आर्थिक स्थिति पर वित्त मंत्री के नए आरोप सरकार की नालायकी बताते हैं

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का ओला-उबर जैसा एक नया बयान आज हिन्दी अखबारों में उतनी प्रमुखता से, वैसे ही शीर्षक के साथ नहीं छपा है जैसे पहले छपा था। इसके कई कारण हो सकते हैं पर वह महत्वपूर्ण नहीं है। मुद्दा यह है कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी में वित्त मंत्री ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रिजर्व बैंक के पूर्व गवरनर रघुराम राजन के जमाने में सरकारी बैंकों की हालत सबसे खराब थी। न्यूयॉर्क की यह खबर हिन्दी अखबारों में एजेंसी की है और अंग्रेजी अखबारों में संवदादाता की या संवाददाता की टिप्पणी के साथ। वैसे तो निर्मला सीतारमण का यह कहना और इसका शीर्षक बनना ही हास्यास्पद है कि उस समय हालत ज्यादा खराब थी।

क्या आपने सुना कि उन दिनों बैंक से पैसे नहीं मिलने के कारण कोई मर गया था। क्या आपने उन दिनों बैंकों या एटीएम के बाहर लाइन देखी थी? क्या उन दिनों किसी बैंक के खाता धारक से कहा गया था कि आप अपने खाते से छह महीने में एक हजार रुपए ही निकाल सकेंगे? क्या उन दिनों कोई सरकारी आदेश रोज बदलता था? क्या उन दिनों वह सब हुआ जो नोटबंदी के दौरान हुआ जिसे गोलपोस्ट बदलना कहा गया। अगर यह सब कुछ नहीं हुआ तो सरकारी बैंकों की हालत सबसे खराब कैसे थी?

आमतौर पर यही होता है कि मंत्री कुछ भी कह दें और अखबार वाले उसी सुर्खी बना देते हैं। भले ही यह देश के एक प्रतिशत लोगों द्वारा 200 रुपए की फिल्म का टिकट खरीदना हो या निजी कार छोड़कर टैक्सी में चलने वाली कार से लोगों के चलने पर कारों की बिक्री कम हो जाने जैसा मूर्खतापूर्ण तर्क हो। आज ऐसी ही एक और मूर्खतापूर्ण खबर को अखबारों में वैसी प्रमुखता नहीं मिली है। इस खबर के मुताबिक, वित्त मंत्री कोलंबिया यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स में भारत की आर्थिक नीतियों पर लेक्चर दे रहीं थीं। उन्होंने कहा, सरकारी बैंकों को जीवनदान देना उनकी प्राथमिकता है।

यह इस तथ्य के बावजूद कि भाजपा सरकार के आने के बाद भारतीय महिला बैंक चुपचाप बंद हो गया। भाषण के इस मौके पर नीति आयोग के पूर्व-उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया भी मौजूद थे। वित्त मंत्री ने कहा, मैं रघुराम राजन को विद्वान मानती हूं और उनका आदर करती हूं। उन्होंने ऐसे समय रिजर्व बैंक में पद संभाला जब देश की अर्थव्यवस्था अच्छे रूप में थी। लेकिन उनके कार्यकाल के दौरान करीबी नेताओं के सिर्फ एक फोन कॉल पर लोन दे दिए जाते थे। सरकारी बैंक अब तक उस दलदल से बाहर आने के लिए सरकार के इक्विटी इनफ्यूजन पर आश्रित हैं। राजन ने असेट क्वालिटी रिव्यू जरूर किया, लेकिन आज बैंकों की जो हालत है वह उस समय से शुरू हुई है।

वित्त मंत्री की मुख्य शिकायत यही लगती है, “उनके कार्यकाल के दौरान करीबी नेताओं के सिर्फ एक फोन कॉल पर लोन दे दिए जाते थे।” अगर आवश्यक जांच और पात्रता के बिना सिर्फ फोन कॉल पर कर्ज दिए जाते थे तो निश्चित रूप से यह गलत है और जरूरी हो तो ऐसे मामलों में कार्रवाई भी की जानी चाहिए। पर भाजपा सरकार जब खुद लोन मेला लगाने की बात कर रही है, मुद्रा लोन दिए जा रहे हैं, नोटबंदी के समय करोड़ों रुपए के नोट अवैध तरीके से बदलने के आरोपों का जवाब नहीं है तो इस आरोप का क्या मतलब?

अगर आरोप लगाना ही था को संपूर्ण विवरण के साथ लगाया जाना चाहिए हालांकि उससे भी बेहतर होता कि कार्रवाई की जाती। दूसरी ओर, नियमानुसार कर्ज लेकर नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या होने से क्या अच्छा नहीं है कि फोन पर दिए और लिए गए कर्ज की किस्ते आ रही हों। ऐसे मामलों में स्थिति क्या है यह भी नहीं बताना और सिर्फ आरोप लगा देना घटिया राजनीति और गोदी मीडिया के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं है।

अंग्रेजी अखबारों में हिन्दुस्तान टाइम्स ने बताया है कि राजन के समय ही एनपीए बढ़ने की जांच हुई थी और नौ लाख करोड़ रुपए के एनपीए का पता चला था। इसके बाद ही इसे दुरुस्त करने का अभियान चला। समस्या इसके बीच नोटबंदी से हुई और इस दौरान भारी भ्रष्टाचार से लेकर सरकारी नालायकी के सैकड़ों मामलों पर वित्त मंत्री चुप हैं और एक हवा-हवाई आरोप लगा रही हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है कि पूर्व वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेटली ने इस संबंध में एक ब्लॉग में ऐसा ही आरोप लगाया था।

11 फरवरी 2016 को सीआईआई के सम्मेलन में राजन ने बताया था कि उन्होंने जो ऐसेट क्वालिटी समीक्षा (एक्यूआर) करवाई थी उसका क्या मतलब था। उनके मुताबिक इससे बैंक आवश्यक सुधार कर सकते थे (जो भाजपा सरकार में नहीं हुए और ऊपर से नोटबंदी तथा फिर जीएसटी थोप दिया गया)। निर्मला सीतारमण का फूहड़ तर्क (और भाजपा सरकार का बचाव) है, “वे एक्यूआर के लिए राजन की आभारी हैं पर जनता को जानना चाहिए कि आज बैंक क्यों बीमार हैं” (हिन्दुस्तान टाइम्स)। अगर ऐसा ही है तो उन्हें बताना चाहिए कि पीएमसी की ऐसी हालत क्या उसी कारण से है। फिर भी रिजर्व बैंक को कार्रवाई करने में छह वर्ष से ज्यादा लग गए?

अंग्रेजी अखबारों में इंडियन एक्सप्रेस को छोड़कर मैं जो चार अखबार देखता हूं सबने इस खबर को अंदर के पन्ने पर रखा है। द टेलीग्राफ ने तो शीर्षक से ही इस खबर की हवा निकाल दी है और शीर्षक लगाया है, “खराब कर्ज का अभियान दो पुराने दिग्गजों के खिलाफ भी”। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को बिजनेस की खबरों के पन्ने पर लिया है लेकिन शीर्षक वही है जिसकी चर्चा मैंने की और जो हिन्दी के अखबारों में है। हिन्दुस्तान टाइम्स की चर्चा मैं पहले कर चुका हूं। इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को पहले पन्ने पर लिया है। शीर्षक वही है। उपशीर्षक है, लोकतांत्रिक नेतृत्व ने भ्रष्टाचार का बहुत गंदा प्रभाव छोड़ा है। कहने की जरूरत नहीं है कि निर्मला सीतारमण के भाषण में लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली से उनकी नाराजगी का भी अहसास होता है और वे तानाशाही का समर्थन करती लगती हैं।

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