पहला पन्ना: TOI ने जंतर-मंतर पर दंगाई नारे की ख़बर छिपाई पर मुल्ज़िम की सफ़ाई हाईलाइट कर दी

इस खबर की एक खासियत बीच में बड़े फौन्ट में हाइलाइट किया गया अंश है, उपाध्याय कहते हैं, (उपाध्याय जी को जानने के लिए मुझे पूरी खबर पढ़नी पड़ी, उनके बारे में आगे बताता हूं) अगर वीडियो सही हैं (यह शर्त कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के मामले में थी कि नहीं मैं नहीं जानता पर वीडियो की सत्यता के कई किस्से सुने हैं) तो पुलिस को जांच करनी चाहिए। न तो मैं वीडियो में दिख रहे व्यक्तियों को जानता हूं और ना मैंने उन्हें बुलाया था। खबर पढ़ने से पता चला कि उपाध्याय जी का पूरा नाम अश्विनी उपाध्याय है। वे भाजपा के पूर्व प्रवक्ता हैं और इस प्रदर्शन के आयोजक हैं और यह पुलिस की जानकारी में है जबकि पुलिस ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी।

आज मेरे पांच में से चार अखबारों में पहले पन्ने पर यह खबर है कि रक्षा मंत्रालय ने पेगासुस बनाने वाली कंपनी से कोई लेनदेन नहीं किया है। भले ही यह संसद में पूछे गए सवाल का वाब है और छोटे रक्षा मंत्री ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि भारत के रक्षा मंत्रालय ने पेगासुस से कोई लेनदेन नहीं किया है पर पेगासुस जासूसी मामले में इस जबाव का कोई मतलब नहीं है। रक्षा मंत्री ने रक्षा मंत्रालय के बारे में कहा है भारत सरकार के बारे में नहीं और वैसे भी जासूसी के लिए पेगासुस का मालवेयर अगर खरीदा गया होगा तो रक्षा मंत्रालय ने नहीं खरीदा होगा। और रक्षा मंत्रालय ने खरीदा होता तो बहुत पहले आराम से कहा जा सकता था कि रक्षा संबंधी कुछ सूचनाओं की पुष्टि के लिए यह जासूसी करवाई (या की) गई और फलां लोगों के फोन टैप किए गए। जिन लोगों के फोन टैप किए जाने की सूचना या आशंका है उससे बिल्कुल भी नहीं लगता है कि मामला रक्षा मंत्रालय से संबंधित हो सकता है फिर भी किसी ने किसी और मकसद से पूछा हो तो यह खबर (जो पूरी नहीं है) किसी काम की नहीं है और पहले पन्ने पर दो कॉलम में छापने का कोई मतलब नहीं है। आपको बता दूं कि इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को दो कॉलम में छापा है जबकि हिन्दू और हिन्दुस्तान टाइम्स में यह सिंगल कॉलम में है। द टेलीग्राफ में यह पहले पन्ने पर नहीं है।  

आज दिलचस्प यह है कि जंतरमंतर पर प्रदर्शन और उसमें भड़काऊ सांप्रदायिक नारे लगाने की खबर दिल्ली के अखबारों में आज भी पहले पन्ने पर नहीं है। कोलकाता के टेलीग्राफ ने इसे पहले पन्ने पर छापा है। इस खबर के मुताबिक सोमवार शाम तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई थी। पूरी खबर की चर्चा करने से पहले आपको यह बता दूं दिल्ली जैसे शहर में जंतर मंतर पर प्रदर्शन हो और पुलिस कहे कि उससे अनुमति नहीं ली गई थी और उसमें सांप्रदायिक नारे लगें तथा 24 घंटे बाद भी कोई गिरफ्तारी नहीं हो, आयोजक का नामपरिचय मालूम हो तो खबर पहले पन्ने की क्यों नहीं है? वह भी तब जब आप सरकारी विज्ञप्ति या संसदीय कार्यवाही की खबर को प्रमुखता से छाप रहे हैं जो खबरों की किसी भी परिभाषा के अनुसार खबर नहीं है। पहले पन्ने लायक तो बिल्कुल नहीं। टेलीग्राफ में आज इस खबर का शीर्षक है, दि अगली इंडियन थ्राइव्स नीयर सीट ऑफ पावर वैसे तो अंग्रेजी के अगली का मतलब हम सब बदसूरत जानते हैं पर यहां बदसूरत का कोई मतलब नहीं है, बदमिजाज जरूर फिर बैठता है। लिहाजा, मैंने डिक्सनरी और गूगल से चेक किया तो मुझे दूसरा उचित शब्द मिलादुष्ट। 

इस लिहाज से शीर्षक का हिन्दी अनुवाद होगा, दुष्ट भारतीय सत्ता के निकट फलताफूलता है। यह शीर्षक पूरी तरह स्पष्ट है और दूसरे अखबार खबर को चाहे जितना छिपाएंदबाएं मामला यही लगता है। वैसे तो घटना के आपत्तिजनक हिस्से का वीडियो इतवार से ही वायरल है, पर कल मैंने इसका जिक्र नहीं किया था क्योंकि खबर किसी अखबार में नहीं थी। आज टेलीग्राफ ने वो नारे भी छाप दिए हैं और मेरा मानना है कि लोगों में दिल्ली शहर में ऐसे नारे लगाने की हिम्मत है, यही पुलिसप्रशासन की ताकत या पक्षपात बताने के लिए पर्याप्त है। आप जानते हैं कि पहले भी ऐसे नारे लगाने वालों के खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई नहीं हुई है इसलिए ऐसे लोगों का मनोबल बढ़ा हुआ है और यह यूं ही नहीं है। दिल्ली में बिना अनुमति ऐसे आयोजन कर लेना अपने आप में सामान्य नहीं है और सब कुछ होने के बावजूद आयोजक को गिरफ्तार नहीं किया जाए यह भी कम असामान्य नहीं है। और टेलीग्राफ का शीर्षक इसी ओर इशारा कर रहा है कि दुष्ट लोग सत्ता के आसपास फलतेफूलते हैं यानी उनकी दुष्टता को संरक्षण मिलता है।

टेलीग्राफ ने अपनी खबर में लिखा है कि ये लोग अगर सत्ता के नशे में नहीं थे तो घृणा के नशे में जरूर थे और एक ऐसे एजंडा का मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जो हाल के वर्षों में गति पकड़ता रहा है। जो तीन नारे लगाए गए वे इस प्रकार हैं, 1. जब मुल्ले काटे जाएंगे, राम राम चिल्लाएंगे 2. बंद करो, बंद करो, मुल्ले का व्यापार बंद करो 3. हिन्दुस्तान में रहना होगा, जय श्रीराम कहना होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि सार्वजनिक रूप से (जब वीडियो भी बन रहे हों) ऐसे नारे लगाने की हिम्मत सबको नहीं होगी। और घर में आदमी चाहे जितनी तकलीफ में हो जेल में उससे बेहतर स्थिति मिलने की उम्मीद भी सबको नहीं होगी कि वह जेल जाने से नहीं डरे। फिर भी कोई ऐसे नारे लगा ले रहा है और मौके पर पकड़ा या रोका नहीं जा रहा है तो आप समझ सकते हैं कि हालात कैसे हैं। शायद इसीलिए, कुछ दिनों से प्रधानमंत्री को उनकी शपथ याद दिलाई जा रही है लेकिन जानकारों का कहना है कि यह सब चुनाव के लिए सांप्रदायिक ध्रवीकरण का प्रयास है। टेलीग्राफ के रिपोर्टर ने यू ट्यूब चैनल, नेशनल दस्तक के रिपोर्टर अनमोल प्रीतम का हवाला दिया है और हाईलाइट किया है, अचानक कोई 150 लोगों ने मुझे घेर लिया। एक लंबे चौड़े आदमी ने मुझे अपनी बांह में दबाया और कहा, तेरे मुंह में दही जम गई है कि जय श्रीराम नहीं बोलेगा  

अखबार ने लिखा है कि ऐसे ही नारों के बाद गए साल दिल्ली में दंगे हुए थे जिसमें 53 लोग मारे गए। दिल्ली अल्पसंख्यक पैनल ने दंगे पर अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पुलिस इसमें शामिल थी और हमलों को बढ़ावा दिया (वह दिल्ली चुनाव का समय था) अखबार ने लिखा हैप्रीतम ने कहा कि पुलिस वाले मूक दर्शक बने रहे। सोमवार को दिल्ली पुलिस जो अब विवादस्पद पूर्व सीबीआई अधिकारी राकेश अस्थाना के नेतृत्व में है जो सोमवार को अपनी अवचेतन समझी जाने वाली स्थिति से सक्रिय हुए। पुलिस ने अनजानेलोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई है। सोमवार शाम तक किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया गया था। दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है जिसके प्रमुख अब अमित शाह है।

आप जानते हैं कि बंगाल चुनाव से पहले भाजपा ने तृणमूल पर हिंसा का आरोप लगाया था। वहां दंगा भले नहीं हो पाया और भाजपा चुनाव हार गई तो तृणमूल पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाया। इसमें राज्यपाल भी कूद गए और तभी शांत हुए जब उनपर जैन हवाला घोटाले में धन लेने वालों में शामिल होने का आरोप लगा और यह भी कि उन्होंने अपने पूरे कुनबे को राजभवन में नौकरी दे रखी है। खंडन करने के बाद आक्रामकता में कमी आने से जाहिर है कि मामला वैसे नहीं चला जैसे वे चाहते थे। जो भी हो, यह कोई नई बात नहीं है और  ही भाजपा को मिल रहे मीडिया के सहयोग में कुछ नया है।  

टाइम्स ऑफ इंडिया में आज इस संबंध में नगर पन्ने पर बड़ी सी खबर है। इसका शीर्षक है, “पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है और अपराधियों को पकड़ने के लिए छापे मार रही है।इस खबर की एक खासियत बीच में बड़े फौन्ट में हाइलाइट किया गया अंश है, उपाध्याय कहते हैं, (उपाध्याय जी को जानने के लिए मुझे पूरी खबर पढ़नी पड़ी, उनके बारे में आगे बताता हूं) अगर वीडियो सही हैं (यह शर्त कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के मामले में थी कि नहीं मैं नहीं जानता पर वीडियो की सत्यता के कई किस्से सुने हैं) तो पुलिस को जांच करनी चाहिए।  तो मैं वीडियो में दिख रहे व्यक्तियों को जानता हूं और ना मैंने उन्हें बुलाया था। खबर पढ़ने से पता चला कि उपाध्याय जी का पूरा नाम अश्विनी उपाध्याय है। वे भाजपा के पूर्व प्रवक्ता हैं और इस प्रदर्शन के आयोजक हैं और यह पुलिस की जानकारी में है जबकि पुलिस ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी। मुझे नहीं पता कि बिना अनुमति प्रदर्शन आयोजित करने और उसमें बिना बुलाए लोगों के शामिल होने, आपत्तिजनक नारे लगने के बावजूद अनजान बने रहने और वीडियो देखकर यह कहने कि मैं किसी को नहीं पहचानता ना बुलाया थामें कानून का कितना उल्लंघन होता है या होता भी है कि नहीं। खबर के अनुसार उपाध्याय जी वकील हैं। इसलिए वे मुझसे बेहतर जानते होंगे। पुलिस अपना सोचे।

लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया ने इतनी प्रमुखता क्यों दी यह मैं नहीं समझ पाया। खबर में लिखा है कि उपाध्याय जी ने यह सब एक वीडियो संदेश में कहा है। मतलब आपत्तिजनक नारे लगे तो खबर नहीं (अंदर के पन्ने पर थी कि नहीं मुझे याद नहीं है) लेकिन बचाव हाइलाइट करके। जय हो।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।     

 

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