इन दिनों ‘नंबर एक’ आज तक समेत कई न्यूज़ चैनल गुजरात चुनाव को ‘राष्ट्रवाद बनाम जातिवाद’ की लड़ाई बताने में लगे हैं। उनकी नज़र में बीजेपी बिना शक़ ‘राष्ट्रवादी’ है (जो देश के हित में है) और विपक्ष ‘जातिवादी’ क्योंकि वह हार्दिक पटेल के आरक्षण आंदोलन के साथ ख़ुद को जोड़ रहा है। अल्पेश और जिग्नेश भी उसकी नज़र में जातिवादी हैं क्योंकि वे क्रमश: पिछड़ी तथा दलित जातियों के हित की बात करते हैं !
आरक्षण का सवाल आते ही कई टीवी ऐंकरों और पत्रकारों के चेहरे पर अजीब सी घृणा टपकने लगती है (संयोग नहीं कि ये चेहरे सवर्ण हैं) और वे ऐसी बातें बोल जाते हैं जो किसी जानकार कि निगाह में नितांत मूर्खता होती है। ऐसा नहीं कि आरक्षण के पूरी तरह ख़िलाफ़ ही हैं, आर्थिक आधार पर आरक्षण के नाम पर उनके चेहरे खिल उठते हैं। लेकिन ग़रीबी से जुड़े आर्थिक प्रश्नों में उन्हें कोई रुचि नहीं है।
हम यहाँ कुछ बातें बिंदुवार रख रहे हैं जिन्हें पढ़कर ऐसे पत्रकार अपना अज्ञान दूर कर सकते हैं-
- आरक्षण वंचित समुदायो पर अहसान नहीं, संविधान में दर्ज उनसे किया गया वायदा है, जिसकी जड़ें गाँधी और डॉ.अंबेडकर के बीच 1932 में हुए पूना पैक्ट में है।
- अनुसूचित जाति को 22 नहीं महज़ 15 फ़ीसदी आरक्षण हासिल है।
- अनुसूचित जनजाति को 7.5 % आरक्षण दिया जाता है।
- ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के संबंध में आरक्षण किन्हीं जातियों नहीं, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया जाता है। समृद्ध हो चुकी जातियों को इस सूची से निकाला जा सकता है।
- आरक्षित वर्गों की केंद्रीय और राज्यस्तरीय सूची में फ़र्क होता है। एक राज्य में अनुसूचित कही जाने वाली कोई जाति दूसरे राज्य में पिछड़े वर्ग में शामिल मिल सकती है।
- कथित रूप से ऊँची कही जानी वाली जातियों को भी कहीं-कहीं आरक्षण का लाभ मिलता है। जैसे बिहार में पूरा वैश्य वर्ग ओबीसी में दर्ज है। कुछ पिछड़ी मुस्लिम जातियों को भी कहीं-कहीं ओबीसी में रखा गया है, वहाँ उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है।
- सामाजिक रूप से पिछड़े होने की वजह से कुछ ब्राह्मण जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता है। जैसे- महाब्राह्मण या गोसाईं ।
- आरक्षण को न सिर्फ संसद से बल्कि सर्वोच्च न्यायालय से भी उचित ठहराया जा चुका है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 % निर्धारित की है, लेकिन विशेष स्थिति में इसे बढ़ाया भी जा सकता है जैसे तमिलनाडु में यह 69 % है।
- आरक्षण को दस साल बाद ख़त्म करने की बात अफ़वाह है। राजनीतिक आरक्षण यानी विधायिका में आरक्षण की दस साल बाद समीक्षा की बात कही गई थी। हर दस साल बाद यह समीक्षा होती है और संसद अगले दस साल के लिए इसे बढ़ा देती है। नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के लिए ऐसी कोई बात नहीं थी।
- डॉ.अंबेडकर ने कभी नहीं कहा कि वे आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं जैसे कि पिछले दिनों आज तक की अंजना ओम कश्यप, हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के साथ बात करते हुए बता रही थीं। उन्होंने दस साल बाद विधायिका में आरक्षण के लाभ की समीक्षा की बात कही थी।
- आरक्षण लागू होने के दशकों बाद भी आरक्षित सीटों को भरा नहीं जा सका है।
आरक्षण को लेकर विचलित पत्रकारों को ये बातें भी पता होनी चाहिए-
- दुनिया भर में पिछड़े समुदायों को बराबरी का अवसर देना सभ्यता की कसौटी माना जाता है। अमरिका में भी ‘डावर्सिटी का सिद्धांत’ लागू है जिसके तहत अश्वेतों, महिलाओं, आदिवासियों से लेकर उन तमाम समुदायों को विशेष अवसर दिया जाता है जो पीछे रह गए हैं। यहाँ तक कि टीवी चैनल भी अश्वेत या एशियाई ऐंकर ज़रूर रखते हैं ताकि दर्शकों में बेगानापन न महसूस हो।
- भारत में वंचित समुदाय के लिए आरक्षण पहली बार 1902 में लागू किया गया। छत्रपति शाहू जी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में इसे लागू किया। वैसे, मनुस्मृति आधारित समाज कुछ जातियों को सत्ता और संसाधन पर सौ फ़ीसदी आरक्षण के सिद्धांत पर चलता रहा है।
- आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। इसका मक़सद सदियों से वंचित समुदायों को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी देकर उन्हें राष्ट्र का अंग होने का अहसास दिलाना है। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि हम तब तक राष्ट्र नहीं बन सकते जब तक कि हमारे सुख-दुख साझा न हों।
- आरक्षण कथित रूप से सवर्णों की बेरोज़गारी का कारण नहीं है। बेरोज़गारी का संबंध उन आर्थिक नीतियों से है जो रोज़गारसृजन में नाकाम रही हैं और रोज़गारविहीन विकास पर ज़ोर देती हैं।चूँकि रोज़गार मिल नहीं रहा है, इसलिए तमाम अनारक्षित तबकों में आरक्षण की माँग बढ़ रही है। यह फ़ौरी हल की तलाश है लेकिन मूल में बेरोज़गारी का दंश ही है जिसे ‘होना चाहिए या नहीं होना चाहिए’ या फिर ‘अयोग्यता-योग्यता’ जैसी बहसों से ढँकना या तो मूर्खता है या अज्ञानता।
अंतिम बात–
आरक्षण समाप्त हो सकता है। सामाजिक बराबरी होने पर आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसलिए आरक्षणविरोधियों को समतामूलक समाज बनाने की बात सोचनी चाहिए। जाति का नाश इसके लिए सबसे ज़रूरी है। जाति पर गर्व और आरक्षण का विरोध पाखंड है जो पत्रकारों में प्रचुर मात्रा में दिखता है।
पत्रकारो को सोचना चाहिए कि आरक्षण को लेकर उनके अंदर जैसी बेचैनी है, वैसी बेचैनी जाति व्यवस्था और बेरोज़गारी बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों को लेकर क्यों नहीं है ?
उम्मीद है कि वे आगे से टीवी पर आरक्षण को लेकर ग़लतबयानी से बचेंगे और अपनी बिरादरी को भी बदनामी से बचाएँगे। जब भी आरक्षण पर बहस की बात आती है, टीवी स्क्रीन अजब ढंग से सवर्ण चेतना से उबलने लगते हैं। उनके हेडर और टॉप बैंड तक इसकी गवाही देते हैं। वे आरक्षण को ‘अपराध’ बताते हुए भी बहस करा सकते हैं। यह न्यूज़ रूम में सामाजिक विविधिता की कमी का नतीजा भी है। यह आज से नहीं, अरसे से जारी है।
.बर्बरीक