किराय मुसहर के दरवाजे कब पहुंचेगा बीपी मंडल का सामाजिक न्याय?

इन दिनों भले ही समाचार माध्यमों में हर तरफ बेगूसराय छाया हुआ है, मगर असल हाइ प्रोफाइल लड़ाई गोप का पोप कहे जाने वाले मधेपुरा में हो रही है, जहां तीन बड़े यादव उम्मीदवार अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. मधेपुरा शहर में चुनाव की गहमा-गहमी राज्य के दूसरे लोकसभा क्षेत्रों के मुकाबले काफी ज्‍यादा है.

जिस दिन हम मधेपुरा पहुंचे, राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रहे जनता दल युनाइटेड (जदयू) के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव के चुनाव प्रचार की गाडियां पूरे शहर में गीत बजाती और भाषण सुनाती दौड़ रही थीं. लम्बे समय तक उनके पुराने मित्र और सहयोगी रहे और उनके साथ मिलकर जदयू की स्थापना करने वाले बिहार के वर्तमान सीएम नीतीश कुमार ने अपने मित्र और शहर के मशहूर व्यवसायी ललन सराफ के घर कई दिनों से डेरा डाला हुआ था, ताकि शरद की हार सुनिश्चित कर सकें. इस कांटे की लड़ाई में तीसरे स्थान पर पिछड़ने के खतरे से जूझ रहे मधेपुरा के निवर्तमान सांसद और अपनी अलग किस्म की सक्रियता से मशहूर कभी दबंग, आजकल रॉबिनहुड बने बैठे राजनेता, पप्पू यादव ने भी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक रखी थी.

संयोग से उस दिन पिछड़ों की राजनीति के सबसे बड़े मसीहा और मंडल आयोग की सिफारिशें तैयार करने वाले जाने-माने समाजवादी नेता बीपी मंडल की पुण्यतिथि थी. बीपी मंडल इसी जिले से आते थे। हम मानकर चल रहे थे कि बीपी मंडल के गांव मुरहो में इस बार तो राजनेताओं का जमावड़ा लगेगा. इसीलिये हम घूमते-फिरते शहर से कोई दस किलोमीटर दूर स्थित उनके गांव में पहुंच गये. हम सुबह दस बजे के करीब मुरहो पहुंचे और दोपहर डेढ़ बजे तक वहां रहे। इस बीच उस गांव में केवल तीन राजनेता पहुंचे. एक ओम बाबू के नाम से पुकारे  जाने वाले बीपी मंडल के पुत्र और पूर्व विधायक मणिन्द्र कुमार मंडल, जो सुबह से ही अपने पिता को श्रद्धांजलि देने और रामनवमी की ध्वजा लगवाने मधेपुरा से चलकर यहां आ गये थे।  दूसरे उनके पौत्र और जदयू के प्रवक्ता निखिल कुमार मंडल जो 11 बजे के बाद गांव पहुंचे। इनके अलावा उनके ही परिवार के सूरज मंडल वहां पहुंचे थे. अफ़सोस कि न तो नीतीश, न शरद, न पप्पू, न जदयू उम्मीदवार दिनेश चंद्र यादव और न ही जिले व राज्य का कोई और समाजवादी या पिछड़ा नेता मुरहो में उस दिन आया.

बीपी मंडल की समाधि

मैं मुरहो गांव पहली बार गया था। बीपी मंडल और उनके पिता, अपने समय के मशहूर राजनेता रासबिहारी मंडल की धरती को देखने और उनकी सामाजिक स्थिति को समझने का एक लोभ तो था ही. गांव में उनके परिवार के लोगों की हवेलियां अब भी शान-ओ-शौकत से भरपूर थीं और लम्बा-चौड़ा अहाता इस गांव में मंडल परिवार के हैसियत की कहानी कहता था. वैसे भी यह पुराना जमींदार परिवार था. अब इस परिवार का कोई सदस्य शायद ही मुरहो में रहता है. कोई मधेपुरा, कोई पटना, कोई दिल्ली तो कोई विदेश. ज्यादातर लोग गांव आते भी नहीं हैं, ओम बाबू ही जब तब आ जाया करते हैं. हां, हर घर में एक कारिंदा है जो इन हवेलियों की देखभाल करता है.

उनकी समाधि जो हाल के वर्षों में ही राजघाट की तर्ज पर बनायी गयी थी, उस पर हमारी मौजूदगी में उनके पुत्र ओम बाबू ने अपने एक भतीजे के साथ पुष्पंजलि दी और हमें बताया कि  सम्भवतः आचार संहिता की वजह से शहर में होने के बावजूद नीतीश यहां नहीं आये. अभी दोनों पिता-पुत्र नीतीश के साथ जदयू में हैं, इसलिये नीतीश का पक्ष रखना उनके लिये जरूरी हो गया था. बाद में हालांकि ऑन कैमरा उन्होंने कहा कि चुनाव अभियान से समय निकालकर देर सवेर कई राजनेता जरूर आयेंगे.

उनसे बातचीत के दौरान ही लम्बे-चौड़े परिसर के हवेलीनुमा दरवाजे के एक कोने में लालटेन रखी दिखी. मुझसे पूछे बिना रहा नहीं गया कि लगता है अब भी किसी कोने में आपने लालटेन (राजद का चुनाव चिह्न) को जगह दे रखी है. वे बहुत जल्द इस चुटकी को परख गये. इससे पहले कि हम उनसे तस्वीर लेने की इजाजत मांगते, उन्होंने लालटेन हटवा दी और कहने लगे, ‘’हमारे रखने न रखने से क्या होता है, उसकी अपनी जगह तो है ही’’. पता चला कि उनके अपने गांव में उनके सजातीय बडी संख्या में राजद के पक्षधर थे, वहीं कुछ छोटे बच्चे हमें देखकर ‘’पप्पू यादव जिन्दाबाद’’ का नारा भी लगा रहे थे.

मुरहो गांव की पहचान सिर्फ बीपी मंडल के गांव के तौर पर नहीं है. यह बिहार के पहले दलित सांसद किराय मुसहर उर्फ किराय ऋषिदेव का भी गांव है. हमें उनके दरवाजे पर भी जाना था. जैसे ही हम बीपी मंडल के समाधि स्थल से किराय मुसहर के घर की तरफ बढ़े, मधेपुरा शहर से इस गांव तक पहुंची कोलतार की सड़क को हमें छोड़ देना पड़ा. पहले ईंट वाला रास्ता मिला, फिर कच्चा रास्ता, फिर मुसहर बस्तियों के बीच से गुजरने वाली पतली-पतली पगडंडियां. हमें अपनी बाइक को भी रास्ते में ही छोड़ देना पड़ा. ढूंढते-ढूंढते हम एक दरवाजे पर पहुंचे जहां एक झोपड़े पर एक पोस्टर लगा था, जिसमें किराय मुसहर की तस्वीर थी और दूसरे झोपड़े में एक चौकी पर उनके पुत्र छट्ठू ऋषिदेव लेटे हुए थे. उनका बदरंग कुर्ता ओम बाबू के झक्‍क सफेद कुर्ते की याद दिला गया, जिन्‍हें हम अभी पीछे छोड़ कर आए थे.

किराय मुसहर के परिवार की झोपड़ी

झोपड़ी क्या थी, न्यूनतम मजदूरी पर जीने वाले एक मेहनतकश महादलित परिवार की कुटिया थी वह, जहां तक बाइक लेकर भी पहुंचना संभव नहीं था. कौन कहता कि यह एक पूर्व सांसद का घर है, जिसने आजादी के बाद 1952, 1957 और 1962 के चुनाव में हिस्‍सा लिया और पहले ही चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर भागलपुर सह पूर्णिया सुरक्षित सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार को उसने मात दी. आजकल तो पूर्व वार्ड मेम्बरों के घर में इससे अधिक सुविधायें होती हैं.

छट्ठू ऋषिदेव भी लगातार राजनीति से जुडे रहे और उन्होंने भी चुनाव में उम्मीदवारी आ़ज़मायी. अभी वे एक स्थानीय राजनीतिक दल से जुड़े हैं, जो उनके पिता किराय मुसहर के नाम को बचाने-भुनाने की कोशिश कर रहा है. उनके भतीजे उमेश कोईराला इस इलाके में बचपन बचाओ आन्दोलन के जुझारू कार्यकर्ता रहे हैं. वे इन दिनो पप्पू यादव की जनाधिकार पार्टी के जिला महादलित प्रकोष्ठ के अध्यक्ष हैं और आजकल चुनाव अभियान में जुटे हैं. पहले वे शरद यादव के साथ थे और सिंहेश्वर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के आकांक्षी थे, मगर शरद ने उनकी इस इच्‍छा का सम्मान नहीं किया लिहाजा कोईराला ने उनका साथ छोड़ दिया.

अब यह परिवार किराय मुसहर की समाधि बनवाने के अभियान में जुटा है, चंदे से ही सही. भले अब तक उनके घर तक, पांच सौ परिवार वाली इस मुसहर बस्ती में चौपहिया क्या, दोपहिया वाहन पहुंचने का भी रास्ता नहीं है. वे समझने लगे हैं कि राजनीति में विरासत का लाभ समाधि से ही मिलता है. अगर यहां मुख्यमंत्री को खींच कर लाया जा सके तो शायद उनकी तकदीर बदल जाये. तब रास्ते का भी इन्तजाम हो जायेगा.

किराय के पौत्र उमेश ने बताया, ‘’ऐसा नहीं है कि उनके दादा ने सांसद के पद पर रहते हुए धनोपर्जन नहीं किया. उन्होंने 35 बीघा जमीन खरीदी, हालांकि इसमें से 22 बीघा जमीन पर उन्होने पास के ही एक गांव में मुसहरों की बस्ती बसा दी. बची हुई जमीन का बड़ा हिस्सा गांव के प्रभुत्वशाली बीपी मंडल के परिवार के साथ मुकदमेबाजी में बिक गया’’. अब वे लोग एकड़, दो एकड़ में खेती करके जी रहे हैं.

किराय मुसहर की निर्माणाधीन समाधि

वह मुकदमा किस बात का था? इस सवाल पर उमेश ने बताया कि किराय मुसहर और बीपी मंडल की बेटियां स्कूल में एक साथ पढ़ती थीं. एक बार दोनों में मारपीट हो गयी. जब यह खबर बीपी मंडल को मिली तो उन्होंने अपने सिपाही (लठैत) को भेजकर बाप-बेटी को अपने दरवाजे पर आने को कहा. उनके लिये असह्य था कि एक मुसहर की बेटी उनकी बेटी पर हाथ उठा दे. किराय खुद सांसद थे, सो वे कब तक दबते. उन्होंने मंडल के लठैत को डांट कर भगा दिया. फिर कुछ कहासुनी हुई और अंत में मुकदमेबाजी. मुकदमेबाजी में धनाढ्य मंडल परिवार का तो कुछ नहीं बिगड़ा, मगर यह मुसहर परिवार फिर से गरीब हो गया.

यह कहानी उमेश कोईराला की सुनाई हुई है और हम इसकी सच्चाई का दावा नहीं करते हैं, लेकिन यह तो सच है कि 1952 के बाद किसी चुनाव में किराय मुसहर नहीं जीत पाये. 1962 में उनका निधन हो गया. उनका नाम उस तरह उनकी संतति के लिये मददगार साबित नहीं हुआ, जिस तरह मंडल परिवार के लिये बीपी मंडल का नाम.

किराय मुसहर के दरवाजे से भुट्टे खाकर जब हम मुरहो से लौट रहे थे तो हमें लग रहा था कि यह कहानी सिर्फ मुरहो गांव के दो राजनीतिक परिवारों की नहीं है. यह कहीं न कहीं देश भर में सामाजिक न्याय के नाम पर चले राजनीतिक अभियान की भी असली कहानी है. हम लौटकर मधेपुरा शहर पहुंचे तो वहां उसी तरह शरद और पप्पू की प्रचार गाडियां दौड़ रही थीं, हेलीकॉप्टर उड़ रहे थे, ललन सराफ के दरवाजे पर आधुनिक हथियारों के साथ दर्जन से अधिक पुलिसकर्मी खड़े थे, उनके बैठने के लिये कनात लग गया था. पता चला कि जर्जर सड़कों की वजह से शरद ने कार से चलना छोड़ दिया है, अब दस किलोमीटर दूर भी जाना होता है तो वे हेलीकॉप्टर से ही जाते हैं. मेरे कानों में छट्ठू ऋषिदेव की बातें गूंज रही थीं, ‘’तब लोहिया, भूपेन्द्र नारायण मंडल (बीपी मंडल नहीं) और किराय मुसहर बैलगाड़ी से चुनाव प्रचार करने गांव-गांव जाते थे’’.


पुष्‍य मित्र वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और आजकल बिहार से मीडियाविजिल के लिए ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे हैं

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