बिहार: कस्‍बाई खबरनवीसों और मीडिया के अपने सवाल इस चुनाव से गुम क्‍यों हैं?

2019 का लोकसभा चुनाव समाप्ति के कगार पर है और इन दिनों हर जगह मोदी और राहुल गांधी के इंटरव्यू का जिक्र है. मुझे इस चुनाव की सबसे खास बात यह लगती है कि यह जितना जमीन पर नहीं लड़ा गया, उससे कहीं अधिक मीडिया और सोशल मीडिया में लड़ा गया. लगभग खुलेआम इस चुनाव में मीडिया भी अलग-अलग खेमों में बंटा नजर आया और इस बात ने मीडिया की विश्वसनीयता को भी उसी तरह कटघरे में खड़ा कर दिया, जिस तरह राजनीतिक पार्टियों की विश्वसनीयता संदिग्ध है.

मीडिया भले राजनीतिक वजहों से सवालों के घेरे में दिखा, मगर इस चुनाव में मीडिया के अपने सवाल किसी भी राजनीतिक बहस से बाहर ही रह गये. ठीक वैसे ही जैसे बिहार के वैशाली जिले के दो पत्रकार, चंद्रमणि और रवि कुमार. हम में से शायद ही किसी को इन दोनों पत्रकार का नाम और इनकी उपलब्धियां मालूम हों. आप जानेंगे तो हैरत में पड़ जायेंगे. इन दो पत्रकारों की खबरों की वजह से पिछले तीन साल में बिहार की परीक्षा प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव हुए. कई लोगों की नौकरियां चली गयीं, कई लोगों के तबादले हो गये.

मैट्रिक और इंटरमीडिएट में कदाचार मुक्त परीक्षा कराना और सही रिजल्ट देना बिहार सरकार के लिए नाक का सवाल बन गया. हाल के दिनों में किसी भी खबर का ऐसा असर शायद ही हुआ हो, जितना इन दोनों कस्बाई पत्रकारों की खबर का हुआ. मगर अफसोस कि इन पत्रकारों का नाम देश तो क्या बिहार की जनता भी नहीं जानती. ये आज भी कस्बाई पत्रकार ही हैं और अपनी छोटी सी नौकरी उसी तरह करते हैं, जिस तरह वे पहले किया करते थे.

ये सुधीर चौधरी, अंजना ओम कश्यप, अर्णब गोस्वामी, रोहित सरदाना की तरह न तो स्‍टार बन पाये और न ही रवीश या पुण्य प्रसून वाजपेयी की तरह क्रांतिकारी. परीक्षा केंद्र की पिछली दीवार पर लंगूर की तरह लटके अभिभावकों की ऐतिहासिक तस्‍वीर लेकर भी रवि कुमार वैशाली के एक प्रखंड महनार के संवाददाता बने हुए हैं और स्टेट टॉपर का वह इंटरव्यू जो पीएम मोदी के न्यूज नेशन वाले इंटरव्यू से कई गुणा अधिक वायरल हुआ था, उसे लेने वाले चंद्रमणि आज भी वैशाली से उसी न्यूज चैनल के लिए पत्रकारिता करते हैं, जिसके लिए वे पहले किया करते थे.

आखिर बेहतर काम मीडिया में आगे बढ़ने की कसौटी क्यों नहीं है? इनकी खबरें तो दुनिया भर में मशहूर हुईं, मगर ये क्यों अपने ही गली-कस्बे में गुमनाम रह गये, आगे नहीं बढ़ पाये. इन्हीं सवालों पर इस चुनाव के आखिरी दिनों में हमने इनसे बातचीत की है. इस बातचीत में इन्होंने अपने दिल की बात बतायी है.

सवाल सिर्फ इन दोनों पत्रकारों का नहीं है. मीडिया का व्‍यवस्‍थागत प्रश्‍न है. हम दिल्ली में बैठे दस-बीस पत्रकारों के कामकाज के जरिये पूरे मीडिया के बारे में अपनी राय बना लेते हैं, मगर यह पत्रकारिता का बहुत छोटा सा हिस्सा है. आज भी देश के नब्बे फीसदी से अधिक पत्रकार छोटे शहरों, गांवों और कस्बों में पत्रकारिता करते हैं. इनमें से ज्यादातर की सैलरी पांच-दस हजार रुपये महीना भी नहीं है. इन्हें नौकरी के साथ अपने संस्थानों के लिए विज्ञापन भी बटोरना पड़ता है.

ये लोग सबसे अधिक खतरे की जद में रहते हैं. पिछले कुछ साल में सीवान के राजदेव सिंह समेत बिहार में आधा दर्जन से अधिक पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. कई पत्रकारों के साथ गाली-गलौज और अमानवीय व्यवहार होता है, मगर इनकी सुरक्षा और सम्मान की लड़ाई इनका संस्थान भी नहीं लड़ता.

यूपीए-2 के वक्त में ही पत्रकारों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें मानी गयी थीं. 2011 से इसे लागू होना था मगर पिछले आठ साल में इसे लागू करने में टालमटोल होता रहा. पिछली सरकार ने तो इसे लगभग इग्नोर ही कर दिया. सुप्रीम कोर्ट में भी मामले को ऐसा उलझाया गया कि पत्रकारों ने लगभग हार मान ली. इस फैसले से प्रभावित होने वाले पत्रकारों की संख्या लाखों में है और वे बहुत कम सैलरी पाते हुए या तो भ्रष्टाचार की राह पर निकल जा रहे हैं या फिर कंगाली की राह पर.

इन पत्रकारों का सवाल, खबर देने वालों के नेटवर्क की ईमानदारी को जिंदा रखने का सवाल, 2019 के चुनाव में अनुपस्थित है. अपनी पक्षधरता की वजह से पत्रकार आम लोगों के निशाने पर रहे, मगर उनके पेट और उनकी सुरक्षा का सवाल कहीं गुम होकर रह गया.


पुष्‍य मित्र बिहार स्थित वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए लोकसभा चुनाव में ज़मीनी हालात का जायज़ा ले रहे हैं.

वीडियो: सत्यम कुमार झा

 

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