कानून का शासन अख़बारों के लिए कोई मद्दा ही नहीं!

संपादकीय विवेक सत्तारूढ़ दल की सेवा में समर्पित होने का उदाहरण

आज (शनिवार, 22 अप्रैल 2023) के अखबारों में खबरों के चयन के आधार पर कहा जा सकता है कि संपादकीय प्रतिभा या आजादी का उपयोग सरकार के पक्ष में हो रहा है। कल की खबरों के आधार पर मैंने लिखा था कि संपादकीय आजादी का उपयोग नहीं हो रहा है। अब बात साफ है और इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे कि अखबारों में खबरों की प्रस्तुति सरकार की छवि बनाने और विपक्ष की बिगाड़ने के उद्देश्य से की जाती है। खबर को उनके महत्व के अनुसार प्रस्तुत नहीं किया जाता है। आइए, देखें कैसे? आज के अखबारों में पहले पन्ने पर जो खबरें हैं उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आज कोई सर्वसम्मत लीड नहीं है। ऐसे में कल दिल्ली के साकेत कोर्ट की घटना दिल्ली के अखबारों के लिए निर्विवाद लीड हो सकती थी। खास कर इसलिए भी कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के प्रति और कानून व्यवस्था के प्रभारी दिल्ली के उपराज्यपाल से पूछा है कि हमारी दिल्ली में क्या हो रहा है।

यह सही है कि इस तरह के मामले रोकना बहुत मुश्किल है लेकिन पुलिस के पास खुफिया सूचना होती है, होनी चाहिए और तब तो जरूर जब यह पता ही नहीं है कि केंद्र सरकार ने लोगों के फोन की जासूसी करने वाला मालवेयर पेगासस खरीदा है कि नहीं और कई लोगों के फोन में इसके होने के असर पाये गए हैं और मामले में कोई सरकारी स्पष्टीकरण नहीं है। जब दूसरी कोई बड़ी और राष्ट्रीय खबर लीड लायक नहीं हो तो स्थानीय खबर को लीड बनाया जा सकता है लेकिन यह केंद्र सरकार के खिलाफ हो तो कैसे बने? और आज वही हुआ है। टाइम्स ऑफ इंडिया में तो यह खबर लीड है लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स में यह पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर है ही नहीं, द हिन्दू में यह खबर सिंगल कॉलम है। इंडियन एक्सप्रेस और द हिन्दू के साथ हिन्दुस्तान टाइम्स ने भी पुंछ की घटना के फॉलो अप को लीड बनाया है। हिन्दुस्तान टाइम्स में तो तिरंगे में लिपटे सैनिकों के ताबूत की पुलवामा के समय जैसी फोटो भी है।

आज जब कोई सर्वसम्मत लीड नहीं है तो अखबारों को चाहिए था कि पाठकों के लिए कोई अच्छी खबर देते। मैं पहले लिख चुका हूं कि ऐसी खबरें ऐसे दिनों के लिए रखी जाती हैं, रखी जानी चाहिए। लेकिन अब की पत्रकारिता काफी बदल गई है और वह दिखता है। यही कारण है कि सरकार के समर्थक अखबारों ने सरकार का समर्थन करते हुए भी वह खबर नहीं छापी है जिसे सरकारी पार्टी ने खुद ट्वीट किया है और जो बाकायदा राजनीतिक है। उसपर आने से पहले बता दूं कि सत्यपाल मलिक को सीबीआई का बुलावा भी आज की प्रमुख खबरों में है। नवोदय टाइम्स ने इसे लीड बनाया है और साकेत कोर्ट में गोली चलने की खबर टॉप पर बॉक्स है।
आज जो खबर दूसरे अखबारों में नहीं है और द टेलीग्राफ में लीड है वह यह कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कर्नाटक भाजपा नेता केएस ईश्वरप्पा को फोन किया। अगर आप ईश्वरप्पा को जानते हैं तो इस खबर का महत्व समझ जाएंगे लेकिन उसपर आने से पहले यह बता दूं कि द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार इसका वीडियो भाजपा ने खुद ट्वीट किया है। पार्टी जब खुद इसे प्रचारित कर रही है तो अखबारों को इसे प्रकाशित करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी लेकिन आज के मेरे पांच अखबारों में सिर्फ द टेलीग्राफ में यह खबर लीड है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सीबीआई ने कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक को बुलाया है तो यह प्रचारित और स्थापित करने की कोशिश होगी कि सरकार भ्रष्टाचार के मामले में किसी को नहीं छोड़ती है।

सत्यपाल मलिक राज्यपाल थे तो सरकार के करीब थे यह बताने की जरूरत नहीं थी और उनके समय में अगर कुछ हुआ तो वह सरकार ने ही किया कराया होगा है और यह सब तब छपा भी था लेकिन सत्यपाल मलिक ने जब करण थापर को इंटरव्यू देकर पुलवामा की पोल खोल दी है तो उन्हें सीबीआई द्वारा बुलाया जाना सरकार के घिसे पिटे तरीकों में है और जब यह खबर है तो 40 प्रतिशत के लिए बदनाम पूर्व मंत्री को प्रधानमंत्री द्वारा फोन किया जाना और इसका वीडियो भी ट्वीट करना पर्याप्त महत्वपूर्ण है फिर भी सरकार समर्थक अखबारों ने इसे वो महत्व नहीं दिया है जो द टेलीग्राफ ने दिया है। द टेलीग्राफ की खबर से साफ हो जाएगा कि उसने क्यों महत्व दिया है और बाकी ने क्यों महत्व नहीं दिया है।

द टेलीग्राफ की आज की लीड का शीर्षक है, द ग्राफ्ट क्राफ्ट (रिश्वत कौशल)। सत्यपाल मलिक को सीबीआई का बुलावा इसी शीर्षक के तहत है। हालांकि, इस खबर का शीर्षक है, कोई ताज्जुब नहीं मलिक जी, ये सीबीआई है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाये गए भाजपा नेता को फोन किया – यह खबर बैंगलोर डेटलाइन से केएम राकेश की है जो इस प्रकार है (अनुवाद मेरा)- “प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें उनके प्रशंसक भ्रष्टाचार का घनघोर विरोधी मानते हैं ने शुक्रवार को केएस ईश्वरप्पा को फोन करने के लिए अपने पसंदीदा कामों से समय निकाला। जो लोग बाद की खबरें रख रहे हैं उन्हें बता दूं कि ईश्वरप्पा कर्नाटक भाजपा के नेता हैं जिन्हें पिछले साल भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्री पद से हटा दिया गया था।”

पांच बार के इस विधायक और पूर्व मंत्री को नरेन्द्र मोदी ने जाहिर तौर पर 10 मई को कर्नाटक में होने वाले चुनाव के लिए पार्टी टिकट देने से इनकार करने के बाद उन्हें शांत करने के लिये फोन किया था। यह फोन कॉल ऐसे समय में किया गया था जब भाजपा असंतुष्ट नेताओं के दलबदल से जूझ रही है और उन्हें पार्टी के लिए काम करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत थी। (हिमाचल प्रदेश चुनाव के समय भी ऐसी ही स्थितियां थीं तब भी प्रधानमंत्री ने किसी को फोन किया था और उसका वीडियो सार्वजनिक हो गया था।)

भाजपा द्वारा ट्वीट किए गए इस वीडियो क्लिप में परिवार के सदस्यों से घिरे उत्साहित ईश्वरप्पा फोन पर प्रधानमंत्री को धन्यवाद देते हुए दिखाई दे रहे हैं। ईश्वरप्पा को पिछले अप्रैल में सरकार छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था जब भाजपा कार्यकर्ता और सिविल ठेकेदार संतोष पाटिल ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि वह अपना जीवन इसलिए समाप्त कर रहे हैं क्योंकि ईश्वरप्पा ने बिलों के भुगतान के लिए 40 प्रतिशत कमीशन की मांग की थी। सीआईडी, जो भाजपा द्वारा संचालित सरकार को रिपोर्ट करती है, ने ईश्वरप्पा को जून में इस मामले में क्लीन चिट दे दी थी, लेकिन उन्हें बहाल नहीं किया गया था। वीडियो क्लिप में ईश्वरप्पा मोदी को विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का आश्वासन देते नजर आते हैं और उनका “आशीर्वाद” मांगते हैं।

वे कहते हैं, “बहुत अच्छा हो गया साब, डेफिनेटली हम जीतेंगे, सर …. कोई बात नहीं, सर … निश्चित रूप से हम जीतेंगे साब … आपका आशीर्वाद चाहिए साब,” वह स्पष्ट रूप से कहते हैं। क्लिप के अंत में मोदी को धन्यवाद देने के बाद, ईश्वरप्पा कहते हैं: “मेरे जैसे सामान्य कार्यकर्ता से आप का ऐसे बात चीत करना हम सब को बहुत खुशी है।” इसपर कांग्रेस के महासचिव और कर्नाटक के इंचार्ज रणदीप सुरजेवाला ने संवाददाताओं से कहा, “प्रधानमंत्री मोदी का 40 प्रतिशत कमीशन सरकार पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाना, भारत के लोकतंत्र के लिए घातक है।” कांग्रेस ने उन त्रासद परिस्थितियों को उजागर किया, जिसके कारण ईश्वरप्पा का पतन हुआ था। अगर आप द टेलीग्राफ को कांग्रेस समर्थक या सरकार विरोधी मानते हैं (यह नया चलन है और भाजपा विरोधी को या निष्पक्ष होने को भी कांग्रेस समर्थक होना करार दिया जाता है) तो भी यह तथ्य है कि प्रधानमंत्री ने फोन किया था, वीडियो भाजपा ने ट्वीट किया है, उनपर 40 प्रतिशत कमीशन लेने का आरोप था, सीबीआई उन्हें क्लीन चिट दे चुकी है और फोन करने ईश्वरप्पा का गदगद हो जाना। इसे बताने में क्या दिक्कत है और नहीं बताने का कारण आप समझ सकते हैं।

कल की खबरों के बारे में आप पढ़ चुके हैं कि गुजरात की दो अदालतों की दो खबरें थीं और कई कारण से उन्हें एक साथ छपना चाहिए था और दोनों खबरें एक साथ होतीं तो खबर होती कि, अवमानना मामले में राहुल गांधी की सजा कम नहीं हुई जबकि नरोदा गाम मामले में भाजपा नेता माया कोडनानी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक बाबू बजरंगी बरी हो गया। अखबारों ने दोनों खबर अलग-अलग छापी और यह कॉमन इंट्रो नहीं बना। इसपर कपिल सिबल ने कहा है, नरोदा गाम मामले में 12 साल की लड़की समेत हमारे 11 नागरिक मारे गए थे। 21 साल बाद सभी 67 अभियुक्त बरी कर दिये गये हैं। ऐसे में उन्होंने सवाल पूछा है, क्या हमें कानून के शासन के लिए खुशी मनानी चाहिए या उसके निधन पर दुख मनाना चाहिए। पर क्या आपको लगता है कि अखबारों के लिए यह कोई मुद्दा है?

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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