इंडिया नाम से आहत लोगों को परेशान करने वाला शीर्षक

इंडिया वहां पहुंचा जहां प्रधानमंत्री नहीं गये हैं

उपशीर्षक है, प्रतिनिधिमंडल ने मणिपुर के शिविरों में पीड़ितों से मुलाकात की

विपक्षी दलों के सांसदों के प्रतिनिधिमंडल के मणिपुर दौरे की खबर तो सभी अखबारों में है ही। खेल शीर्षक में होता है। द टेलीग्राफ की इस रचनात्मकता के मुकाबले कुछ प्रमुख अंग्रेजी अखबारों के शीर्षक इस प्रकार रहे 

 

  1. टाइम्स ऑफ इंडिया “दौरे पर पहुंची विपक्ष (सांसदों) की टीम ने पूछा, मणिपुर जल रहा था तो क्या केंद्र (सरकार) सो रहा था”। 
  2. द हिन्दू – “मणिपुर सरकार ने संघर्ष को नियंत्रण से निकल जाने दिया इंडिया : इंडिया”
  3. इंडियन एक्सप्रेस – “मणिपुर में विपक्ष ने पूछा : अगर यहां शांति है तो राहत शिविर क्यों”?
  4. हिन्दुस्तान – टाइम्स बलात्कार मणिपुर उत्पीड़न वीडियो पर सीबीआई ने एफआईआर दाखिल की

 

आज हिन्दी के मेरे दो अखबारों की लीड इस प्रकार है – सीबीआई ने शुरू की बर्बरता की जांच पीड़ितों से मिलने पहुंचे विपक्षी सांसद (अमर उजाला) और मणिपुर वीडियो : सीबीआई जाच शुरू (नवोदय टाइम्स)। अमर उजाला में लीड के साथ सिंगल कॉलम की एक खबर प्रमुखता से है, चीनी साजिश के संकेत। इस खबर का मुख्य शीर्षक, विदेशी एजेंसियों की भागीदारी से नहीं कर सकते इनकार : नरवणे इस सूचना पर आधारित है, “पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल एमएम नरवणे ने मणिपुर हिंसा में चीनी साजिश के संकेत दिये हैं”। खबर में कहा नहीं गया है पर मैं याद दिला दूं कि कोई डेढ़ सौ मौतों, 50,000 से ज्यादा लोगों के विस्थापन, 250 से ज्यादा चर्च जला दिये जाने और दो महीने से भी ज्यादा की हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री ने मणिपुर का ‘म’ नहीं बोला था और अखबारों में मणिपुर की खबरें नहीं के बराबर होती थीं। पहले पन्ने पर तो और नहीं।  

कहने की जरूरत नहीं है कि मणिपुर में हिंसा जारी रहने के तीन महीने होने को आए। 70 दिनों से ज्यादा इंटरनेट बंद रहा और जिस मामले की जांच अब शुरू हुई है और मेरी मातृभाषा के अखबारों ने जिस खबर को लीड बनाया है वह है वीडियो लीक होने की जांच या अमर उजाला के अनुसार बर्बरता की जांच। मुझे नहीं पता सीबीआई को क्या जांच करना है पर जब रेल दुर्घटना की जांच सीबीआई कर सकती है, निजी बैंक के पैसों के कथित घोटालों की जांच कर चुकी है तो कुछ भी कर सकती है लेकिन जांच इस बात की होनी चाहिए कि हिंसा इतने दिन क्यों चल पाई। सरकार क्या-क्या किया या क्यों नहीं किया और किया तो उसका असर क्यों नहीं हुआ। जो हो रहा है वह काम करते हुए दिखना है और अखबार उसी का प्रचार कर रहे हैं। आप जानते हैं कि मणिपुर पर केंद्र सरकार, मीडिया और देश की आम जनता की आंख तब खुली जब दो महिलाओं को नंगा कर घुमाने का दिल दहलाने वाला वीडियो सामने आया और मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सरकार कार्रवाई नहीं करेगी तो हम करेंगे। सरकार ने क्या कार्रवाई और राजनीति की है आप जानते हैं। अभी जारी है – यह भी।  

इसलिए, अभी उसपर नहीं लिखूंगा पर सरकार के समर्थकों में एक, तमिलनाडु के एक राजनीतिक टीकाकार और प्रकाशक बद्री शेषाद्री को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है। अखबार की एक खबर के अनुसार, एक वीडियो में उन्होंने कहा था (अंग्रेजी से अनुवाद मेरा), सुप्रीम कोर्ट ऐसे काम कर रहा है जैसे वह कोई बड़ा …. हो मैं नहीं जानता उसे क्या कहूं …. एक रिवाल्वर (सीजेआई) चंद्रचुड़ को दिया जाना चाहिए और उनसे कहा जाना चाहिये कि मणिपुर जाइये और वहां शांति लाइये …. क्या आप सरकार के क्षेत्राधिकार में घुस भी सकते हैं? आप वहां की सरकार में क्या दोष पाते हैं? दो समूह लड़ रहे हैं …. यह एक पहाड़ी क्षेत्र है …. उससे भी ज्यादा जटिल इलाका …..।” कहने की जरूरत नहीं है कि उन्हें मुख्य न्यायाधीश पर टिप्पणी के लिए गिरफ्तार किया गया है पर वे सरकार का समर्थन तो कर ही रहे थे और इस सरकार का समर्थन भी किया जा सकता है तथा उसके लिए मुख्य न्यायाधीश की आलोचना कर जेल जाने का जोखिम भी उठाया जा सकता है यह खबर रह गई है। आज गिरफ्तारी की खबर ही छपी है। सरकार का समर्थन या सरकार के ऐसे समर्थकों की खबर तो पहले पन्ने पर नहीं है। 

आज हिन्दुस्तान टाइम्स में भी यही लीड है जबकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सीबीआई से जांच कराने की घोषणा पहले ही कर चुके हैं और खबर पहले छप चुकी है। आज का शीर्षक है, बलात्कार मणिपुर उत्पीड़न वीडियो पर सीबीआई ने एफआईआर दाखिल की। इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को लीड बनाया था। इसका शीर्षक था, यौन उत्पीड़न (दो महिलाओं को नंगा घुमाने) के वीडियो की जांच सीबीआई करेगी। इस खबर का इंट्रो था, वीडियो बनाने वाले को गिरफ्तार किया गया, फोन जब्त। आपको पता है कि मणिपुर की 4 मई की इस वारदात का वीडियो 70 से भी ज्यादा दिनों बाद सार्वजनिक हुआ और एफआईआर होने के बावजूद कोई गिरफ्तारी नहीं हुई थी। सरकार ने कोई बयान नहीं दिया था और उसकी ओर से यह सवाल उठाया गया था कि संसद सत्र से पहले यह वीडियो कैसे सार्वजनिक हुआ। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि सीबीआई क्या जांच कर रही होगी और सीबीआई जांच का मकसद क्या है। जहां तक मुद्दा खबर और शीर्षक का है, टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर का शीर्षक है, “दौरे पर पहुंची विपक्ष (सांसदों) की टीम ने पूछा, मणिपुर जल रहा था तो क्या केंद्र (सरकार) सो रहा था”। 

विदेशी हाथ और सीबीआई द्वारा जांच शुरू करने की खबर यहां भी है पर सिंगल कॉलम में उतनी प्रमुखता से नहीं जितनी अमर उजाला में है। इस तरह आप खबर में प्रचार देख सकते हैं। मुझे यह सरकार की कमजोरी या अभी तक की लापरवाही को जायज ठहराने की कोशिश लगती है। इससे यह जताने की कोशिश की जा रही है कि बड़ा मामला है इसलिए संभल नहीं पाया जबकि ऐसा था तो सरकार को पहले ही कहना चाहिए था और सरकार हिंसा पर नियंत्रण की कोशिश कर रही होती तब इन खबरों का मतलब था। सबने देखा कि सरकार (खासकर प्रधानमंत्री) ने कुछ नहीं किया यहां तक कि मिलने आये विधायकों को समय नहीं दिया, महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने के मामले में कार्रवाई नहीं ही हुई थी और अब जांच चल रही है कि वीडियो लीक कैसे हुआ और वीडियो बनाने वाले को गिरफ्तार किया ही गया है। सरकार समर्थक कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने प्रधानमंत्री के प्रयासों को प्रचारित करने की कोशिश की ही है और ऐसे में यह सब बहुत ज्यादा भले न हो, रेखांकित करने लायक तो है ही। 

आज की इन और ऐसी खबर के बीच इंडियन एक्सप्रेस में आज मणिपुर की तीन खबरें हैं। पहली खबर लीड है। इसका फ्लैग शीर्षक है, 21 संसद सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल ने शिविरों का दौरा किया। मुख्य शीर्षक है, “मणिपुर में विपक्ष ने पूछा : अगर यहां शांति है तो राहत शिविर क्यों”? इंट्रो है, “उनलोगों ने कहा मुख्यमंत्री में विश्वास नहीं: महिला के मिलने के बाद सांसद वीडियो में”। दूसरी खबर का शीर्षक है, एफआईआर एक कहानी कहती हैं दोनों तरफ की भीड़ ने शस्त्रागार के बाद शस्त्रागार को निशाना बनाया। तीसरी खबर का शीर्षक है, विभाजन से भागकर आये मणिपुर के छात्र दिल्ली के स्कूलों में मित्रता के पाठ पढ़ रहे हैं। आज के अखबारों की इन खबरों से साफ है कि रोज 18 घंटे बिना छुट्टी काम करने वाले प्रधानमंत्री के प्रचारक चाहते हैं कि सीबीआई जांच शुरू हो गयी तो काम हो गया। इसके अलावा कुछ ना करना था ना करना है – कम से कम खबर तो नहीं ही करनी है। 

ऐसे में प्रधानमंत्री को काम करते दिखाने वाली एक खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है। इसका शीर्षक है, छात्रों को प्रतिभा की बजाय भाषा के आधार पर चुनना बड़ा अन्याय है : प्रधानमंत्री। आप जानते हैं कि विपक्ष मांग कर रहा है कि मणिपुर पर प्रधानमंत्री संसद में बयान दें और गृहमंत्री कह चुके हैं कि चर्चा करने के लिए तैयार हैं तथा विपक्ष नहीं चाहता है कि संसद में इसपर चर्चा हो। कहने की जरूरत नहीं है कि इस और ऐसी खबर से यह जताने की कोशिश की जाती है कि विपक्ष की मांग नाजायज है प्रधानमंत्री क्यों बोलें संबंधित मंत्री तो तैयार हैं। लेकिन यहां शिक्षा मंत्री कि मामले में प्रधानमंत्री बोल रहे हैं और यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तीसरी सालगिरह पर आयोजित एक समारोह के उद्घाटन भाषण था। आप जानते हैं कि 2014 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने जिसे शिक्षा मंत्री बनाया था उसके बारे में बाद में पता चला कि उसे डिग्री और सर्टिफिकेट में अंतर नहीं मालूम था और वो स्नातक भी नहीं थीं। 

ऐसे में शिक्षा पर प्रधानमंत्री की अपनी राय हो सकती है लेकिन मुझे लगता है कि उसे आम लोगों पर बिना सलाह-चर्चा थोपना अनुचित है। फिर भी इंडियन एक्सप्रेस में इस खबर का शीर्षक है, मातृभाषा में शिक्षा सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे मुझे याद आया कि मातृभाषा में पढ़ने के कारण मुझे कई परिभाषाएं हिन्दी में अभी भी याद हैं। परिवार को अंग्रेजी का महत्व पता था इसलिए अंग्रेजी भी पढ़ता था और अंत में अनुवाद ही रोजी-रोटी कमाने का जरिया बना। हिन्दी में पढ़ने का लाभ यह है कि मुझे जो परिभाषाएं अब भी याद हैं वह गूगल में नहीं हैं और अब चूंकि हिन्दी में पढ़ाई लिखाई (मूल रूप से पैसा) कम हो गया है तो अब हिन्दी की किताबें और लेखक भी वैसे नहीं हैं। अनुवाद तो मूल जैसा वही कर पाएगा जो दोनों भाषाओं के साथ विषय का भी पारंगत हो। पर बेहतर अनुवाद के लिए देश में कुछ हुआ नहीं और अब तो मशीन अनुवाद इतने आसान (और लगभग मुफ्त) हो गये हैं कि अनुवाद का काम करके घर चलाना भी मुश्किल है। उसकी गलतियां (और प्रभाव भी) झेलना मुश्किल पर मजबूरी है। हालांकि, वह अलग मुद्दा है। 

ऐसे में अभी मुद्दा यह है कि मातृभाषा में पढ़ने से सामाजिक न्याय होता भी हो तो छात्र और समाज को क्या लाभ है और क्या अंग्रेजी नहीं पढ़ाकर हम भविष्य के नागरिकों को भारत (दरअसल हिन्दी पट्टी या गोबर पट्टी) में सीमित नहीं कर रहे हैं। जो नहीं जानते हैं उन्हें बता दूं कि जमाना ग्लोबल सिटिजन का है और वसुधैव कुटुम्बकम के तहत भारत माता, नहीं धरती माता होना चाहिए है। यह सब राजनीति का विषय और उद्देश्य है। इसीलिए मुझे लगा कि लिखना जरूरी है कि माता-पिता या स्कूल ऐसे न करें और ना ऐसे सामाजिक न्याय की सोचें। जो भी पढ़े अंग्रेजी जरूर पढ़े और घटिया अनुवाद से तो नहीं ही पढ़े। कहने की जरूरत नहीं है कि मातृभाषा के साथ अंग्रेजी भी समान रूप से पढ़ने और 30 साल अनुवाद करने के बावजूद मैं वैसी अंग्रेजी नहीं लिख-बोल सकता जैसी अंग्रेजी माध्यम में पढ़े मेरे भाई-बहन बोलते हैं। भले उनकी हिन्दी कमजोर हो। 

इन सब के मद्देनजर मैंने कोशिश की कि मेरे बच्चे मातृभाषा में भले न पढ़ें, मातृभाषा लिखने-पढ़ने लायक तो रहें ही। पर वह भी नहीं हुआ और बेटे ने पूछ दिया कि हिन्दी नहीं जानने से क्या नुकसान होगा – तो मेरे पास जवाब नहीं था। यहां लिखने का सामाजिक उद्देश्य तो यही बताना है कि प्रधानमंत्री राजनीति कर रहे हैं। आप अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में डालिये और उनके झांसे में मत आइये। वैसे भी, उनके बच्चे ही नहीं हैं तो उन्हें इस विषय में पड़ना नहीं चाहिये। लेकिन….। जहां तक मातृभाषा में पढ़ने के फायदे की बात है, मुझे जो परिभाषाएं याद हैं उनमें एक है, घुलनशीलता : किसी पदार्थ की घुलनशीलता ग्रामों में उसकी वह मात्रा है जो 100 ग्राम घोलक में घुलकर संतृप्त घोल बनाती है। गूगल में जो मिला उनमें एक यह है (यानी आजकल मातृभाषा में यही पढ़ाया जा रहा होगा) विलेय पदार्थ को वह मात्रा जो ताप पर संतृप्त विलयन में उपस्थित रहती है, उसे घुलनशीलता कहते हैं। 

मुझे आज भी घुलनशीलता की बेहतर और सही परिभाषा याद है तो उसका लाभ यहां चर्चा करने के अलावा क्या है? दूसरी ओर, कहने की जरूरत नहीं है कि इस परिभाषा से घुलनशीलता को समझना तो मुश्किल है ही याद रखना भी मुश्किल होगा। फिर भी आपको लगता है कि सबको मूर्ख बनाना है या सब मूर्ख ही हैं तो सामाजिक न्याय की दिशा में बढ़ने के लिए अपने बच्चों का इस्तेमाल मत कीजिए। उन्हें एक सुंदर-सुनहरा और बेहतर भविष्य देने की कोशिश कीजिए। उसके तरीके मालूम कीजिये और अपना काम कीजिये ठीक वैसे ही जैसे प्रधानमंत्री अपना काम कर रहे हैं।

 

लेखक  वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

 

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