15 मार्च को तमाम चैनल और वेबसाइट 16 साल की बच्ची नाहिद आफ़रीन के ख़िलाफ़ फ़तवे का मुद्दा गरमाते रहे। शाम तक यह साबित हो गया कि ऐसा कोई फ़तवा जारी नहीं हुआ था। एनडीटीवी जैसे संजीदा कहे जाने वाले चैनल ने इस पर माफ़ी माँगते हुए कहा कि यह फ़तवा नहीं, अपील थी और उनसे ग़लती हुई। शाम सात बजे के शो में चैनल के सीनियर मैनेजिंग एडिटर अनिंद्यो चक्रबर्ती ने ख़ुद दर्शकों से इस ग़लत ख़बर के लिए माफ़ी माँगी। माफ़ी का यह टुकड़ा नौ बजे रवीश कुमार के ‘प्राइम टाइम’ में भी दिखाया गया।
हालाँकि उनके अंदाज़ में यह बात शामिल थी कि जैसे फ़तवा होता तो ग़लत होता, अपील थी इसलिए कोई बात नहीं। यह बात सिरे से ग़ायब थी कि फ़तवा भी महज़ एक ‘राय’ है जो मुफ़्ती किसी सवाल के जवाब में देता है। यह बताता है कि दीन की नज़र में क्या सही है क्या ग़लत। चूँकि इस्लाम में तमाम फ़िरके हैं, लिहाज़ा फ़तवे में भी मतभेद संभव है। बहरहाल, फ़तवा का अर्थ किस चीज़ का बाध्यकारी होना नहीं है, जैसा कि चैनलों के रुख से लगता है।
दूसरी तरफ़ सबसे तेज़ आज तक के लिए सही-ग़लत जैसे कोई मायने ही नहीं रखता। रात 11 बजे क्राइम रिपोर्टर और ऐंकर शम्स ताहिर ख़ान ने 46 उलेमाओं के फ़तवे हक़ीक़त मानते हुए कार्यक्रम पेश किया-‘साज़ को साज़ ही रहने दो।’ शेरो-शायरी से भरपूर इस कार्यक्रम की बुनियाद एक ऐसी ख़बर थी जो एनडीटीवी की नज़र में शाम को ही झूठी साबित हो चुकी थी। चूँकि कार्यक्रम टीआरपी बटोर सकता था लिहाज़ा चैनल ने सच का गला घोंट दिया।
ख़ुद मीडिया ने जारी किया नाहिद पर फ़तवा
असम की उभरती गायिका नाहिद आफरीन के खिलाफ तथाकथित ‘फतवा‘ का सच सामने आ चुका है। ऐसा कोई ‘फतवा‘ जारी ही नहीं हुआ। एक परचा जरूर निकला, जिसमें 46 कठमुल्लों के हस्ताक्षर थे। लेकिन उस परचे में नाहिद आफरीन का नाम तक नहीं था। इस परचे में 25 मार्च की क्ररात आयोजित एक म्यूजिक शो का बहिष्कार करने की अपील थी।
असम की नाहिद आफरिन ने अभी महज 16 साल की उम्र में ही संगीत में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। अभी वह दसवीं की छात्रा है। टीवी के चर्चित कार्यक्रम ‘इंडियन आइडोल जूनियर‘ 2015 में वह रनर रहीं। सोनाक्षी सिन्हा की 2016 में रिलीज फिल्म ‘अकीरा‘ में भी उसे गाने का अवसर मिला।
ताजा विवाद के मूल में 46 कठमुल्लों के नाम से जारी एक परचा है। असम के होजाई जिले के लंका स्थित उदाली सोनई बीबी कॉलेज में 25 मार्च की रात एक म्यूजिक प्रोग्राम होने वाला है। परचे में इस कार्यक्रम के बहिष्कार की अपील की गई है। गुहार यानी अपील शीर्षक परचे के अनुसार यह कार्यक्रम शरियत के खिलाफ है। हालांकि उस परचे में नाहिद आफरिन का नाम तक नहीं था। परचा जारी के करने वाले 46 नाम में ‘असम राज्य जमायत उलेमा‘ से जुड़े कुछ लोग तथा मदरसों के शिक्षक इत्यादि शामिल थे।
लेकिन चूंकि उस कार्यक्रम में नाहिद आफरिन भी जाने वाली थी, इसलिए कुछ सनसनीखोर स्थानीय पत्रकारों ने इसे नाहिद के खिलाफ फतवा बता दिया। ताज्जुब तो यह कि नेशनल मीडिया भी बिना तहकीकात किये इस मूर्खतापूर्ण सनसनी का हिस्सा बन गया।
हद तो तब हुई, जब असम के मुख्यमंत्री सरबनंदा सोनोवाल ने ट्वीट करके नाहिद आफरिन को पूरी सुरक्षा देने की घोषणा करके फतवा संबंधी
नतीजा यह हुई कि मीडिया तथा सोशल मीडिया में इस मामले को लेकर समुदाय विशेष के खिलाफ उन्मादी कुप्रचार किया जाने लगा। जबकि सच तो यह है कि इस मामले में कोई फतवा जारी ही नहीं हुआ। एक परचा निकाला गया था, लेकिन उसमें नाहिद आफरिन का नाम तक नहीं था। लेकिन 46 कठमुल्लों के नाम पर जारी इस परचे को मीडिया ने फतवा करार दिया। यहां तक कि कुछ अतिउत्साही पत्रकारों ने 46 फतवे जारी होने का हास्यास्पद प्रचार किया।
‘स्क्रॉल डॉट इन‘ की रिपोर्ट के अनुसार ‘असम राज्य जमायत उलेमा‘ के सचिव मौलवी फजलुल करीम कासिमी ने स्पष्ट कहा है कि इस मामले में कोई ‘फतवा‘ जारी नहीं किया गया है। यह मीडिया की शरारत है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे किसी भी कागज के टुकडे़ को फतवा नहीं माना जा सकता।
मौलवी कासिमी के अनुसार जिस जगह 25 मार्च की रात म्युजिक कार्यक्रम होने वाला था, वहां आसपास में धार्मिक एवं शिक्षण संस्थाएं हैं तथा पूर्व में ऐसे आयोजनों के दौरान कतिपय हंगामा हो चुका है। इसलिए उस परचे में लोगों से उस कार्यक्रम में शामिल नहीं होने की अपील की गई थी। मौलवी कासिमी ने यह भी कहा कि मुसलिम समाज को नाहिद आफरिन पर गर्व है।
कोई नेता या सांसद कोई परचा जारी कर दे, तो इसे हम ‘अधिनियम‘ नहीं कह सकते। किसी धर्म का कोई पंडा-मौलवी कोई किताब लिख दे, तो उसे हम ‘धर्मग्रंथ‘ नहीं कहेंगे। उसी तरह किसी मुल्ले के किसी परचे को ‘फतवा‘ नहीं कहा जा सकता।
फतवा क्या है? किसी भी मौलवी के किसी आदेश को फतवा नहीं कहा जा सकता। फतवा कोई फरमान भी नहीं बल्कि किसी धार्मिक विषय पर दी गई कोई सलाह है। ऐसी सलाह देने का अधिकार सिर्फ मुफ्ती को होता है। वह भी तब, जब उससे किसी धार्मिक विषय में कोई सलाह मांगी जाए। वह सलाह भी कोई बाध्यता नहीं। उसे मानना या न मानना व्यक्ति और समाज के हाथ में है।
लेकिन अधकचरी जानकारी के घमंड में उन्मादी पत्रकारों की भक्तनुमा फौज आज मुस्लिम समाज से जुड़ी हर चीज का बतंगड़ बनाने में तुली है। राजनीतिक माहौल इसमें मदद भी कर रहा है। इसके कारण किसी भीचीज का तमाशा बनाना आसान हो जाता है। विवेकवान लोग जब तक तथ्य खोज सकें, उस वक्त तक अफवाह और कुप्रचार के घोड़े पूरी पृथ्वी के सात चककर लगा चुके होते हैं।
आर्थिक दिवालिया होने से ज्यादा खराब है बौद्धिक दिवालिया होना। सनसनी मीडिया और उन्मादी भक्तों ने मानो देश को बौद्धिक दिवालियापन की ओर धकेल दिया है। एक मशहूर कहावत है- ‘‘अगर कोई कहे कि कौव्वा कान ले गया, तो पहले कौव्वे की तरफ मत दौड़ो, पहले अपना कान देखो।‘‘
लेकिन अब कान देखने की फुरसत किसी को नहीं। सब कौव्वे के पीछे भागने लगते हैं। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी का हो रहा है, तो मीडिया का, जिसकी एकमात्र पूंजी, उसकी विश्वसनीयता दांव पर लगती जा रही है। अगर साख ही नहीं रही, तो बचेगा क्या?