‘उदन्त मार्तण्ड’ यानी हिंदी के नाम से पहला समाचार पत्र 30 मई 1826 को पहली बार प्रकाशित हुआ था। इसलिए 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इस अख़बार को कलकत्ता से एक साप्ताहिक समाचार पत्र के तौर पर शुरू किया था। ज़ाहिर है, 30 मई हिंदी पत्रकारिता के मौजूदा परिदृश्य पर चिंतन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिन है। पर इसी दिन अगर आप ऐसी ख़बरों और विश्लेषणों से रूबरू हों जिनमें झूठ और बदनीयती भरी हो तो फिर कहने-सुनने को कुछ बाक़ी नहीं रहता। 30 मई को ज़ी न्यूज़ ने बताया कि कैराना में अफ़गानिस्तान के रास्ते तालिबानी बुर्क़ा पहुँच गया है जो गंगा-जमुनी संस्कृति के लिए ख़तरा है। हैरानी की बात है कि जिस बुर्क़े को तालिबानी बताकर प्रचारित किया जा रहा था, वह एक ज़माने में इस इलाक़े में बेहद आम था। उसी इलाक़े के निवासी पत्रकार धीरेश सैनी ने इसकी असलियत सामने रखी है। पढ़िए- संपादक
धीरेश सैनी
इस रिपोर्ट में नीले रंग पर बहुत ज़ोर दिया गया लेकिन सबसे पहले जो तस्वीर दिखाई गई, वह सफ़ेद बुर्क़े वाली महिला की थी। बार-बार नीला-नीला चिल्लाने के बावजूद जो बुर्क़े दिखाई देते रहे, उनमें नीले रंग के बुर्क़े वाली महिलाओं का कोई समूह नहीं पेश किया जा सका। `शटल कॉक` बुर्क़े वाली जो महिलाएं दिखाई गईं, उनके बुर्क़ों के रंग भी प्राय: दूसरे ही थे। लेकिन, क्या कोई नीले रंग का बुर्क़ा नहीं पहन सकता है? इस तरह की पत्रकारिता का काम ही आपराधिक ढंग से गरीबों की मज़ाक बनाना, पहरावे के आधार पर लोगों को संदिग्ध करारा देकर अपराधी ठहराना और साम्प्रदायिक उन्माद फैलाना रह गया है।
तुर्रा यह कि इतना साफ़ झूठ बोलने के लिए रीसर्च और अध्ययन का दावा किया जाता रहा। `विदवान` के नाम पर कोई तारिक़ फ़तह नाम का आदमी पेश किया गया। इस `विदवान` को शर्म नहीं आई कि उसे हमारे इलाक़े के आम मुसलमानों के पिछले 50 सालों के रहन-सहन की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन वह इन बुर्क़ों को तालिबानी असर की वजह से आया बता रहा था।
और इन मुंहों से महिलाओं के अधिकारों की पैरवी कितनी हास्यास्पद लगती है! सच तो यह है कि जिन साम्प्रदायिक हिंसक अभियानों के ये लोग पैरोकार हैं, उनकी वजहों से मुस्लिम महिलाओं के रास्ते लगातार अरक्षित, असुरक्षित और बंद होते गए हैं। कुल मिलाकर देखें तो हिंदू महिलाओं के भी। मैं अपने आसपास के मुस्लिम परिवारों को देखते हुए कह सकता हूँ कि कुछ कथित बड़ी मुस्लिम जातियों के अलावा बुर्क़ें का चलन बेहद कम था। हमारे परिवारों में बिना बुर्क़ें वाली परिचित महिलाओं को ख़ूब आना-जाना रहा। बाबरी मस्जिद को लेकर शुरू किए गए अभियान के बाद जिस तरह का माहौल बनता गया, यह आवाजाही कम होती गई और आम महिलाओं की जकड़बंदी भी बढ़ती गई।
जैसा कि मैंने ऊपर बताया है कि कैराना हमारी तहसील रही है। बडे़ बताते थे कि गदर के बाद शामली से तहसील हटाकर कैराना में कर दी गई थी। लंबे समय बाद हमारी जवानी के दिनों में ही शामली को पहले तहसील का और फिर जिले का दर्ज़ा मिल पाया। इस कथित रिपोर्ट में कैराना के इतिहास को लेकर भी लप्पेबाजी की गई। पहले रीसर्च और किताबों के अध्ययन की डींग हांक चुका एंकर अब मौखिक-मुंहजुबानी इतिहास की दुहाई देते हुए कैराना को कर्ण की नगरी बताने लगा। जाहिर है कि ऐसा कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं है। कैराना से ज़्यादा तो यह दावा जमना पार हरियाणा के करनाल को लेकर किया जाता है। प्रमाण उस शहर को लेकर भी ऐसा कोई नहीं है। भास्कर अख़बार ने तो अपनी लॉन्चिंग के दौरान अंग्रेजी या नवाबी वक़्त की एक लखौरी ईंटों की इमारत को कर्ण का दरबार करार दे डाला था।
और किराना घराने का ज़िक्र
बहरहाल, कर्ण से इस कस्बे के सम्बंध का दावा कोई मसला नहीं है पर एंकर की बदनीयती मसला है। किराना घराने का ज़िक्र आते ही उस्ताद क़रीम खां साहब और उनके पुरखों का नाम लेने में सुधीर चौधरी को सांप सूंघ गया। मन्नाडे के कैराना में घुसने से पहले वहां की मिट्टी को चूमने और किराना घराने से पंडित भीमसेन जोशी का रिश्ता होने का ज़िक्र किया गया लेकिन किराना घराना जिनकी वजह से किराना घराना है, उनका नाम लेने में एंकर की जबान काम नहीं आई। गौरतलब है कि उस्ताद क़रीम खान साहब के बड़े मेरठ के दोघट से यहां आकर बसे थे।
धीरेश सैनी वरिष्ठ पत्रकार हैं।