यह हमारे लिए सुखद आश्चर्य की बात थी कि इस्माइलपुर जैसे दियारा के इलाके में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र न सिर्फ खुला था, बल्कि वहां डॉक्टर भी मौजूद थे. स्वास्थ्य केंद्र का भवन वैसे तो काफी पुराना और जर्जर था, मगर सुबह सवा दस बजे से वहां काम चल रहा था. जाहिर सी बात है डॉक्टर साहब भी दस किलोमीटी लंबी उसी जर्जर सड़क से चलकर यहां पहुंचते होंगे, जिस सड़क से हम पहुंचे थे. मगर यह यहां काम करने की उनकी तकलीफों का एक छोटा सा हिस्सा था. जब उन्होंने अपनी और इस अस्पताल की समस्याओं के बारे में बताना शुरू किया तो हम चकित रह गये.
सबसे पहले उन्होंने दीवार पर उंगलियों से इशारा किया कि हर साल इस अस्पताल में बाढ़ का पानी भर जाता है और कमरे में इस ऊंचाई तक पहुंच जाता है. फिर उन्होंने कहा, ‘’बाढ़ का मौसम आते ही यह अस्पताल पास में स्थित गंगा के तटबंध पर शिफ्ट हो जाता है और वहां कैंप बनाकर लोगों का इलाज किया जाता है’’. डॉक्टर साहब वहां नए-नए आये थे, जाहिर है वे सुनी-सुनाई बात ही बता रहे थे. उनके पास केयर संस्था के कुछ स्पेशलिस्ट थे, जो इस अस्पताल से कुछ वर्षों से जुड़े थे. उन्होंने बताया कि बाढ़ आने पर जिस तरह इस पूरे इलाके के लोग टेंट या प्लास्टिक टांग कर तटबंध पर शरण लेते हैं, उसी तरह अस्पताल को भी वहां शरण लेना पड़ता है. अमूमन तीन से चार महीने. तब न सिर्फ वहां मरीजों का इलाज चलता है, बल्कि गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी भी होती है.
यह कहानी भागलपुर लोकसभा क्षेत्र के इस्माइलपुर दियारा इलाके की है, वह भागलपुर जो इस बार दो गंगापुत्रों की लड़ाई का गवाह बनने जा रहा है, दोनों गंगापुत्र यानी गंगौता जाति के उम्मीदवार- महागठबंधन के बुलो मंडल और एऩडीए के अजय मंडल इसी दियारा इलाके के रहने वाले हैं. बुलो मंडल का गांव गंगा से सटे खरीक प्रखंड में पड़ता है जबकि अजय मंडल गंगा के उस पार कहलगांव के दियारा इलाके के रहने वाले हैं. गंगा के दियारा इलाकों की सच्चाई यही है कि यहां आज भी कई इलाकों में गंगापुत्रों का जन्म तटबंध पर बने अस्थायी अस्पताल के कैंप में होता है.
दियारा की कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती. यह तो संघर्षों का इलाका है. इस यात्रा में मेरे साथ चल रहे भागलपुर के स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार विनीत बताते हैं कि हर साल कई गांव कट कर गंगा की गोद में समा जाते हैं और वहां के बाशिंदे बसने के लिए यहां-वहां भटकने लगते हैं. कहीं ठौर मिलता है तो वहीं फिर से उसी नाम से अपना गांव बसा लेते हैं. अब जैसे इस्माइलपुर दियारा के ही कमलाकुंड गांव की बात ले लीजिये. यह गांव तीन बार अलग-अलग बसा और हर बार गंगा की गोद में समा गया. अब चौथी बार इस गांव के निवासी इस्माइलपुर प्रखंड मुख्यालय के पास बसे हैं. बड़ा-सा गांव एक छोटे-से मोहल्ले में सिमट गया है, जहां रहने के लिए दो-चार डिसमिल जमीन मिली है. लोग उसे ही कमलाकुंड गांव कहते हैं और इस पंचायत की तमाम योजनाएं भी छोटे से इस मोहल्ले में ही संचालित होती हैं. रहने को जमीन तो मिल गयी है, मगर खेत नहीं हैं. खेत गंगा में है. जब कभी गंगा की धारा थोड़ी खिसकेगी तो उनकी जमीन बाहर निकलेगी. फिर वहां कब्जे को लेकर लड़ाई औऱ खून-खराबा होगा. बंदूकें गरजेंगी और लाशें गिरेंगी. भागलपुर के गंगा दियारा के इलाके में यह सब बहुत आम है. यहां रहने का मतलब लाठी को तेल पिलाते रहना है.
भागलपुर जिले के अधिकांश ग्रामीण इलाके गंगा नदी के ही किनारे बसे हैं. जिले के 16 प्रखंडों में से 12 में दियारा के इलाके हैं. इनमें से इस्माइलपुर, पीरपैंती और नाथनगर प्रखंड गंगा की मार सर्वाधिक झेलता है और अब तक पांच से सात पंचायत गंगा नदी में विलीन हो चुके हैं. इस्माइलपुर प्रखंड में तो पांच में से दो पंचायतें गंगा नदी में ही समायी हुई हैं.
अब तक भागलपुर लोकसभा क्षेत्र में शहरी उम्मीदवारों का जलवा रहता था. पहली दफा यहां से खड़े दोनों उम्मीदवार ठेठ देहात के रहने वाले हैं. इससे पहले सुशील कुमार मोदी, अश्विनी चौबे और शाहनवाज हुसैन जैसे नेता यहां से चुनाव लड़ते रहे हैं, मगर 2014 में जब मोदी की लहर में भी इसी इस्माइलपुर के गंगौता नेता बुलो मंडल ने शाहनवाज हुसैन को धूल चटा दी तो 2019 में एनडीए को भी सोचना पड़ा कि मुकाबले में किसी गंगापुत्र को ही उतारा जाये. सीट जदयू को मिली और उसने अजय मंडल को उतारा जो पहले कहलगांव से एमएलए रह चुके हैं. लिहाजा अब मैदान में दोनों तरफ से गंगापुत्र ही हैं, दियारा की संतानें ही हैं. क्या इससे गंगा के दियारा इलाके में बसे लोगों का जीवन सुधरेगा?
सवाल यह भी है कि पांच साल से गंगापुत्र बुलो मंडल इस इलाके के सांसद हैं. उन्होंने दियारा की तस्वीर बदलने के लिए क्या किया? अजय मंडल भी कहलगांव के विधायक रह चुके हैं, उनके खाते में अपने इलाके के विकास का कौन सा काम है? गंगा के हमलावर किनारे में बसे इस्माइलपुर प्रखंड का तो हाल यह है कि यहां के थाने में भी पुलिसकर्मी खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं. हर साल उनका थाना भी बाढ़ में डूबता है. यहां के ज्यादातर सरकारी संस्थानों में लोग नियमित नहीं आते क्योंकि आज भी यहां पहुंचने का रास्ता काफी खराब है. लिहाजा लोगों को सरकारी योजना का लाभ भी सबसे आखिर में मिलता है और कई बार नहीं भी मिलता है. पलायन, अशिक्षा और हिंसा ही आज भी इन इलाकों की पहचान है.
स्थानीय लोग बताते हैं कि 2015 के विधानसभा चुनाव में इस्माइलपुर में लोगों ने वोट बहिष्कार भी किया था. सुविधाओं की मांग को लेकर. मगर वह बहुत प्रभावी नहीं रहा और उसका बाद कोई असर भी नहीं हुआ. समस्याएं जस की तस रह गयीं.
आवाज बुलंद, बोली कड़ी और खरी, स्वभाव से अक्खड़. यह दियारा इलाके के लोगों की पहचान है. इस वजह से दियारा का आदमी किसी को भी दबंग लग जाता है. दोनों के खिलाफ छिटपुट आपराधिक मुकदमे भी हैं. बुलो मंडल अधिकारियों को धमकाते भी रहे हैं. ऐसे में जाहिर है कि शहरी मतदाता इन दोनों उम्मीदवारों से भड़के हुए हैं और नोटा का मन बना रहे हैं. मगर दियारा इलाके में इस बात को लेकर उत्साह है कि इस बार कोई न कोई गंगौता ही जीतेगा. सवाल यह भी है कि क्या गंगौता या गंगापुत्र के जीत जाने से इस इलाके की तसवीर बदलेगी, क्या आने वाले दिनों में कोई बच्चा तटबंध पर पैदा नहीं होगा, उसे अस्पताल में सुविधाओं के बीच जन्म लेने का मौका मिलेगा? क्या इस इलाके तक विकास की रोशनी पहुंचेगी, क्या यहां होने वाला खून-खराबा बंद होगा?
सबसे अहम सवाल यह है कि क्या यहां के वोटरों के मन में भी यही सवाल है?