भारत में कोरोना वायरस के कारण आम इंसान तकलीफ़ में है, लेकिन इस तकलीफ़ के सबसे बड़े शिकार बेजुबान बन रहे हैं जो चर्चा से बाहर हैं. इस महामारी और उसके बाद पैदा हुई परिस्थितियों, सरकार की बदइंतजामी और अधिकारियों के गैर जिम्मेदाराना रवैये का सबसे अधिक बुरा परिणाम राजस्थान और गुजरात के पशुपालक जातियों को उठाना पड़ रहा है.
राजस्थान के मारवाड़ तथा गुजरात के कच्छ क्षेत्र में ऊंटों और भेड़-बकरियों का पालन बड़े स्तर पर किया जाता है. अकेले मारवाड़ क्षेत्र में 2 लाख ऊंट, 90 लाख से ज्यादा भेड़-बकरियां तथा 60 हज़ार से ज्यादा गधे हैं. ऐसे ही गुजरात के कच्छ क्षेत्र के तैरने वाले ऊंट प्रसिद्ध हैं.
ऊंट, गधे और भेड़-बकरियों के बिना रेगिस्तान में जीवन की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है. ये न केवल इन समाजों के पोषण की जरूरतों को पूरा करते हैं बल्कि सदियों की मेहनत से इन पशुओं ने अपने आप को रेगिस्तान के अनुरूप ढाला है. दुनिया में पाए जाने वाले सभी गर्म रेगिस्तानों में थार का महान मरुस्थल ही सबसे अधिक मानव बसावट वाला है. इसे सजीव बनाने में इन्ही पशुपालक जातियों का योगदान रहा है.
इस परम्परागत पशुपालन के व्यवसाय में रायका, रैबारी बागरी और बावरिया समाज जुड़े हुए हैं. ये समाज सदियों से पशुपालन का काम करते हुए आ रहे हैं. हमे ये ध्यान रखना चाहिये कि भारत में ऊंट पालने का काम सभी जातियां करती हैं किन्तु ऊंटों की ब्रीडिंग रायका-रैबारी लोग ही करवाते हैं. ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ गुजरात के कच्छ क्षेत्र में भी होती है.
कभी राजे रजवाड़ों की शान रहे, युद्ध मैदान के अहम हिस्सा रहे, राजस्थान के राज्य पशु ऊंट को रायका- रैबारी लोग रेगिस्तान के मिट्टी के धोरों में खुला छोड़ने पर विवश हैं क्योंकि उनके पास ऊंटों को खिलाने को कुछ नहीं है. भेड़-बकरी पालक हताश हैं. जब उनके पास खाने को कुछ नहीं हैं तो वे रेवड़ को क्या खिलाएं?
कोरोना वायरस का संक्रमण न फैलने पाए इसके लिए सरकार ने पूरे देश में लॉक-डाउन की घोषणा की हुई है. प्रेदेश के साथ-साथ विभिन्न जिलों की भी सीमाएं बन्द कर दी हैं. गांवों में स्वयं घोषित राष्ट्र भक्तों ने किसी भी व्यक्ति के गांवों में आने-जाने पर रोक लगा दी है.
प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूलन कैसे करते हैं?
मार्च महीने की शुरुआत में बाड़मेर में लगने वाले चैत्री मेले के बाद सभी पशुपालक अपने-अपने पशुओं के काफिले को लेकर जिसमें रायका-रैबारी ऊंटों के काफिले, बागरी और बावरिया अपने भेड़-बकरियों के रेवड़ को लेकर चारागाह और पानी की तलाश में निकल पड़ते हैं. ठीक ऐसे ही गुजरात के कच्छ से भी रायका-रैबारी लोग अपने कारवां के साथ निकल पड़ते हैं.
क्योंकि इस दौरान रेगिस्तान का क्षेत्र पूरी तरह से सुख जाता है. वहां चारा और पानी तो दूर इंसान के रहने की भी परिस्थितियां भी प्रतिकूल बन जाती हैं. ऐसी स्थिति में पशुपालकों के कुछ काफिले हरियाणा, पंजाब की ओर तो कुछ काफिले मध्य प्रदेश की ओर निकलते हैं. अगस्त के अंत में जब रेगिस्तान में बारिश होती है तब ये लोग अपने टोलों को लेकर वापस लौटते हैं.
पशुओं के क्षेत्रीय स्थानांतरण की ये परम्परा सदियों से चली आ रही है. किन्तु इस वर्ष चैत्री मेले को ही सरकार ने बीच में बन्द कर दिया. जिससे पशुपालकों को अपने पशुओं को वापस लाना पड़ा. कुछ लोगों ने तो अपने ऊंटों को वहीं मेले में ही खुला छोड़ दिया. क्योंकि उनके पास ऊंटों को खिलाने के लिए कुछ नही है.
जैसलमेर के सम में रहने वाले ऊंट पालक साजन भी चैत्री मेले में गये थे. उनको उम्मीद थी कि इस बार उसके ऊंट बिक जायेंगे, जिससे वो अपने राशन की दुकान का पैसा चुका सकेंगे और बचे हुए पैसे से अपने छोटे भाई-बहन को पढ़ा सकेंगे किन्तु उसकी सब उमीदों पर पानी फिर गया.
साजन ने बताया कि जब सरकार ने अचानक से बीमारी फैलने का नाम लेकर मेले को बीच में बन्द करवा दिया तो हमारी अंतिम उम्मीद भी समाप्त हो गई. इन ऊंटों को वापस कहां लेकर जाएं? घर पर भी ये ऊंट भूख से मरेंगे तो इससे अच्छा हैं इनको 500- 1000 रुपये में कोई ले ले, नहीं तो इनको यहीं खुला छोड़ना पड़ेगा. साजन ने बताया कि वहां 500 रु में भी कोई ऊंट लेने वाला नहीं था तो ऊंट को छोड़कर आ गया.
एक ऊंट दिन में 20 किलो चारा खाता है. जिसे 10 किलो सुबह और 10 किलो शाम में देना होता है. सूखे चारे की कीमत 10 रु प्रति किलो है. इस हिसाब से एक दिन का ख़र्चा हुआ 200 रुपये. एक महीने का एक ऊंट का खर्च होगा 6000 रुपये. सामान्यतः हर व्यक्ति के पास 8- 10 ऊंट हैं. वे इनको खिलाने के लिए इतना पैसा कहां से लेकर आएं?
मिट्टी का प्रबंधन बिगड़ेगा
पशुओं के इस स्थानांतरण से किसानों को खेतों के अंदर जैविक खाद मिल जाती है. इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और पानी भी जहरीला नही होता. बदले में पशुपालकों को अपने पशुओं हेतु खेतों से फसल निकालने के बाद अनावश्यक बचे फूल-पते, फलियां और भुसा मिल जाता है. ये काफी पौष्टिक होता है जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं. ये जुगलबंदी तो टूटेगी ही साथ में मिट्टी के प्राकृतिक तरीके से होने वाला प्रबन्धन भी बिगड़ेगा.
बकरी को गरीब की गाय कहा जाता है. बकरी को थोड़ा चराकर कभी भी और कितनी बार भी दूध निकाला जा सकता है. इसका दूध गाय और भैंस के दूध के मुकाबले ज्यादा उपयोगी होता है. गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार ये बकरी ही है. जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है.
अकेले मारवाड़ में 95 लाख से ज्यादा भेड़ बकरी हैं. कितनी बकरियों को चारा उपलब्ध करवाया जाएगा. और क्या ये किसी भी सरकार के लिए सम्भव है? और ये चार माह अर्थात अगस्त माह तक उपलब्ध करवाना है. इसमे भी सबसे बड़ी बात मवेशियों के लिए पानी का प्रबंधन करना है.
जहां इंसानों को पानी नहीं है वहां इतने बड़े स्तर पर 5 महीने तक पानी कहां से आयेगा? यही हालत जैसलमेर के हरियां बागरी की है. हरियां की उम्र करीब 65-70 वर्ष है. उसके पास 150 भेड़ें, 23 बकरी और 9 गधे हैं. हरियां ने बताया कि हम आज 10 किलो आटा उधार लेकर आये हैं. जब हमारे पास खाने को कुछ नहीं है तो इस रेवड़ को क्या खिलायेंगे?
हरियां ने आगे बताया कि वे अपने रेवड़ को लेकर जोधपुर की सीमा तक चला गया था किंतु वहां से पुलिस ने हमें वापस भेज दिया. हम यहां इन भेड़ बकरियों को क्या खिलायें? यहां इतना पानी भी नही है और ये स्थिति निरन्तर और ज्यादा खराब होती जाएगी. जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी रेगिस्तान में सब सुख जाएगा.
हरियां सरकार के नित नए नियमों से दुखी हैं. वे बताते हैं कि सरकार ने हमें आज तक क्या दिया. जो जंगल थे उनमें पशु चराने पर रोक लगा दी. जो चारागाह थे उन पर लोगों ने कब्जा कर लिया. और अब ये नई आफ़त.
अरावली और थार के मध्य सम्बन्ध भी बिगड़ेंगे
जहां एक तरफ गुजरात से लेकर दिल्ली तक विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रंखला ‘अरावली’ स्थित हैं. जिसके एक और भारत का महान मरुस्थल है और दूसरी ओर दक्कन का पठार. अरावली जहां एक और रेगिस्तान के फैलाव को रोकती, मानसून की स्थिति को निर्धारित करती है. वहीं दूसरी ओर ये जल विभाजक की भूमिका निभाती है.
इसकी अपनी खास पारिस्थितिकी उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है. इसे अलग और खास बनाने में इन्हीं घुमन्तू चारवाहों की भूमिका है. जो वहां की जैव विविधता को फैलाने में मदद करते हैं. इससे वहां मौजूद पेड़-पौधे और झाड़ियों की हर वर्ष कटाई-छंटाई होती रहती है. अरावली को इन जानवरों से खाद मिलती हैं. वहां से प्राप्त होने वाली असंख्य जड़ी-बूटियों को ये चरवाहे अपने साथ अन्य राज्यों तक ले जाते हैं.
यदि चरवाहे नहीं गए तो ये चक्र रुक जाएगा. अरावली को खाद कहां से मिलेगी? वहां मौजूद सुखी झाड़ियों को कौन हटायेगा. हमें ये देखना है कि अरावली में आग लगने की घटनाएं क्यों नहीं होती? अरावली केवल राजस्थान से दिल्ली के बीच ही कटा फटा है किंतु इससे पहले गुजरात से लेकर राजस्थान के अलवर तक तो ये निरन्तर फैला है. क्योंकि वहां मौजूद सुखी घास ओर झाड़ियां यहीं पशुपालक हर वर्ष हटाते हैं.
ऐसा नहीं है कि अरावली और थार के मध्य सम्बन्ध कोई एक-दो साल से बना है. ये सम्बन्ध तो कई हज़ार सदियों में निर्मित हुआ है. अरावली की जैव विविधता को फैलाने में यही पशुपालक और घुमन्तू समाज रहे हैं. ‘जंगल’ को इंसान नहीं उगते, उन्हें उगने में सैंकड़ों वर्ष लगते हैं. उसमें इन भेड़-बकरियों, ऊंटों, गधों और बंदरों की अहम भूमिका होती है. क्या सरकार इस सम्बंध को भी देखेगी?
यदि मवेशी नहीं रहे तो रेगिस्तान में रहना असंभव हो जायेगा. यदि रेगिस्तान को दिल माने तो ये मवेशी इस रेगिस्तान की धड़कन हैं. जैसे दिल के बिना धड़कन का कोई अस्तित्व नहीं, ठीक ऐसे ही धड़कन के बिना दिल के भी कोई मायने नहीं हैं.
दोषी कौन?
सवाल ये है कि क्या इस कोरोना महामारी को हिंदुस्तान में लाने का कारण ये लोग रहे हैं? क्या इस महामारी को पूरे देश में फैलाने में इनका कोई योगदान है? यदि ये लोग इस महामारी में दोषी नहीं हैं तो फिर क्या इस महामारी की सज़ा इन लोगों को दी जानी चाहिए? क्या इस महामारी में इन पशुओं की कोई भूमिका है?
हमारी सरकार को ये समझना चाहिए कि इन लोगों का किसी शहर में जाना तो बहुत दूर की बात है ये लोग गांव के अंदर भी प्रेवेश नहीं करते. पशुपालक गांवों की बाहरी सीमाओं से होकर निकलते हैं. किसी भी गांव की सीमा में एक दिन से ज्यादा नहीं ठहरते।. फिर भी यदि रोकथाम की बात है तो ये हिदायत दी जा सकती है कि वे शहर में न जायें. उनके रूट को चिन्हित किया जा सकता है.
राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग के निदेशक श्री वीरेंद्र सिंह ने बताया कि हमने कोरोना के चलते सभी का पशुपालकों का स्थानांतरण रोक दिया है. किंतु मवेशियों के चारे पानी का किसी तरह का कोई उपाय नहीं किया है.
जब उनसे ये पूछा कि जो लोग अपने घरों से निकल लिए थे तो उनका क्या? तो उनका जवाब था कि उनको भी उसी ज़िलें में रोक दिया गया है. जब तक सरकार का आदेश नहीं आएगा हम कुछ नहीं कर सकते.
राजस्थान सरकार का ये तैयारी का स्तर है. ये बात ठीक है कि कोरोना वायरस का आतंक हैं किंतु ये किस तरह की तैयारी हैं? क्या सरकार के ये कदम उचित प्रतीत होते हैं. आखिर सरकार किस बात और आदेश की प्रतीक्षा में हैं? ये सब हमें ये दिखलाता है कि सरकारों की दूरदृष्टि, उनके उद्देश्य और उनकी सोच दूषित हो चुकी है.
यदि समय रहते इस स्थिति पर ध्यान नहीं दिया और गया तो कोरोना महामारी के पीछे एक और बड़ी महामारी फैलने के आसार बनते जा रहे हैं. ये महामारी कोरोना से भी व्यापक साबित हो सकती है. जिसके शिकार केवलक. जीवन के वे तरीक़े होंगे जिनको सीखने में न जाने हमारी कितनी पीढियां गुजर गईं.
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘नई दिशाएँ’ के संयोजक हैं।