चुनावी मौसम है, हर लोकसभा क्षेत्र के अलग-अलग मुद्दे भी हैं. वोटर मुद्दों के बारे में बात भी कर रहे हैं, मगर इस दौरान आपने भूल से भी सहरसा के शहरियों से उनके सबसे बड़े मुद्दे के बारे में पूछ लिया तो वह आपसे नाराज भी हो सकता है, चिढ़ भी सकता है, आपको झिड़क भी सकता है. यह भी कह सकता है कि छोड़िये, कोई और बात करते हैं.
यहां के वोटर चुनाव के हर मसले पर बात करने के लिए तैयार हैं- पुलवामा यहां के चुनाव में मुद्दा है या नहीं यह भी बतायेंगे, लालू के जेल जाने का उनके वोटरों पर क्या असर है, जाति समीकरण क्या है, अच्छा प्रत्याशी कौन है, सब बतायेंगे- मगर वे अपने सबसे बड़े मुद्दे यानी शहर के ओवरब्रिज पर बात नहीं करना चाहेंगे. करेंगे भी तो यही कहेंगे कि ‘’अब ओवरब्रिज तो नहीं ही बनेगा, उसके बारे में बात करके क्या फायदा’’.
सहरसा के शहरवासियों का कहना सही है. 1994 से लेकर पिछले चुनाव तक चाहे नगर निगम का चुनाव हो, विधायकी का चुनाव हो या सांसदी का, हर चुनाव में मुद्दा यही रहता आया है. लोग प्रत्याशियों से एक ही सवाल करते हैं- ओवरब्रिज कब बनेगा? नेता भी हर बार यही कहते हैं- इस बार तो इस मुद्दे का समाधान हो ही जायेगा. समाधान होता नहीं और सवाल की अहमियत धीरे-धीरे खत्म होती जाती है.
इस बीच 23-24 साल में अलग-अलग पार्टियों के बड़े-बड़े नेताओं ने चार बार इस ओवरब्रिज का शिलान्यास करवा दिया है. कई बार इसका बजट अनुमान हुआ है, मिट्टी की जांच तक हो चुकी है, मगर शहर के दोनों हिस्सों के बीच अब भी बर्लिन की दीवार की तरह बिछी रेलवे पटरी है जिससे होकर हर आधे घंटे में रेलगाड़ियां गुज़रती हैं. दिन में कई दफा इस वजह से रेलवे पटरी के दोनों तरफ लंबा जाम लगता है और इस जाम में कई बार एम्बुलेंस तक घंटों फसेी रहती है, इस जाम में फंस कर मरीजों की मौत तक हो चुकी है. कितनी सरकारें आयीं और गयीं, नेता बने और रिटायर हो गये, मगर एक छोटा सा रेलवे ओवरब्रिज सहरसा में नहीं बन सका.
इस श्हर के लोगों अब मान लिया है कि यह ओवरब्रिज कभी नहीं बनेगा इसकी किस्मत ही फूटी है. लिहाजा शहर पटरी के इस पार और उस पार दो हिस्सों में बंट गया है. उस पार के लोगों के बैंक, अस्पताल, स्कूल, गैस गोदाम और दूसरी चीजें उस पार हैं और इस पार के लोगों के इस पार. यहां तक कि रेलवे स्टेशन के भी दो रास्ते हैं, एक इस तरफ से तो दूसरा उस तरफ से. लोग इस रेलवे पटरी को पार करने से बचते हैं. अगर बहुत जरूरी हुआ तो अपनी गाड़ियां इस तरफ पार्क करके पैदल ही पटरी पार करते हैं और काम करके इस तरफ लौट आते हैं.
यहां तक कि लोग शादी-ब्याह, मुंडन और श्राद्ध जैसे मौके पर सबसे पहले यह देखते हैं कि न्योता अपनी तरफ से आया है या दूसरी तरफ से. कुल मिलाकर इक्कीसवीं सदी में एक रेलवे पटरी ने शहर को भारत-पाकिस्तान की तरह दो मुल्कों में बांट रखा है और इस बंटवारे को शहर ने धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया है.
आखिर क्यों नहीं बनता एक छोटा सा रेलवे ओवरब्रिज
इस रेलवे ओवरब्रिज की मांग को लेकर कई दफा आंदोलन कर चुके प्रवीण आनंद कहते हैं, ‘’यह तो रेलवे का नियम है कि अगर किसी समपार रेलवे क्रासिंग से रोज एक लाख से अधिक लोग आते-जाते हैं तो ओवरब्रिज खुद बखुद बन जाना है. इसके लिए किसी इजाजत की जरूरत नहीं. फिर भी सरकार इस ओवरब्रिज का निर्माण क्यों नहीं करा रही, यह समझ से परे है. फंड भी कोई मसला नहीं होना चाहिए क्योंकि इसमें लागत बहुत कम अपनी है’’.
एक अन्य आंदोलनकारी सोहन झा भी इस बात की तस्दीक करते हुए कहते हैं कि हाल के दिनों में सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी सहरसा आये थे तो उन्होंने 70 करोड़ की अनुमानित लागत से इस ओवरब्रिज को बनने की बात कही थी. वह बात भी ठंडे बस्ते में चली गयी. इस ओवरब्रिज के नहीं बनने का क्या कारण है, यह समझ नहीं आता.
कब-कब हुआ शिलान्यास
दूसरा शिलान्यास 12 जून 2005 को नवनिर्मित मानसी-सहरसा बड़ी रेल लाइन लोकार्पण के मौके पर स्टेडियम में करते हुए तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद ने कहा था कि इस बार आरओबी जरूर बनेगा. तीसरा शिलान्यास 22 फरवरी 2014 को 57.54 करोड़ की लागत से तत्कालीन रेल राज्यमंत्री अधीर रंजन चौधरी ने किया. ओवरब्रिज है कि चारों बार नहीं बना और दिलचस्प है कि अब इसके शिलान्यास के पत्थर तक नहीं नज़र आते.
मौजूदा सभी प्रत्याशियों का रहा है इस ओवरब्रिज से रिश्ता
यह शहर मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है और इस लोकसभा सीट से इस वक्त चुनाव लड़ रहे तीनों प्रत्याशी कभी न कभी ओवरब्रिज बनाने की बात कर चुके हैं. निवर्तमान सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर ब्रिज नहीं बना तो वे 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. मगर जैसा कि सबको मालूम है बंगाली बाजार का यह रेलवे ओवरब्रिज नहीं बना है और पप्पू यादव चुनावी मैदान में डटे हैं.
पुष्य मित्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल बिहार से मीडियाविजिल के लिए ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे हैं। संजीत भारती सहरसा के पत्रकार हैं।