आज लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान का प्रचार समाप्त हो रहा है। मतदान 11 अप्रैल को है। जिन सीटों पर चुनाव होने हैं, उनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ सीटें शामिल हैं। मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश सवर्ण हिंदू सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला बना हुआ है। दादरी में अख़लाक की हत्या से लेकर सहारनपुर में दलित-विरोधी दंगे और कासगंज में सांप्रदायिक हिंसा तक पिछले पांच वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिंदूवादी संगठनों ने प्रत्यक्ष व परोक्ष तरीकों से अपना प्रभाव बढ़ाया है। पश्चिमी यूपी पर अपनी पहली ग्राउंड रिपोर्ट में मनदीप पुनिया ने इस बात की पड़ताल की थी कि आखिर कौन है जो इस क्षेत्र में आरएसएस की समानांतर सरकार चला रहा है। एक नाम निकल कर आया था राहुल कुटबी का। हमने देखा कि उच्च शिक्षा संस्थान में भर्तियों से लेकर छिटपुट हिंसा तक कैसे एक शख्स का यहां राज चलता है। विरोधी के पास दो ही विकल्प होते हैं- सरेंडर या एनकाउंटर।
आज इस क्षेत्र में चुनाव प्रचार खत्म हो रहा है लेकिन मीडियाविजिल आपको पीछे लेकर चलेगा चुनाव प्रचार के आग़ाज़ के दिन सहारनपुर के एक ऐतिहासिक मंदिर में, जहां मत्था टेक कर सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चुनावी बिगुल फूंका था। योगी खुद नाथ पंथ के एक अहम मठ के महंत हैं, फिर उन्हें चुनाव प्रचार शुरू करने के लिए आशीर्वाद लेने सहारनपुर क्यों आना पड़ा? मीडिया ने बेशक शाकुम्भरी देवी के मंदिर में उन्हें पूजा-अर्चना करते दिखाया था, लेकिन किसी ने सवाल नहीं खड़ा किया कि आखिर क्यों यही मंदिर? क्यों नहीं बनारस, गोरखपुर या अयोध्या या फिर मथुरा?
ग्राउंड रिपोर्ट के इस दूसरे अंश में मीडियाविजिल अपने पाठकों का एक और समानांतर सरकार से परिचय करवाएगा। यह समानांतर सरकार चलाने वाले कौन हैं उन्हें पहचानिए और जानिए कि योगी आदित्यनाथ का उनसे क्या रिश्ता है। (संपादक)
मनदीप पुनिया
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नाथ पंथ के गोरखपुर स्थित सबसे बड़े मठ गोरक्षनाथ पीठ के आधिकारिक महंत हैं। जिस पंथ से योगी दीक्षा लेते हैं, उसके बाहर उनके इष्ट देवता नहीं होते। उनके सारे शुभ काम अपने ही पंथ और मठ से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाते हैं। यह सामान्य रीति है। योगी आदित्यनाथ ने होली पर रेनकोट पहनकर होली खेली, गुलाल मला और उसके तीन दिन बाद 24 मार्च, 2019 को लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रचार अभियान शुरू किया। अभियान शुरू करने से पहले आशीर्वाद लेने वह गोरखनाथ के दरबार में नहीं, बल्कि सहारनपुर में शाकुम्भरी देवी के पीठ गए। शाकुम्भरी देवी मंदिर राजपूतों का मंदिर है जहां दूसरी जातियां भी जाती हैं, लेकिन सिर्फ भक्ति भाव में या यूं कहें कि सिर्फ चढ़ावा चढ़ाने के लिए।
उत्तरप्रदेश के पश्चिमी द्वार पर बसे सहारनपुर शहर से करीब 26 मील उत्तर की तरफ शिवालिक की छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच शाकुम्भरी देवी का मंदिर है। सहारनपुर एक दौर में पुंडीर राजपूतों (पुरंदरों) की रियासत रहा है। यहां उनकी कुलदेवी शाकुम्भरी देवी का शक्तिपीठ स्थित है और आज भी यह पुंडीर राजपूतों का ‘प्राइवेट’ मंदिर माना जाता है, इसलिए यहां चढ़ने वाला सारा पैसा सहारनपुर के जसमौर गांव के पुंडीर वंश के सामन्त परिवार को जाता है। इस पीठ के तार राजस्थान के नागौर से जुड़ते हैं। वहां भी शाकुम्भरी देवी की एक पीठ है जो पुंडीरों और चौहानों की कुलदेवी हैं।
सुनने में यह अजीब लगे मगर सत्य यह है कि राजपूतों के गौरव और जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर बनी हुईं संस्था, फेसबुक के पेज और व्हाट्सप्प ग्रुप के नए पोस्टर बॉय अजय बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ हैं। राजपूतों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए ही सूबे के मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत 24 मार्च को शाकुम्भरी देवी की पूजा से की। नाथ पंथ से संन्यास की दीक्षा लेने वाले योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनते ही अजय बिष्ट में तब्दील हो गए, राजपूत बन गए।
वहां हमारी मुलाकात मंदिर के पुजारी से हुई जिसने बड़ी उत्सुकता से बताया, “योगी आदित्यनाथ जी ने अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत मां शाकुम्भरी की पूजा करके की है। हर क्षत्रिय राजपूत अपने विजयी अभियानों पर निकलने से पहले मां शाकुम्भरी का आशीर्वाद जरूर लेता है। देख लेना, मां की कृपा से योगी जी जरूर विजयी होंगे।” अपनी व्यस्तता के कारण पुजारी हमें माता की एक छोटी सी पुस्तक पकड़ाकर चले गए।
जिस तरह योगी आदित्यनाथ का सत्ता में आना दिनेश को उत्साहित करता है उसी तरह से सूबे के युवा भी अब योगी में अपना जातिगत गौरव देखने लगे हैं। कुछ साल पहले तक राजपूत सभाओं के पोस्टरों पर राजनाथ सिंह का कब्ज़ा था लेकिन अब उनकी जगह योगी ने ले ली है और राजनाथ सिंह को पोस्टरों में कहीं कोने में शिफ्ट कर दिया गया है या फिर पूरी तरह से हटा दिया गया है। इसका एक कारण यह भी है कि राजपूतों के आइकॉन/पोस्टर बॉय हमेशा से जवान मर्द रहे हैं, बूढ़े नहीं।
सहारनपुर के ही छुटमलपुर कस्बे के आसपास राजपूतों की चौबीसी (चौबीस गांव) पड़ती है। वहां भी पुंडीर गोत्र के राजपूत बसते हैं। छुटमलपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर पुंडीर राजपूतों का एक बड़ा गांव बेहड़ा संदलसिंह पड़ता है। वहां हमारी मुलाकात विक्रम पुंडीर से हुई। हमें मिलते ही विक्रम ने बड़ी प्यार से कहा, “आओ हुकुम”। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘हुकुम’ शब्द सुनना हमारे लिए बिल्कुल नया था। पूछने पर विक्रम कहते हैं कि राजपुताना भाषा बोलने का अपना ही मज़ा है। जब राजपुताना भाषा बोलते हैं तो हमें बड़ा गर्व महसूस होता है।
शब्दों के प्रयोग से हटकर जब पुंडीर इतिहास पर बात शुरू होती है तो विक्रम अपनी चमकदार आखों में गौरव गाथा भरकर बताते हैं, “सहारनपुर के पुंडीर महाभारत कालीन पुंडक राजा के वंशज हैं जिसने कृष्ण भगवान को भी धमकाकर औकात में रहने की हिदायत दी थी। पुंडक राजा हरियाणा के पूंडरी कस्बे पर राज करता था। वहीं से हमारे वंशज आए हैं और यहां आसपास के गांवों में फैले हैं।”
विक्रम की यह मिथकीय गौरवगाथा बेशक ऐतिहासिक तथ्य पर न टिकी हो लेकिन इसमें जातिगत घृणा का प्रोपगेंडा जरूर तैर रहा है, जिसकी एक हल्की सी परत इस मिथक को कृष्ण भगवान और यादव जाति के अखिलेश से छूकर गुजरती है। विक्रम ने यह कहानी शेर सिंह राणा द्वारा आयोजित एक रैली में एक बुजुर्ग के मुंह से सुनी थी जिन्होंने अखिलेश यादव को ललकारते हुए पुंडक राजा के भगवान कृष्ण को धमकाने वाला यह किस्सा सुनाया था।
ज़मानत पर राजपुताने का हीरो
इस इलाके में जो राजपूतों का स्थापित नेता है वह है पंकज सिंह पुंडीर उर्फ शेर सिंह राणा। शेर सिंह राणा फूलन देवी की हत्या करने की वजह से उम्रकैद की सज़ा काट रहा है और पिछले कोई ढाई साल दिनों से ज़मानत पर बाहर है। हाल ही में शेर सिंह राणा ने राष्ट्रीय जनलोक पार्टी बनाई है जिसका मकसद ज्यादा से ज्यादा राजपूतों को राजनीति में लाना है। शेर सिंह राणा से फ़ोन पर बातचीत हुई। उन्होंने कहा, ‘’राजपूत राज करने के लिए बने हैं, मजदूरी करने के लिए नहीं। आरक्षण की वजह से राजपूत गरीब होते जा रहे हैं। खेती में कुछ निकलता है नहीं। ऊपर से छोटी सी जमीन के टुकड़ों पर आपस में सर और फुड़वा लेते हैं। इसलिए अब राजपूतों को राजनीति में सक्रिय होना चाहिए ताकि उनकी राज़ में भागीदारी बढ़ सके।‘’
शेर सिंह राणा ने पिछले दिनों अपनी नई पार्टी बनाने के बाद गाजि़याबाद, नोएडा, चंडीगढ़, करनाल आदि जगहों पर उसके दफ्तर खोले हैं। कुछ दिनों पहले राणा ने एलान किया था कि वे राष्ट्रीय जनलोक पार्टी से गौतमबुद्धनगर और करनाल सीट पर अपने प्रत्याशी उतारेंगे। पंजाब और हरियाणा के कई अखबारों में भी ऐसी खबर भी छपी। बाद में राजनीतिक सूलियतों के चलते उन्होंने यह योजना दरकिनार कर दी और चुन-चुन कर राजपूत प्रत्याशियों का प्रचार करने लगे।
दो साल पहले 5 मई को शबीरपुर में हुए दलितों पर हमलों का असली हीरो शेर सिंह राणा ही था। शबीरपुर से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर पड़ने वाले गांव शिमलाना के इंटर कॉलेज में महाराणा प्रताप जयंती पर शेर सिंह राणा घोड़े पर सवार होकर पहुंचा था और वहां उपस्थित हज़ारों राजपूतों को धर्मयुद्ध छेड़ने की कसमें खिलाई थीं। उसी आयोजन में कई राज्यों से पहुंचे राजपूतों ने शबीरपुर के दलितों पर तलवारों और बमों से हमला किया था। इस हमले के बाद मीडियाविजिल ने शब्बीरपुर गांव से एक ज़मीनी रिपोर्ट की थी जिसमें हमले का विस्तार से वर्णन था।
हिंदू राष्ट्र और राजपुताने की दोहरी सियासत में फंसा ‘द ग्रेट चमार’
इन दो वर्षों में शेर सिंह राणा ने काफी उपलब्धियां बटोरी हैं। उन्होंने एक किताब लिख मारी है। इसके अलावा उनके उुपर एक फिल्म भी बन रही है। गौरतलब है राणा को अक्टूबर 2016 में दिल्ली हाई कोर्ट से गीता मित्तल की अदालत से ज़मानत मिली थी। ज़मानत की शर्त यह थी कि राणा हर जून और दिसंबर के दूसरे सप्ताह रुड़की के थाने जाकर अपनी हाजिरी लगवाएंगे। अपना पता और मोबाइल नंबर पुलिस के पास अपडेट रखेंगे। इनके अलावा बेल ऑर्डर में और कोई बंदिश नहीं लगाई गई है। बेल ऑर्डर की प्रति नीचे देखी जा सकती है।
ranaजाहिर है, तिहाड़ जेल से बाहर आने के बाद जितना साम्राज्य और प्रभावक्षेत्र राणा ने अपना बनाया, वह अभूतपूर्व और अविश्वसनीय है। यूपी से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और बिहार आदि में वे राजपूतों की एक समानांतर सरकार चला रहे हैं। यूपी में उनके सिर पर खुद सजातीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट का हाथ है, इसे सहारनपुर में लगी होर्डिगों और पोस्टरों में आसानी से देखा जा सकता है। तकरीबन सभी पुलिस थानों में भी राजपूत जाति का वर्चस्व है, लिहाजा न कोई शिकायत करने वाला है और न कोई बोलने वाला।
इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले बीस दिनों के दौरान शेर सिंह राणा धड़ल्ले से चुनाव प्रचार और रैलियां कर रहे हैं। उनका काफिला निकलता है जो राजपूत गौरव के रीमिक्स गाने बजते हैं और राणा खुली जीप में लोगों का एक नायक की तरह अभिवादन करते हुए गुज़रते हैं। यह पश्चिमी यूपी के दुर्लभ नजारों में एक है। पिछले महीने राणा ने गौतमबुद्धनगर के नूरपुर गांव में एक विशाल जनसभा और रैली की थी। दो माह पहले राणा ने सहारनपुर में हिंदू-मुस्लिम राजपूत समाज का एक सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें आए लोगों ने राजपूताना को बुलंद करने का वादा किया और ‘जय राजपूताना’ के नारे लगाए।
ध्यान रहे कि जब सहारनपुर में दलित विरोधी दंगे हुए थे, उस वक्त वहां के उच्च वर्ण वाले मुसलमानों की ओर से किसी किस्म का कोई प्रतिरोध देखने को नहीं मिला था। वहां के मुसलमान खुद इस बात को मानते हैं कि उनके पूर्वज राजपूत थे। इस धारणा ने शेर सिंह राणा का काम आसान ही किया है। दिलचस्प है कि हिंदू-मुस्लिम राजपूत भाईचारा सम्मेलन में शामिल युवाओं का यह मानना है कि दोनों धर्मों के मानने वालों की पूजा पद्धति तो विविध हो सकती है लेकिन इनके बीच राजपुताने की एकता होनी चाहिए। मुसलमानों के एक तबके को यह बात अपील कर रही है।
योगी और राणा की जुगलबंदी
ऊपर से देखने में सूबे के मुख्यमंत्री और शेर सिंह राणा के बीच कोई संबंध खोज पाना इतना आसान नहीं होगा। राणा की पार्टी के नाम में ‘’राष्ट्रवादी’’ शब्द को छोड़ दें तो न तो वे भारतीय जनता पार्टी का खुले तौर पर समर्थन करते हैं और न ही योगी को कभी उनके आयोजनों में देखा गया। इन दोनों को हालांकि एक डोर बेशक जोड़ती है। यह डोर सहारनपुर के शाकुम्भरी देवी पीठ से निकलती है जो राजपूतों की कुलदेवी है। दोनों की राजनीति यहीं आकर मिलती है और फिर समानांतर तरीकों से आगे बढ़ती है। एक ओर जनप्रतिनिधित्व की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे योगी आदित्यनाथ हैं तो दूसरी ओर अठारह साल पहले एक जनप्रतिनिधि की संसद के बाहर सरेराह हत्या करने वाला उम्रकैद सज़ायाफ्ता राणा। देखने में ये जितने दूर हैं, अपनी-अपनी सियासत में उतने ही पास हैं। इन दोनों की समानांतर सियासतों के बीच संजीव बालियान के भाई राहुल कुटबी जैसे छिटपुट लोग हैं जो महज अच्छी-बुरी घटनाओं का प्रबंधन कर रहे हैं। सहारनपुर से लेकर नागौर तक राजपुताने को दोबारा कायम करने की राजनीति बड़ी सहजता से चल रही है।
फिलहाल तो इसका जवाब देना मुश्किल है। 2019 के चुनाव नतीजे और उसके बाद की सियासत ही इसका जवाब दे पाएगी।
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