वाति मालीवाल से लेकर 25 अन्य को धरना स्थल पर जाने से रोका गया। आज की खबरों से लगता है कि पहलवानों के मामले में अब भाजपा प्रवक्ताओं में मीनाक्षी लेखी ने मोर्चा संभाला है। अगर ऐसा है तो वास्तविकता यह भी है कि यौन शोषण के आरोपी भाजपा नेता का बचाव करने के लिए भाजपा की महिला नेता को लगा दिया गया है या वे कर रही हैं। क्या और कितना बचाव कर पाएंगी यह तो उनकी योग्यता और क्षमता पर निर्भर करेगा लेकिन “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा देने वाले हिन्दू वादी नेता और अब प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा नेता पर यौन शोषण का आरोप और प्रधानमंत्री उसपर कुछ न बोलें तथा आरोपी के पक्ष में (या शिकायत कर्ता के खिलाफ) बोलने के लिए महिला नेता को उतार दें यह हिन्दू वादी राजनीति का क्रूरतम और सबसे अमानवीय रूप है पर मीडिया और पत्रकार तो छोड़िये पार्टी के नेता भी मुंह नहीं खोल पा रहे हैं। मेरा मामला मीडिया तक ही सीमित है और आज पहलवानों के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया ने ही ढंग से लिखा है। 

यह भी बताया है कि इस मामले में पहली औपचारिक टिप्पणी केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी की है। उन्होंने कहा है कि इस विरोध की साख कम हो गई है क्योंकि रिश्वत लेने के आरोपी नेता पहलवानों के समर्थन में आए हैं। उन्होंने यह भी कहा बताते हैं कि केंद्र सरकार पहलवानों के मामले को बहुत संवेदनशीलता से देख रही है और हम देश के कानून के अनुसार हर वो काम कर रहे हैं जो किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में कर्नाटक चुनाव के मद्देनजर जब बजरंग दल और बजरंग बली एक कर दिए गए हैं चुनाव मैदान में उतार दिये गए हैं और हुड़दंगियों का यह गिरोह खुद को नियंत्रित नहीं रख पा रहा है तो केंद्र सरकार तीसरे बजरंग – बजरंग पूनिया के साथ क्या कर रही है देखने, जानने और समझने की चीज है। वह इसलिए भी कि बजरंग पूनिया महिला पहलवानों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सरकार का नारा रहा है। दूसरी ओर, बजरंग दल नाम होने से अगर प्रधानमंत्री का संरक्षण मिल सकता है तो बंजरंग पूनिया क्या कह रहे हैं? बजरंग पूनिया न सिर्फ देश का मान बढ़ाने वाले खिलाड़ी और विजेता हैं बल्कि मोदी सरकार ने ही उन्हें पद्मश्री से नवाजा है। आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर उनका सवाल छापा है। द हिन्दू में सिंगल कॉलम में है दूसरों ने नहीं छापा वह भी मुद्दा है। 

बजरंग पूनिया ने कहा कहा है (अनुवाद मेरा), “क्या पहलवालों के साथ यही सलूक होगा, हम अपने पदकों का क्या करेंगे? इससे तो अच्छा (होगा) कि हम सामान्य जीवन जीयें और अपने पदक सरकार को वापस कर दें। पुलिस जब हमें धक्का दे रही है, गालियां दे रही है, दुर्वव्यवहार कर रही है तो नहीं देख रही है कि हम पद्मश्री विजेता हैं (पीड़ित भी हैं और अपराधी तो नहीं ही हैं) …. महिलाएं और बेटियां सड़क पर बैठी हैं, दया की भीख मांग रही हैं पर किसी को परवाह नहीं है …. एफआईआर दर्ज होने के बाद हमें गालियां दी जा रही हैं …. मैं सरकार से आग्रह करता हूं कि आप राजनीति से ऊपर उठकर पहलवानों को न्याय दे सकें तो सारा देश आपका आभारी होगा। “    

नवोदय टाइम्स में आशुतोष त्रिपाठी ने इसे दूसरी तरह से लिखा है। उनका कहना है, …. पहलवान बजरंग को सचेत रहना होगा कि कहीं पहलवानों की लड़ाई सियासतदारों के फायदे का खेल न बन जाए। अखबार ने धरना स्थल पर पहुंचने वाले नेताओं के नाम के साथ लिखा है कि कुछ नेता तो कई बार धरनास्थल पहुंच चुके हैं। इससे साफ है कि धरने पर राजनीति का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इस टिप्पणी या जानकारी के साथ तथ्य यह भी है कि अखबार की लीड है, सुप्रीम कोर्ट में पहलवानों की याचिका पर कार्यवाही खत्म। इंट्रो है, महिला पहलवानों ने डब्ल्यूएफआई  के अध्यक्ष पर लगाए हैं शोषण के आरोप। खबर से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसपर कार्रवाई की जरूरत नहीं समझी और तभी इस खबर को लीड बनाने का मतलब है। तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एफआईआर हो चुकी है, सुरक्षा दी जा चुकी है तो आगे की कार्रवाई पुलिस को करनी है। बिना खबर पढ़े मैं यह समझ सकता हूं कि कार्रवाई नहीं होगी तो शिकायत के दरवाजे खुले ही हैं और सुप्रीम कोर्ट पुलिस का काम क्यों करे या क्यों मान ले कि पुलिस काम नहीं करेगी। 

फिर भी यह खबर अमर उजाला में भी लीड है। यह खबरों की समझ और पत्रकारीय विवेक का मामला है। अभी उसे छोड़ता हूं पर इस शीर्षक के साथ फोटो कैप्शन में लिखा गया है, पहलवानों ने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर कई गंभीर आरोप लगाये हैं। अमर उजाला ने उपशीर्षक लगाया है,  पहलवान बोले अदालत का आदेश मानेंगे, पर जारी रहेगा धरना। इसके साथ सिंगल कॉलम की खबर है, बेइज्जती जारी रही तो लौटा देंगे पदक : पूनिया। अमर उजाला ने पहलवानों का यह आरोप भी बताया है कि दिल्ली पुलिस कुश्ती महासंघ अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह के पक्ष में काम कर रही है। मुझे लगता है कि यहां शीर्षक से बातें स्पष्ट हैं और सुप्रीम कोर्ट ने महासंघ अध्यक्ष को बख्श दिया जैसा कोई संदेश जाता नहीं दिख रहा है। लेकिन नवोदय टाइम्स का पहलवानों को ज्ञान गौरतलब है, और ये दो बुलेट में हैं। पहला, पहलवानों के धरने को राजनीतिक रंग लेने से बचाना जरूरी और दूसरा, पहलवानों को शांतिपूर्ण चलानी चाहिए इंसाफ की मुहिम। खासबात यह है कि इसमें पुलिस या सरकार से यह सवाल नहीं कि वह कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है या एफआईआर के बाद क्या कार्रवाई होनी चाहिए थी या सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई खत्म की तो क्यों? खबर में सारी बात तो है ही लेकिन प्रस्तुति ऐसी होनी चाहिए कि सवाल उठे नहीं और उठे तो जवाब वहीं हो। 

आइए, इसके मुकाबले द टेलीग्राफ की प्रस्तुति देखते हैं। द टेलीग्राफ की खबर का शीर्षक प्रधानमंत्री के नारे, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के संदर्भ में है और बताता है कि बेटी बचाने वालों ने पहलवानों पर हमला बोला। बुधवार की रात धरना स्थल पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद रोती हुई संगीता फोगट की तस्वीर और संबंधित कैप्शन के साथ अखबार ने राहुल गांधी के ट्वीट को प्रमुखता दी है और उसका उल्लेख किया है। इस खबर में अखबार ने विनेश फोगट के हवाले से लिखा है (अनुवाद मेरा), “क्या हमने देश के लिए मेडल इसीलिए जीते थे? ब्रज भूषण शरण सिंह अपने घर में सो रहे हैं और हम अपने गीले गद्दे को बदल भी नहीं सकते? हम सड़क पर सो रहे हैं और पुलिस हमें परेशान कर रही है। अगर वे हमें मारना चाहते हैं तो हम मरने के लिए तैयार हैं।” संजय के झा की इस खबर में लिखा है, बृज भूषण शरण सिंह ने बार-बार कहा है कि वे इस्तीफा तभी देंगे जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृह मंत्री अमित शाह उनसे कहेंगे। दोनों में से किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी है और कांग्रेस यह आरोप लगाने के लिए प्रेरित हुई है कि वे एक “उत्पीड़क” की रक्षा कर रहे हैं। असहज करने वाले विषयों पर चुप्पी साधने की अपनी आदत के अनुसार मोदी ने बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश में उन्नाव रेप और हाथरस रेप व मर्डर जैसे महिला विरोधी जघन्य अपराधों पर एक शब्द भी नहीं बोला है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे पर चार प्रदर्शनकारी किसानों और एक पत्रकार को कुचलने का आरोप लगने पर भी वे चुप रहे। न ही उन्होंने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के दौरान 700 से अधिक किसानों की मौत पर कोई टिप्पणी की है। 

प्रधानमंत्री की वाकपटुता या योग्यता और कौशल सब चुनावी रैलियों (और संभवतः मन की बात) में दिखते हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात की तो प्रधानमंत्री कर्नाटक की चुनावी रैलियों में बजरंग बली की जय करने लगे। भक्त या गोदी वाले पत्रकारों ने प्रचार शुरू कर दिया कि कांग्रेस ने भाजपा को मुद्दा दे दिया (भाजपा ने लपक लिया सो नहीं) और मध्य प्रदेश में बजरंग दलियों ने कांग्रेस दफ्तर पर हमला कर दिया। इससे संबंधित आजतक की खबर का अंश है, बता दें कि कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव के घोषणा पत्र में बजरंग दल पर बैन लगाने का वादा किया था, जिसके बाद बीजेपी और हिंदूवादी संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इसपर कांग्रेस नेता कमलनाथ के ट्वीट का एक अंश है, “…. इससे भी ज्यादा दुख की बात यह है कि तोड़फोड़ करने वालों को रोकने में पुलिस ने कोई विशेष कार्यवाही नहीं की।”

इससे पहले कांग्रेस की प्रतिबंध की घोषणा से संबंधित प्रभात खबर की 2 मई की खबर का शीर्षक था, बजरंग दल पर प्रतिबंध का कांग्रेस ने किया चुनावी वादा, पीएम मोदी ने घेरा, कैसा है ये संगठन? खबर की शुरुआती लाइनें इस प्रकार थीं, “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के वादे को लेकर मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल पर निशाना साधते हुए कहा कि ये भगवान हनुमान की पूजा करने वालों को ताले में बंद करने की कोशिश करने का कांग्रेस का प्रयास है। उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस ने पहले भगवान राम को ताले में बंद किया और अब वह जय बजरंग बली का नारा लगाने वालों को ताले में बंद करना चाहती है।” स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री बजरंग दल को जयबजरंग बली का नारा लगाने वाला कह रहे हैं। बंद की घोषणा पर ‘नारा लगाने वालों’ की प्रतिक्रिया जबलपुर में देखी जा चुकी है और उसपर कांग्रेस नेता की प्रतिक्रिया भी आप पढ़ चुके हैं। 

अब आइए, बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा का कारण समझते हैं। इसपर आजतक की एक वीडियो रिपोर्ट के बारे में बताने के लिए लिखा गया है, “ये साल 1992 की बात है, अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ये बैन बजरंग दल पर लगा था। उसके एक साल बाद बैन भी हटा और उसी साल से बजरंग दल ने अपने संगठन को पूरे देश में मजबूत करना शुरु किया। अब आज फिर से बैन का वादा करने की नौबत क्यों आई है? देखें ये रिपोर्ट…।“ कहने की जरूरत नहीं है कि कर्नाटक चुनाव में बजरंग दल के बहाने बजरंग बली की एंट्री करवा दी गई। असल में भाजपा वोटों के ध्रवीकरण की कोशिश में लगी थी और हिजाब से लेकर अजान तक के मुद्दे उछाले। चुनावी घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का वादा भी किया। 

कर्नाटक में बजरंग दल लगातार विवादों में रहा है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने (2 मई को ) ट्वीट किया, “यह देश का दुर्भाग्य है कि कांग्रेस को प्रभु श्रीराम से तो तकलीफ रही ही है, अब उसे जय बजरंगबली बोलने वाले भी बर्दाश्त नहीं।” कहने की जरूरत नहीं है कि मामला ऐसा है नहीं और प्रधानमंत्री को इतने गंभीर मामले को हल्के में नहीं लेना चाहिए। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में भाजपा राज में चले हिजाब विवाद में प्रदर्शन और विरोध आदि भी हुए थे और इनमें बजरंग दल भी शामिल था। चुनाव से पहले (पिछले साल) इसके एक कार्यकर्ता  की कथित हत्या हो गई और इससे मामला तनावपूर्ण हो गया था। इस मौत में खास बात यह है कि युवक विरोध का पोस्टरब्वाय था। इसलिए उसकी हत्या विरोधी विरोध में कर सकते हैं तो समर्थक सहानुभूति पाने के लिए। राजनीति में यह बहुत आम है इसलिए समझना कार्यकर्ताओं को ही होगा और समझाना माता-पिता को ही होगा। यह सोचते हुए कि हिन्दू राष्ट्र या सरकार का फायदा तो जब होगा तब होगा हर छोटे-बड़े चुनाव से पहले यह नुकसान क्या झेलने लायक है? 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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