लखनऊ : जाति समीकरण में राजनाथ के बिगड़ चुके खेल को कांग्रेस ने कैसे पटरी पर ला दिया

हिन्दुओं में परंपरागत रूप से पढ़ा-लिखा समुदाय यानी कायस्थ समुदाय राजनीतिक तौर पर मूर्ख और कमजोर बना रहे, इसके लिए भाजपा ने आजकल राष्ट्रवाद का सारा ठेका कायस्थों को ही सौंप दिया है। ये बात अलग है कि उस राष्ट्रवाद का झंडा उठाने के एवज में कायस्थ समुदाय के बाहुल्य वाले इलाकों में भी उन्हें टिकट देने को भाजपा कदापि तैयार नहीं होती। अब जबकि सपा व बसपा ने भाजपा के धरतीविहीन मगर सबसे बड़े नेताओं में से एक राजनाथ सिंह के खिलाफ शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को लखनऊ की सीट से उतार दिया है, तो भाजपा समर्थक या भाजपा के राष्ट्रवाद के नाम पर खुल कर जातिवाद करने वाले अन्य सवर्ण मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कायस्थ भी जातिवाद के आधार पर वोट कर सकते हैं।

हकीकत यह है कि यूपी में इलाहाबाद, बनारस, कानपुर, जौनपुर, लखनऊ, मिर्जापुर, बरेली जैसे न जाने कितने शहरी व ग्रामीण-कस्बाई इलाकों की कई लोकसभा व विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जिन पर भाजपा को अगर विजय मिलती आई है तो उस विजय में मतदाताओं का सबसे बड़ा हिस्सा कायस्थों का ही रहा है। विपक्ष सिर पटक कर मर जाता है लेकिन कायस्थ भाजपा को ही वोट देकर राष्ट्र को मजबूत बनाने में लगे रहते थे। वह भी बिना अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट दिए।

ऐसा लगता है ‍कि अब वक्‍त बदल रहा है। कुछ बरसों से कायस्थ समुदाय एक जाति के तौर पर भी खुद को राजनीतिक तौर पर संगठित कर रहा है। उसे पता है कि अगर उसे डर है कि उसने ऐसा नहीं किया तो धीरे-धीरे शासन और प्रशासन के साथ राजनीति से भी वह लुप्त हो जाएगा। कमजोर तो वह पहले के मुकाबले काफी हो ही चुका है, इसलिए अब हिन्दुओं की बाकी जातियों की ही तरह उसने भी अपने लिए जाति आधारित टिकट और राजनीतिक पद मांगने शुरू कर दिए हैं।

जिस लखनऊ को कायस्थों का गढ़ कहा जाता है और इसीलिए भाजपा का भी गढ़ माना जाता है, वहां भी राजनाथ सिंह जैसे गैर-कायस्थ उम्मीदवार को भाजपा टिकट देकर लड़ाती है, जो लखनऊ के अलावा कहीं से जीतने लायक नहीं हैं। इसी तरह इलाहाबाद या बनारस आदि कायस्थ बाहुल्य सीटों से भी भाजपा अपने बड़े लेकिन गैर-कायस्थ नेताओं को ही उतारती आई है ताकि वह कायस्थों के वोट के सहारे जीतकर अपनी लाज बचा सके। कायस्थों के वोट के दम पर चुनाव जीतकर देश चलाने वाले ये नेता खुलेआम अपनी-अपनी जातियों के लोगों को सरकारी नौकरी/ठेका, राजनीतिक पद आदि फायदे पहुंचाते हैं।

इस पृष्‍ठभूमि में देखें तो लखनऊ में इस बार लड़ाई बहुत दिलचस्प हो गई है। बीस साल से ज्यादा वक्त से जिस सीट पर भाजपा का ही कब्जा रहा, आज वह भी भाजपा के हाथ से निकलने के कयास लगाए जाने लगे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को जब सपा बसपा गठबंधन ने अपना उम्मीदवार घोषित किया गया था, उस वक्त तो ऐसा लगा कि राजनाथ सिंह अब यह सीट हार ही जाएंगे क्योंकि शत्रुघ्न खुद पटना साहिब से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं इसलिए यह मान लिया गया था कि कांग्रेस भी शत्रुघ्न की पत्नी पूनम को अपना समर्थन दे देगी। लेकिन पूनम का नाम घोषित होते ही अचानक कांग्रेस ने भी आनन-फानन में आचार्य प्रमोद कृष्णन का नाम घोषित करके सबको चौंका दिया। ऐसा करके उसने निस्‍संदेह राजनाथ सिंह की ही मदद करने की कोशिश की है ताकि लड़ाई त्रिकोणीय हो जाए और सपा बसपा गठबंधन के जरिए पूनम सिन्हा को मिलने वाले एकतरफा मुस्लिम वोट बंट जाएं।

कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया? क्‍या वह राजनाथ की राह आसान करना चाहती है? इसका राज़ शायद राजनाथ के उस गृहमंत्री पद में छिपा हो, जिसके जरिए वे पिछले पांच साल तक कांग्रेस के मुखिया परिवार को मोदी और शाह के प्रकोप से बचाते रहे। बहरहाल, अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या आचार्य प्रमोद कृष्णन के आने से पूनम सिन्हा के दमखम पर कोई असर पड़ेगा? या फिर लखनऊ के मुस्लिम, पिछड़ा और दलित एकतरफा वोटिंग करके पूनम सिन्हा को वहां तक पहुंचा देंगे जहां से जीत बहुत दूर नहीं रह जाएगी? अगर इतना भर हो गया तो बाकी का काम खुद पूनम सिन्‍हा को करना होगा। अपनी उस जातिगत खूबी के जरिए, जिसे देख कर उन्हें यहां से गठबंधन का उम्मीदवार बनाया गया है- यानी शादी से पहले सिंधी परिवार में जन्मी पूनम को लखनऊ के डेढ़ लाख सिंधी वोटरों में और चार लाख कायस्थ वोटरों में सेंध लगाकर कम से कम एक डेढ़ लाख मत तो भाजपा के वोट बैंक से घसीट ही लाने हैं।

जाहिर है, आचार्य को कांग्रेस का टिकट मिलने के बावजूद इतना तो तय है कि सिंधी और कायस्थ मतदाता भाजपा को छोड़कर कहीं जाएगा तो वह पूनम ही होंगी और कोई नहीं। इसलिए कम से कम पूनम के अपने जातिगत वोट पर आचार्य के आने का कोई असर नहीं है। रही बात सपा बसपा के दलित/पिछड़े और मुसलमान वोटों के कांग्रेस में जाने या न जाने की, तो उन लोगों पर आश्‍चर्य होना चाहिए जो आशंका जता रहे हैं कि मुस्लिम वोट कांग्रेस में आचार्य को भी पड़ेगा क्योंकि आचार्य जमीनी नेता हैं और उनकी पकड़ मुसलमानों में भी है। यह उसी तरह की खामख्याली है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थकों को थी कि उन्हें मुसलमान भी वोट करता है।

मुस्लिम मतदाता वहीं वोट देगा जहां उसे पता होगा कि अन्य हिन्दू जातियों का वोट भी मिलेगा। उसे पता है कि भाजपा में सवर्ण मतों का ध्रुवीकरण होना है। उसे यह भी पता है कि सपा बसपा के पास अपना वोटबैंक यानी दलित-पिछड़ा वोट है। इसी तरह पूनम सिन्हा को अपनी जाति कायस्थ का वोट डलवाने के लिए लखनऊ में जब शत्रुघ्न सिन्हा और सोनाक्षी सिन्हा घूमेंगे व उनके साथ कायस्थ महासभा के नेता भी होंगे तो कुछ नहीं तो लाख दो लाख कायस्थ वोट वह भी बटोर ही लाएंगी। साथ ही कुछ सिंधी वोट भी उन्हें मिलेगा, इसमें भी कोई शक नहीं है। दूसरी तरफ, आचार्य को वोट करने वाला हिन्दू समुदाय कोई है ही नहीं। पिछड़ा और दलित वोट सपा और बसपा के पास से हिलने से रहा। इस परिदृश्य में मुसलमान अपना वोट एकतरफा सपा बसपा को ही देने को मजबूर हो जाएंगे।

इसलिए जरा चुनावी शाम और ढलने तो दीजिए। अवध की दिलकश फिज़़ा में शत्रुघ्न सिन्हा की बुलंद आवाज और सोनाक्षी सिन्हा का ग्लैमर घुलने-मिलने दीजिए। फिर आप राजनाथ सिंह के चेहरे के बदलते रंग को देखकर साफ़ बता देंगे कि अपनी आदत के मुताबिक इस बार लखनऊ से भी वह दोबारा न लड़ते तो ही अच्छा रहता।


लेखक लखनऊ में बिजनेस स्‍टैंडर्ड हिंदी के स्‍थानीय संपादक रह चुके हैं। दिल्‍ली के पत्रकारिता संस्‍थानों में डेढ़ दशक तक अपनी सेवाएं देने के बाद आजकल लखनऊ में व्‍यवसाय कर रहे हैं।

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