आरा: 2008 में हुए परिसीमन ने यहां पिछड़ों के लिए संसद का दरवाज़ा कहीं बंद तो नहीं कर दिया?

आम चुनाव के छह चरण बीत चुके हैं. आखिरी यानि सातवें चरण में 60 सीटों पर जो मतदान होगा उसमें आठ अहम सीटें बिहार की हैं जिन पर अधिकतर एनडीए गठबंधन का कब्ज़ा है. इसमें से बिहार की आरा लोकसभा सीट खास है. खास इसलिए है कि बीजेपी और भाकपा(माले) यहां पहली बार आमने-सामने हैं. दिलचस्‍प है कि कम्‍युनिस्‍टों और बीजेपी ने एक-एक बार ही इस सीट को जीता है. पहली बार 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में सीपीआइ के रामेश्वर प्रसाद चुनाव जीते थे. बीजेपी 2014 में यहां पहली बार जीती और पूर्व केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह सांसद-मंत्री बने.

इस सीट की दूसरी खास बात यह है कि 1952 से लेकर 2004 तक आरा लोकसभा सीट पर ओबीसी जातियों का वर्चस्व रहा है. 2004 में पहली बार जेडीयू की मीना सिंह अगड़ी माने जाने वाले राजपूत जाति की रही. दूसरी बार आरके सिंह ने चुनाव जीत लिया. इस बार भाकपा(माले) के प्रत्‍याशी राजू यादव ओबीसी समुदाय से आते हैं.

आरा में कुल सात विधानसभा सीटें हैं. शाहपुर विधानसभा सीट पर राहुल तिवारी आरजेडी के टिकट पर विधायक हैं जबकि एक जेडीयू का दलित विधायक है. तरारी से सुदामा प्रसाद माले के विधायक हैं. तीन राजद के यादव विधायक हैं. आरा सीट पर मुसलमान समुदाय के विधायक हैं. इन सबमें एक और बड़ी बात है यह है कि आरा की बड़हरा विधानसभा सीट राजपूत बहुल माने जाने के चलते चित्‍तौड़गढ़ के भी नाम से कुख्यात है, जहां से 2015 में आरजेडी के टिकट पर सरोज यादव ने चुनाव जीता था.

बलीराम भगत (बाएं) रोमानिया के राष्‍ट्रपति निकोलाइ सिस्‍कू के साथ, 1976

1952 से 1971 तक कांग्रेस के टिकट पर बलीराम भगत लगातार पांच बार यहां से सांसद रहे. वे यादव जाति के थे लेकिन नए पीढ़ी के नेता उनका नाम अपने चुनावी भाषणों में भी नहीं लेते. वैसे आरा में कोई ऐसा आर्काइव नहीं जहां से बलीराम भगत के बारे में विस्तार से और प्रामाणिक तौर पर जाना जा सके. उसके बाद 1977 में भारतीय लोकदल व 1980 में जनता पार्टी के टिकट पर कोइरी जाति से ताल्लुक रखने वाले चंद्र देव प्रसाद दो बार सांसद बने. 1984 में कांग्रेस के बलीराम भगत ने अपनी हार का बदला लेते हुए फिर से जीत हासिल की.

इस बीच आरा की धरती पर वामपंथी राजनीति संसदीय जमीन तलाशने में जुट गयी थी. 1989 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के टिकट पर रामेश्वर प्रसाद ने चुनाव में जीत दर्ज की, जो बाद में भाकपा (माले) हो गया. फिर 1991 में जनता दल के राम लखन यादव से लेकर रामेश्वर प्रसाद तक कोई चुनाव नहीं हारा बल्कि 1977 से 1991 तक झरिया के विधायक रहे कोल माफ़िया सूर्यदेव सिंह की चुनाव में करारी शिकस्त हुई.

इस तरह सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाला कोई भी उम्मीदवार आरा लोकसभा चुनाव में पहली बार दूसरा स्थान हासिल कर सका. नाम न लिखने की शर्त पर आरा में आयकर मामलों के एक वरिष्‍ठ अधिवक्ता कहते हैं- ‘’हम सूर्यदेव सिंह को पसंद नहीं करते थे. उन्होंने वीपी सिन्हा की हत्या की थी. मगर मंडल कमीशन के विरोध में हमने सूर्यदेव सिंह को वोट ही नहीं दिया बल्कि बाकायदे बूथ भी कैप्चर किया’’. उस लोकसभा में वोटों की गिनती के कुछ ही वक्त बाद सूर्यदेव सिंह का दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी. इन्‍हीं सूर्यदेव सिंह का किरदार फिल्‍मकार अनुराग कश्यप की एक फिल्म ‘’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’’ में देखा जा सकता है।

जनता दल ने 1996 में रामलखन यादव का टिकट काट दिया और चंद्र देव प्रसाद मौर्य को टिकट दिया जो सांसद भी बने. जब 1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ, तब समता पार्टी के एचपी सिंह सांसद बने. 1999 में हुए चुनाव में आरजेडी के राम प्रसाद सिंह ने जीत हासिल की और 2004 में आरजेडी के टिकट पर कांति सिंह ने जीत दर्ज की और लोकसभा पहुंचीं. 2009 में जेडीयू की मीना सिंह ने चुनाव जीता.

आरा लोकसभा सीट से इन्‍हीं दो महिला उम्मीदवारों ने लोकसभा में अपनी नुमाइंदगी अब तक पेश की है. इस बार माले के साथ महागठबन्धन के आ जाने से मुकाबला बहुत तीखा हो गया है. तीन दिन बाद 19 मई को मतदान होना है और 23 मई को परिणाम आएगा. तब जाकर पता चलेगा कि 2008 में इस सीट के किए गए परिसीमन ने कहीं ओबीसी जाति के उम्मीदवार के लिए आरा से लोकसभा को जाने वाला दरवाज़ा स्‍थायी रूप से बंद तो नहीं कर दिया है।


आशुतोष कुमार पांडे स्‍वतंत्र पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आरा से चुनावी रिपोर्ट लिख रहे हैं

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