परचाधारी का नाम- फुलेना माझी
कब परचा मिला- 1981 में
कितनी जमीन का- एक एकड़ का
कब्जा मिला- आज तक नहीं
फुलेना माझी कहां हैं- दो साल पहले गुजर गये. अब बाबूजी तो 38 साल तक कागज का टुकड़ा देख-देख कर संतोष करते रहे और जमीन पर कब्जा हासिल करने के लिए यहां-वहां दौड़ते रहे. अब हम लोग तीनों भाइयों की बारी है. देखना है, यह सरकारी कागज कब असली जमीन बनता है.
यह बातचीत चंपारण के प्रसिद्ध भितिहरवा पंचायत के बैरटवा गांव में हुई. चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के आयोजन के बाद पश्चिमी चंपारण से सटा भितिहरवा आश्रम बिहार में गांधी तीर्थ के रूप में मशहूर है. उस आश्रम सह संग्रहालय में आये दिनों सत्य, अहिंसा, गांधी और सत्याग्रह जैसे विषयों पर सेमिनार आयोजित हुआ करते हैं. मगर जिस चंपारण में गांधी ने किसानों के जमीनी सवाल पर 102 साल पहले सत्याग्रह किया था, उसी चंपारण के भितिहरवा और आसपास के दो और पंचायतों के 108 भूमिहीन किसान 38 साल से कागज का टुकड़ा लिये इस इंतजार में है कि एक रोज यह कागज का टुकड़ा असली जमीन में बदलेगा.
उसी भितिहरवा पंचायत में 250-250 सौ एकड़ के भूधारी भी हैं. और उसी चंपारण में चीनी मिलों के पास 5200 एकड़ के फार्म आज भी हैं और सरकारें चाह कर भी इस जमीन को सीज नहीं कर पा रही हैं. सौ साल पहले तो सत्याग्रह के सामने अंग्रेज सरकार झुक जाती थी, अब इसी चंपारण में सत्याग्रह भी नाकाम हो रहे हैं.
चुनावी कवरेज के सिलसिले में पिछले दिनों चंपारण के इलाके में था तो ऐसे ही एक सत्याग्रही महादेव बैठा मिल गये. उनके साथ चंपारण के कई गांवों में घूमना हुआ. उन इलाकों में भी जहां 200-250 एकड़ जमीन वाले भू-धारियों की खेती सुपरवाइजर करवाते हैं और चीनी मिल के उन फार्म हाउसों में भी जहां आज भी 60 रुपये और 100 रुपये रोजाना के दर से मजदूर खटते हैं और उनकी हालत उन सौ साल पुराने किसानों से बेहतर नहीं है, जिन पर अंग्रेज नीलहों ने तिनकठिया लाद रखी थी.
बैरटवा गांव जाने के रास्ते में ऐसा ही एक फार्म मिला, जिसके मालिक किसी महानगर में रहते थे. उनका सुपरवाइजर खेती करवा रहा था. थारू महिलाएं केरल वाली छतरी सिर पर पहन कर खेत कोड़ रही थीं. वहीं बैरटवा गांव में लोगों ने बताया कि उनके पास इतनी कम जमीन है (एक-एक, दो-दो डिसमिल) कि वे ठीक से सो भी नहीं पाते. मेहमान आ गये तो उन्हें सड़क पर या बगीचे में सुलाना पड़ता है. आज भी खेतिहर उन्हें छह किलो अनाज देकर दिन भर मजदूरी करवा लेते हैं.
फिर महादेव बैठा हमें एक ऐसे फार्म हाउस पर ले गये जो हरिनगर चीनी मिल के स्वामित्व के अधीन है. वहां हमें चीनी मिल के कई स्टाफ मिले जो उस फार्म पर लोगों से खेती करवाते हैं. वहां काम करने वाले मजदूरों ने बताया कि बच्चों को 60 रुपये, महिलाओं को 80 रुपये और पुरुषों को 100 रुपये रोजाना की दर से मजदूरी दी जाती है.
इस पूरे मसले के बारे में जेपी सेनानी और सत्याग्रही नेता पंकज बताते हैं कि दरअसल चंपारण में नील की खेती बंद होने के बाद चीनी मिलें खड़ी हो गयीं. इन चीनी मिलों ने नील प्लांटरों से जमीन ले ली. उस वक्त सरकारों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि नील प्लांटर जो जमीन छोड़कर जा रहे हैं, वह गरीब भूमिहीनों के बीच बंटे. इसी वजह से आज चंपारण के नौ चीनी मिलों के पास बड़े-बड़े फार्म हैं, हजार एकड़ से लेकर 12 हजार एकड़ तक के, कुल 39 हजार एकड़ जमीन इन मिलों के पास है. जबकि कानून यह कहता है कि चीनी मिल सौ-सवा सौ एकड़ से अधिक जमीन अपने पास नहीं रख सकते.
पंकज जी लगातार इस मसले पर गांधीवादी तरीके से आंदोलन चला रहे हैं. वे कई बार शांतिप्रिय तरीके से जमीन पर कब्जा करने की कोशिश भी करते हैं, सरकार हर बार उनकी मांग पहले ही मान लेती है, मगर पूरा नहीं कर पाती. वे बताते हैं कि चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चाहते थे कि इन चीनी मिलों से जमीन लेकर भूमिहीन किसानों में बंटवा दें ताकि यह आयोजन सार्थक हो जाये. सरकार ने इस संबंध में आदेश भी जारी किया, मगर चीनी मिलें हाई कोर्ट चली गयीं.
वे बताते हैं कि जमीन का मसला इसलिए भी हल नहीं हो पा रहा क्योंकि बिहार में जमीन से जुड़ी नौ किस्म की अदालतें हैं. मामला एक अदालत से दूसरी अदालत में घूमता रहता है. कोई फैसला ही नहीं हो पाता जबकि दूसरे राज्यों में तीन या चार अदालतें ही हैं. यहां के भू-धारी और चीनी मिल मालिक इसी बात का फायदा उठा रहे हैं.
चंपारण के इलाके में तीन लोकसभा क्षेत्र है. वाल्मीकिनगर, पश्चिमी चंपारण औऱ पूर्वी चंपारण. मगर इन क्षेत्रों में 12 मई को हो रहे चुनाव में जमीन का सवाल कहीं नजर नहीं आता. यहां तक कि चीनी मिलों के भुगतान का सवाल भी मुद्दा नहीं है, जिस सवाल को लेकर ऐन चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के दिन मोतिहारी में दो किसानों ने खुदकुशी कर ली थी.
हम सरप्लस जमीन के सवाल को लेकर रामनगर में स्थित हरिनगर चीनी मिल प्रबंधन के कार्यालय में गये. उन्होंने हमें चाय पिलाई और मीठी बातें की, मगर सवालों का जवाब टाल गये. उन्हें मालूम है कि उन्होंने भारतीय संविधान के भीतर अपने लिए गुंजाइश तलाश ली है. यही वजह है कि चंपारण में आज भी जमींदार और निलहे प्लांटर हैं और भूमिहीन किसान चाह कर भी अपना हक हासिल कर नहीं पा रहे. न ही यह लोकतंत्र उन्हें उनका हक दिला पा रहा.
लेखक मीडियाविजिल के लिए बिहार के ज़मीनी हालात का जायज़ा ले रहे हैं