सीमा आज़ाद
हलांकि ये रहस्योद्घाटन नया नहीं है, बल्कि ऐसी सच्चाई है, जिसके बारे में उसी वर्ग के लोगों में फुसफुसाहटों में बातें होती रही हैं, पहली बार हल्ला मचाकर यह सब कहा गया, जो ऐसे पुरूषों का मनोबल तोड़ने के लिए काफी था। हलांकि इसके बाद भी ‘मीटू’ का एक दुर्दान्त आरोपी, (जिसने खुद अपने बयान में कहा कि सुन्दर औंरते देखकर वह उन्हें चूमने से खुद को रोक नहीं पाता है, वे उसे चुम्बक की तरह लगती हैं… स्टार बन जाने के बाद तो उनके साथ वो सब कुछ कर सकता है, जो वो करना चाहता है) अमेरिका की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा और फिर उसने दूसरे ऐसे आरोपी व्यक्ति को अमेरिका का मुख्य न्यायधीश बना दिया।
यह आन्दोलन अमेरिका से बाहर भी गया और कई देशों से होता हुआ इस साल सितम्बर अन्त में भारत भी पहुंच गया, (हलांकि इसकी चर्चा यहां पहले ही पहुंच चुकी थी) यहां यह बॉलीवुड की अभिनेत्री तनुश्री दत्ता से शुरू हुआ और फिर यहां से भी एक के बाद एक, संभ्रांत चेहरे बेनकाब होते गये। नाना पाटेकर जो कि पर्दे पर ज्यादातर देश की सारी गन्दगी साफ कर देने वाले किरदार निभाते हैं, खुद गन्दी पितृसत्तात्मक मानसिकता से भरे हुए पाये गये। आलोकनाथ, जो कि टीवी के पर्दे पर ‘भारतीय संस्कार’ बांटते थे, पितृसत्ता के ‘भारतीय सामंती संस्कार’ से लैस मिले। अब बॉलीवुड और टीवी सीरियल की दुनिया की कई महिलाओं ने अपने-अपने उत्पीड़न की कहानी कहनी शुरू कर दी है और यह सिलसिला अभी भी लेख लिखे जाने तक जारी है।
इसके बाद भारत की महिला पत्रकारों ने ‘मीटू’ में हिस्सा लिया, जिसमें पत्रकार जगत के सरगना और भाजपा की सरकार में मंत्री बनाये गये एम.जे अकबर के खिलाफ एक के बाद एक अब तक 10 कहानियां बाहर आ चुकी हैं, जिन्हें पढ़कर पता चलता है कि वास्तव में एमजे अकबर महिलाओं का शिकार करता है, उसने महिलाओं को कभी इंसान समझा ही नहीं होगा, उसके लिए महिला सिर्फ और सिर्फ उपभोग करने की वस्तु है। उच्च पदों पर बैठे कुछ और हमलावर संपादक और पत्रकारों की कहानियां भी सामने आयी हैं और आती जा रहीं हैं।
बहुत से संभ्रांत क्षेत्रों में अभी ‘मीटू’ पहुंचना बाकी है, लेकिन भारत में आते ही इसके पक्ष और विपक्ष में बहस शुरू हो गयी है, जिनमें ढेर सारे तर्क आते जा रहे हैं। समाज के ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे लोग इस अभियान को चटखारेदार घटना समझकर इसका मजा ले रहे हैं, यह इस समाज की पिछड़ी सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक उपभोक्तावाद को बयां करने के लिए काफी हैं। दरअसल यही ‘मीटू’ की ताकत के साथ-साथ उसकी सीमाओं को भी रेखांकित कर देता है। हम इसकी सीमाओं पर बात करेंगे, लेकिन पहले उस बात पर बात जिसके कारण जनवाद पसंद लोगों को इस आन्दोलन का समर्थन करना चाहिए-
बहुत से जनवादी लोगों का यह कहना है कि ‘मीटू’ अभियान का दायरा शहर का संभ्रांत महिला वर्ग है, गरीब और गांव की महिलाओं तक इसकी पहुंच नहीं है। हलांकि अभी तक यह आन्दोलन चल ही रहा है, यह कहां तक और किस रूप में जायेगा कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन अभी के लिए यह सच है कि इसका दायरा शहर की पढ़ी-लिखी ‘एलीट’ महिलाओं तक सिमटा हुआ है। लेकिन इस आधार पर भी इसकी आलोचना इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि यह अभियान इस सच्चाई को लोगों तक पहुंचा रहा है कि समाज का उच्च वर्ग जो अपने मूल्यों में अधिक सभ्य और लोकतान्त्रिक माना जाता है, में भी लड़कियों को देखने का नजरिया कितना तंग, कितना सामंती, पितृसत्तात्मक और उपभोक्तावादी है।
उच्च वर्ग की महिलायें पुरूषों के वर्चस्व वाले सभी कार्यक्षेत्र में अधिक से अधिक संख्या में काम करने के लिए आगे बढ़ रही हैं। ये पुरूषों की दुनिया में खलबली मचाने के लिए काफी है। महिलायें वहां अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में लगी हैं, लेकिन उसी के वर्ग का पुरूष उसे उसका स्थान देना नहीं चाहता। औरतों ने तो वक्त की जरूरत के मुताबिक खुद को बदला है, लेकिन पुरूष उस जरूरत के मुताबिक खुद को नहीं बदल पा रहा। वह औरत को कार्यक्षेत्र में बराबरी का काम करने के बावजूद भी ‘पुरूष से कमतर’ इंसान के रूप में ही देख रहा है, न कि अपने ‘कलीग’ या सहकर्मी के रूप में। महिला का यौन शोषण करने की मानसिकता यहीं से निकली है। ‘मीटू’ अभियान ऐसी महिलाओं को इस वर्ग में अपने लिए ‘स्पेस’ बनाने का एक प्रयास है। इस लिहाज से ‘मीटू’ एलीट वर्ग में घटने वाली परिघटना है, लेकिन क्योंकि एलीट वर्ग इस समाज का ही हिस्सा है, इसलिए वहां जनवाद के लिए लड़ी जा रही लड़ाई बाकी समाज के जनवादीकरण में भी सहायक होगी, न कि उसकी विरोधी। यह वर्ग से परे लैंगिक समानता की लड़ाई है, जो कि वर्ग संघर्ष को कमजोर नहीं बल्कि मजबूत करती है। इसीलिए सभी जनवाद पसंद लोगों को ‘मीटू’ अभियान का विरोध या ‘अगर-मगर के साथ समर्थन करने’ की बजाय पूरा समर्थन देना चाहिए।
लेकिन ‘मीटू’ अभियान के इस वर्गीय चरित्र के कारण इसकी कुछ सीमायें हैं, जिसके कारण इससे समाज के जनवादी हो जाने की अधिक उम्मीद नहीं बंधती है। ये सीमायें छोटी-मोटी नहीं, बल्कि गंभीर किस्म की हैं। अमेरिका में हम देख चुके हैं कि ‘मीटू’ के बाद कुछ हलचल तो मची, लेकिन समाज के सबसे उच्च पद पर घोषित तौर पर महिला विरोधी ही नहीं, महिलाओ के लिए अपराधी व्यक्ति बैठे हुऐ हैं।
लेकिन मैं इन परिणामों के आधार पर इसकी सीमाओं को नहीं आंक रही, इसकी दूसरी गंभीर सीमायें हैं, जिसके कारण हर जगह यह आन्दोलन उच्च वर्ग की महिलाओं के लिए थोड़ी सहानुभूति और थोड़ा स्पेस बढ़ाकर ठण्डा पड़ता जा रहा है।
फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़े यौन उत्पीड़न के तमाम मामले सामने आये हैं, जो कि उस घटना को किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित कर रहे हैं। दरअसल किसी ‘अभियान’ में अपराधी को व्यक्ति के रूप में चिन्हित करना गलत नहीं है, लेकिन मात्र पहला कदम ही है। हमारी फिल्म इण्डट्री ऐसी जगह है, जहां से महिलाओं के यौन और लैंगिक शोषण के औजार उपलब्ध कराये जाते हैं, वहां से आने वाले गाने, कहानियां, संवादों से लेकर दृश्यों तक में महिलाओं का पितृसत्तात्मक और उपभोगवादी चित्रण रहता है। गाने और डॉयलॉग लम्पटों को लड़कियों का मौखिक यौन शोषण करने के औजार उपलब्ध कराते हैं, और कहानियां पितृसत्तात्मक, उपभोक्तावादी सोच को बनाये रखने के लिए सीमेंट।
पूरी फिल्म इण्डस्ट्री जब लोगों को महिला विरोधी संस्कार परोस रही है तो, वहां हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वहां काम करने वाली महिलाओं को सम्मान का दर्जा मिलेगा? लेकिन ‘मीटू’ अभियान ऐसे महिला विरोधी संस्थान और यौन हमलों के मामलों को अलग-थलग रखता है, वह इस पर कोई सवाल नहीं उठाता, केवल वहां सुरक्षित माहौल की मांग रखता है, जो कि ऐसे माहौल में कभी भी संभव ही नहीं है। तनुश्री दत्ता और और विन्ता नन्दा ने अपने साथ हुई यौन हिंसा की घटनाओं को सबसे साझा किया, यह बहादुरी का काम है, लेकिन ये उनकी वर्गीय मानसिकता ही है कि उन्हें ऐसे महिला विरोधी संस्थान से कोई शिकायत नहीं है। जैसे तनुश्री दत्ता ने इस घटना के बाद काम छोड़ने के पहले, न जाने कितनी महिला विरोधी फिल्मों में काम किया है, लेकिन उन्हंे उन कहानियों या गानों से शायद ही कोई शिकायत हो। उन्हें अपने ‘मीटू’ को मुकम्मल और व्यापक बनाने के लिए इन फिल्मों में काम करने के लिए अपनी आलोचना भी करनी चाहिए।
विन्ता नन्दा के लिए भी यही बात सही है, जिस संस्कार बांटने वाले सीरियल में उनके साथ एक संस्कारी पुरूष ने रेप किया, महिलाओं को पुरूषों की दासी के रूप में चित्रित करने वाले उन्हीं संस्कारी सीरियलों में उन्होंने काम करके महिलाओं के जनवाद के आन्दोलन को कमजोर किया, उन्हें मीटू में इस इस बात की स्वीकरोक्ति भी करनी चाहिए। वे अब प्राड्यूसर हैं, वे खुद ऐसे सीरियल प्राड्यूस करती होंगी, जिनमें महिलाओं का अपमान होता है। उन्हें अपने मीटू में आलोकनाथ जैसे लोगों का नकाब हटाने के साथ अपनी गलती भी स्वीकार करनी चाहिए और भविष्य में ऐसे सीरियल न बनाने का वादा करना चाहिए।
इस लेख को लिखने के तुरन्त पहले इत्तेफाक से एक ईरानी फिल्म ‘आईना’ देखी। फिल्म की शुरूआत होती है कि एक बच्ची, जिसके एक हाथ पर प्लास्टर बंधा है, उसे स्कूल में छुट्टी के बाद उसकी मां लेने नहीं आयी और बच्ची कई बड़े लोगों से घर पहुंचने के लिए मदद मांगती हैं, क्योंकि वह अपना घर ठीक से नहीं जानती, इसलिए मासूम और दुखी चेहरा लिए इधर-उधर भटकती रहती है। एक जगह वो रोने भी लगती है, उसे रोता देख बस ड्राइवर उसकी मदद करने के लिए उसे फिर से स्कूल छोड़ने की बात कहकर बस में बिठा लेता है। बस में बैठे हुए उसने अचानक अपना हाथ का प्लास्टर खींचकर फेंक दिया स्कार्फ निकाल कर फेंक दिया और कहने लगी ‘मुझे अब और एक्टिंग नहीं करनी, मुझे फिल्म में काम नहीं करना।’ इस सीन से समझ में आता है ‘अच्छा तो बच्ची फिल्म के लिए एक्टिंग कर रही थी।’ पूरी फिल्म की टीम उसे समझाने में लग जाती है, लेकिन बच्ची नहीं मानती और सेट छोड़कर चली जाती है। अब वो अपनी रियल लाइफ में सड़क पर निकल जाती है। लोगों से सिम्बल के आधार पर पता पूछते हुए वह उसी फिल्म में काम करने वाली बूढ़ी महिला के पास जाकर कहती है-
‘‘मुझे इस फिल्म में काम नहीं करना, इसमें मुझे हर समय रोना पड़ता है, मेरे दोस्त जब फिल्म देखेंगे तो मेरा मजाक बनायेंगे, कहेंगें रोंधू है ये…..अब मैं पहली में पढ़ने वाली बच्ची नहीं हूं, दूसरी में आ गयी हूं…और मुझे ये स्कार्फ भी नहीं पसंद।’’
बूढ़ी औरत उससे घर जाने को कहती है। बच्ची को घर नहीं मालूम, लेकिन अब वो जो है वो है। आगे की आधी फिल्म में बच्ची के अपना पता खोजते हुए घर पहुंचने की कहानी है, जिसमें वो न तो रोती है, न किसी से डरती है, न किसी की सहानुभूति लेती है और अपने आप घर पहुंच जाती है।
वास्तव में फिल्में महिलाओं और बच्चों का मासूम, रोंधू, कमजोर और लाचार रूप ही परोसना पसंद करती हैं। उनका ये रूप ही उन्हें लुभाता है। फिल्म की बच्ची की तरह वहां काम करने वाली सभी महिलाओं को ऐसी भूमिका से इंकार करना होगा, जो महिलाओं को कमजोर बनाती हैं या उनके शोषण के लिए स्पेस मुहैया कराती हैं। फिल्म इडस्टी में ‘मीटू’ आन्दोलन का अभियान पितृसत्तात्मक अपराधी पुरूषों का भंडाफोड़ करने से आगे बढ़कर इसके संस्थाबद्ध रूप पर हमले तक नहीं पहुंचा, तो इसका असर नहीं होगा, यहां काम करने वाली महिलाओं के साथ भी न्याय नहीं होगा।
भारतीय ‘मीटू’ में पत्रकार एमजे अकबर के खिलाफ यौन शोषण, हमले, उत्पीड़न के सबसे ज्यादा बयान आये हैं और सभी एक जैसे, जिस कारण से उसके बारे में कहीं गयीं बातें एकदम सच्ची लगती हैं। इन बयानों के बाद सरकार में अगर ज्यादा सी भी शराफत होगी तो उसके खिलाफ कार्यवाही भी होगी, नहीं होगी तो यह महिला आन्दोलन का एक बड़ा मुद्दा बनेगा, लेकिन कार्यवाई हो भी गयी, तो भी पत्रकारिता का क्षेत्र महिलाओं के लिए असुरक्षित बना रहेगा। क्योंकि इस क्षेत्र में कई एमजे अकबर कुंडली मारे बैठे हैं।
पत्रकारिता ऐसा क्षेत्र है जहां महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन लोकतन्त्र का चौथा आधार कहे जाने इस तन्त्र में सवर्ण-हिन्दू-पुरूषों का वर्चस्व कायम होने के कारण इसका अपना ही लोकतन्त्रीकरण नहीं हो सका है, समाचारों के चयन और प्रस्तुतिकरण के रूप में हमें मीडिया का महिला विरोधी, दलित विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र दिखता है। इस चौथे खम्भे में जो महिलायें हैं भी, वे महानगरों या बड़े शहरों में केन्द्रित हैं, छोटे शहरों में या कस्बो में तो महिला पत्रकार के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। अपने सामंती पितृसत्तात्मक ढांचे के कारण ही मीडिया दलित अल्पसंख्यक और महिला उत्पीड़न की खबरों को खबर नहीं बनाता, इसी कारण इसे ‘मेनस्ट्रीम’ मीडिया की बजाय ‘मनुस्ट्रीम’ मीडिया कहना ज्यादा ठीक है। इसी मीडिया से जुड़ी तवलीन सिंह तक ने 14 अक्टूबर के ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में लिखा कि उनके द्वारा बहुत मेहनत से लिखी गयी यौन हिंसा की एक खबर को संपादक ने यह कह कर छापने से मना कर दिया कि ‘तुम अपना समय बर्बाद कर रही हो।’ ऐसा ही अनुभव बहुत सी महिला पत्रकारों का है। जो महिला पत्रकार अपने साथ हुई यौन हमलों और उत्पीड़न की खबरों तक कभी कह नहीं सकी, उनके लिए इन्हें प्रकाशित कराने का दबाव बनाना सचमुच मुश्किल ही रहा होगा।
यौन हिंसा रोकने के अभियान का दायरा अभी और भी व्यापक है। जैसे पुलिस विभाग सहित उन सभी संस्थानों की भी पोल खोलना और हल्ला बोलना होगा, जो किसी भी उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज करने में न सिर्फ आना-कानी करते हैं, बल्कि उत्पीड़न की बात सुनने के बाद उत्पीड़ित पर खुद भी सामंती और पितृसत्तात्मक हिंसा करते हैं, कभी मौखिक रूप से तो कभी शाारीरिक रूप से भी। इन संस्थानों में जाकर अपने पर हुए उत्पीड़न की रिपोर्ट लिखाना और न्याय के लिए लड़ना फिर से उसी पीड़ा से गुजरना होता है, जिससे उस उत्पीड़न के समय गुजरे थे। जिन संस्थानों में महिलायें काम करती हैं, वहां पर ‘महिला शिकायत सेल’ होने की लड़ाई तो लड़कियां पहले से ही लड़ रहीं हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट के कहने पर भी हर जगह नहीं हैं। जहां ये हैं भी उनके जनवादीकरण की लड़ाई लड़ना भी ‘मीटू’ के दायरे में लाना चाहिए। साथ ही पीड़ित औरतों को बताना चाहिए कि उनके साथ उन संस्थानों में शिकायत करने पर क्या-क्या हुआ। उसे किस मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पीड़ा से गुजरना पड़ा।
चीन में नवजनवादी क्रांति को नेतृत्व देने वाले नेता माओ-त्से तुंग ने क्रांति के बाद देश के सभी संस्थानों के जनवादीकरण के अभियान को ही ‘बम्बार्ड द बुर्जुआ हेडक्वार्टर’ कहा था, यानि ‘जनविरोधी अलोकतान्त्रिक संस्थानों को ध्वस्त करो।’ इन संस्थानों को जनवादी बनाये बगैर किसी भी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई जीत लेना नामुमकिन है। और जहां सत्ता ही अलोकतान्त्रिक हो, वहां यह लड़ाई और भी कठिन है। लेकिन ‘मीटू’ का ‘अभियान’ व्यक्तियों पर केन्द्रित होकर महिलाओं को उनके पक्ष में बदलाव का सपना दिखता है, जो कि संभव नहीं, इससे कुछ देर के लिए समाज में उफान तो आ सकता है, लेकिन बगैर पितृसत्ता को संरक्षण देने वाले संस्थानों से लड़े कोई भी बदलाव नहीं लाया जा सकता, महिलाओं के यौन उत्पीड़न को भी नहीं रोका जा सकता।
एक और बात- ‘मीटू’ से भारत जैसे देशों में यौन हमलों का एक बड़ा क्षेत्र छूट रहा है, वह है घर परिवारों के अन्दर होने वाले यौन हमले और उत्पीड़न। दरअसल कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़नों और घर के अन्दर होने वाले हमलों की कहानी कहने के अभियान में भी बहुत बड़ा अन्तर है। घरों के अन्दर होने वाले उत्पीड़न को बयान करने भर का मतलब है पितृसत्ता की एक मजबूत इकाई ‘परिवार’ की नींव में दरार पैदा कर देना और यह बहुत बड़ी परिघटना होगी। इस कारण इसे बयान करते ही समाज में बड़े पैमाने पर खलबली मचेगी। यह और बात है कि बयान करने वाली औरत के लिए जीना मुश्किल हो जायेगा। यहीं कारण है कि लड़कियां बाहर होने वाले उत्पीड़न को तो बयान कर ले रही हैं, लेकिन घरों के अन्दर होने वाले यौन हमलों को बयान करने से बच रहीं हैं। सच्चाई यह है कि जनवादी संगठनों और आन्दोलनों के सहयोग के बगैर परिवारों के अन्दर के मीटू बयानों को बाहर नहीं लाया जा सकता, यह ‘मीटू’ की बड़ी सीमा है।
अभी मीटू का अभियान समाज को बदलने वाले जनसंगठनों तक नहीं पहुंचा है, इसका अलग से जिक्र इसलिए, क्योंकि सामंती पितृसत्तात्मक शोषकों का खेमा इसके इन्तजार में है। लेकिन अगर यह यहां पहुंचा तो भी, शोषकों को दूरगामी तौर पर अपने पक्ष के लिए कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि इस अभियान के माध्यम से ऐसे संगठनों का जनवादीकरण और मजबूत होगा जिससे समाज बदलाव के काम में और मजबूती आयेगी।
मीटू को खारिज करने वाले कुछ लोगों ने अपने फेसबुक पोस्ट पर कुछ ऐसे वाकयों का जिक्र किया है, जिसमें महिला ने महिला होने का फायदा उठाया, और किसी पुरूष के सीने पर पैर रखकर आगे बढ़ गयी, उसके कारण पुरूष को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। निश्चित ही ये घटनायें सच होंगी, कुछ महिलाये ऐसा करती हैं, वे अपनी यौनिकता का इस्तेमाल आगे बढ़ने के लिए करती हैं, जिसमें दूसरी लड़कियां और पुरूष भी इसका शिकार हो जाते हैं। लेकिन ऐसी लड़कियों को अपनी यौनिकता का लाभ उठाने का स्पेस भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही उपलब्ध कराया है, जिसके कारण वो लड़की ऐसा कर पा रही है। इस प्रकार ऐसी घटनाओं से पीड़ित लड़का भी पितृसत्ता का ही शिकार है, न कि उस लड़की का। इस लिहाज से ऐसे लड़कों को भी ‘मीटू’ मुहिम का समर्थन इसी रूप में करना चाहिए।
पहली बात तो यह कि हो सकता है इसमें लिखे गये कुछ मामले झूठे हों, लेकिन इन कुछ के आधार पर सबको निशाना नहीं बनाया जा सकता। दूसरे तर्क में अभी तक तो यही देखने में आ रहा है कि हर आरोपी पुरूष मीटू में उसकी कहानी आने के बाद अपनी ओर से अपनी बात रखने की बजाय महिलाओं को धमकाता ही दिख रहा है। नाना पाटेकर, आलोक नाथ के बाद कल ही एमजे अकबर ने सभी पीड़ित महिलाओं को लीगल नोटिस भेजने की धमकी दी है। एमजे अकबर ने अपनी सफाई में मीडिया में जो बातें कहीं हैं वो उसके अपराधी होने की बात को और भी पुख्ता कर रही हैं। लेकिन अगर किसी पुरूष पर गलत आरोप लगाया गया है, तो वो भी अपनी बात बयान कर सकता है और उसे सुना भी जाना चाहिए ताकि यह लड़ाई ‘महिला बनाम पुरूष’ न होकर ‘जनवाद बनाम पितृसत्ता’ बन सके। हलांकि ‘मीटू’ महिला यौन उत्पीड़न के दायरे तक इतना अधिक सिमटा हुआ है कि यह लोगों को इसकी जड़ ‘पितृसत्ता’ तक पहुंचने नहीं देना चाहता, जिससे जनवादी लोगों में भी बहुत तरह के भ्रम पैदा हो रहे हैं और यह अपने समर्थकों का दायरा नहीं बढ़ा पा रहा है।
याद करें 2006 में अश्वेत महिला कार्यकर्ता बुर्के ने इसका दायरा जहां गरीब उपेक्षित महिला, से लेकर किशोर बच्चों तक फैलाया हुआ था, 2017 में यूनिसेफ के एड्स अभियान से जुड़ी अभिनेत्री अलीसा मिलानो ने इसे ‘कार्यक्षेत्र में महिलाओं पर यौन हमलों’ तक सिमटा दिया, ताकि उच्च वर्ग की महिलाओं को कार्यक्षेत्र में थोड़ा अधिक स्थान बगैर किसी बड़ी, असंगठित और अलग-थलग लड़ाई के हासिल किया जा सके, लेकिन यह संभव नहीं है, यह हमने अमेरिका में भी देखा और भारत में भी देखेंगे। महिलाओं की समानता की लड़ाई और व्यापक है, मीटू केवल इसका एक बहुत छोटा सा कदम हो सकता है, मुकम्मल रास्ता नहीं।
सीमा आज़ाद मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इलाहाबाद में रहती हैं।