कोलकाता में हुई सीपीएम केंद्रीय समिति की हालिया बैठक में कांग्रेस को लेकर नरम रुख अपनाने का महासचिव सीताराम येचुरी का प्रस्ताव गिर गया। उनके प्रस्ताव को 31 मत मिले जबकि पूर्व महासचिव प्रकाश करात की कांग्रेस से दूरी रखने के प्रस्ताव को 55 मत मिले। बहरहाल, अंतिम फ़ैसला अप्रैल में हैदराबाद में होने जा रहे पार्टी महाधिवेशन में होगा।
इस जानकारी के सामने आने के बाद सीपीएम की लानत-मलामत करने वालों की बाढ़ आ गई। प्रकाश करात की लाइन को ‘मोदी का साथ देना’ माना जा रहा है। जबकि इस विवाद ने एक बार फिर साबित किया है कि तानाशाही के लिए बदनाम कम्युनिस्ट पार्टियाँ ही भारत में सबसे ज़्यादा लोकतांत्रिक चरित्र वाली पार्टियाँ हैं, जहाँ ‘लाइन’ तय करने का अधिकार किसी नेता, परिवार या आरएसएस जैसे बाहरी संगठन (जो बीजेपी को नियंत्रित करता है) के पास न होकर, पार्टी के कार्यकर्ताओं के पास है और वे महासचिव को भी ग़लत साबित कर सकते हैं।
यह पहली बार नहीं है। लोग ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए भी पार्टी के ‘कट्टर’ नेताओं को कोसते हैं, लेकिन यह भी देखना चाहिए कि जिस दौर में सत्ता के लिए लोग वल्दियत बदलने को तैयार हैं, कम्युनिस्ट पार्टियाँ प्रधानमंत्री पद को भी छोड़ देती हैं। यही नहीं, इसे ‘ऐतिहासिक भूल’ बताने वाला ज्योति बसु जैसा कद्दावर नेता पार्टी के फ़ैसले के सामने सर झुका लेता है। पिछले दिनों जब सीताराम येचुरी को तिबारा राज्यसभा भेजने के लिए कांग्रेस समेत कई पार्टियाँ समर्थन देने को तैयार थीं, तो भी पार्टी ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि फ़िलहाल नीति दो बार से ज़्यादा किसी को राज्यसभा भेजने का नहीं है।
मोदी को रोकने की लड़ाई को कमज़ोर करने का जैसा रुदन लिबरल तबके में हो रहा है, वह भी अचंभे में डाल रहा है। इससे इतिहास के सबसे कमज़ोर स्थिति में चल रही कम्युनिस्ट पार्टियों की ‘साख’ का पता चलता है। सवाल ये भी है कि लिबरल समाज क्या कम्युनिस्ट पार्टियों और अपना दल या सपा, बसपा में फ़र्क नहीं समझता ? उसे इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि काँग्रेस ने उन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को बदलने का कोई संकेत नहीं दिया है जिसके ख़िलाफ़ लड़ते हुए कम्यनिस्ट कार्यकर्ताओं ने पूरी जवानी होम की है। मोदी व्यक्ति नहीं विचारधार है और उसका आर्थिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य है। आँख मूँद कर काँग्रेस का साथ देने की माँग हास्यास्पद ही है। हद तो है कि मीडिया में भी ऐसा ही शोर है..
कम्युनिस्ट पार्टियों में तमाम अंतर्विरोध हैं, तमाम फ़ैसलों पर असहमति जताई जा सकती है, आलोचना के लायक बहुत कुछ है, लेकिन यह आलोचना कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में करनी चाहिए। पेश हैं कुछ फ़ेसबुक प्रतिक्रियाएँ–
शीतल सिंह
ऐसा आज ही सी.पी.एम. में हुआ जब सीताराम येचुरी ने प्रेस को अपनी पार्टी की सेंट्रल कमिटी के द्वारा लिए गए फैसलों पर ब्रीफ किया ।
शीतल सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।
तो इनकी चिंता कितनी जायज़ है यह इससे ही पता चल जाता है । cpim के अंदर का जनतंत्र इनकी कल्पना से परे है , यहां पार्टी महासचिव द्वारा रखे गए प्रस्ताव को चुनी गई कमेटी बहुमत से खारिज करती है और यह घोषणा पत्रकार वार्ता में खुद महासचिव करते हैं। इसको कहते हैं जनतंत्र और संगठन । यहां व्यक्ति गौण है ।
प्रदीप शर्मा सीपीएम कार्यकर्ता हैं।
सीपीएम में जिस अंतर्विरोध की चर्चा जारी है असल में तो वह फासीवाद विरोध के मसले पर दोनों धड़ों में सहमति ही दर्शाता है| दोनों की राय में फासीवाद विरोध के लिए सभी किस्म के ग़ैर फासीवादी बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर फासीवादी शक्तियों को चुनाव में पराजित करना ही सही रणनीति है| असहमति का बिंदु मात्र इतना कि कांग्रेस, आदि दलों के साथ ऐसा मोर्चा बनाने का वक्त आ गया है या नहीं| केरल में कांग्रेस मुख्य विपक्षी ताकत होने के नाते वहां का संगठन उसके साथ मोर्चे के सख्त खिलाफ है, जबकि बंगाल-त्रिपुरा में अब कांग्रेस शत्रु नहीं बल्कि तृणमूल, बीजेपी के विरुद्ध चुनावी शक्ति को बढ़ाने का उपाय है, मतभेद की जड़ यहीं है|
इस बारे में यहां तक तो बात सही है कि फासीवादी बीजेपी-संघ और अन्य बुर्जुआ दलों में अंतर किया जाना चाहिए ताकि फासीवाद विरोध का मुख्य निशाना स्पष्ट रहे; पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि अन्य दलों के साथ संयुक्त चुनावी मोर्चे द्वारा फासीवाद को पराजित किया जा सकता है| फासीवाद सिर्फ एक चुनावी शक्ति नहीं है बल्कि यह इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा प्रायोजित अत्यंत प्रतिक्रियावादी संगठित मुहिम है जिसका मुख्य सामाजिक आधार सर्वहारा की पांत में खड़े होने से भयभीत टटपूंजिया वर्ग है जिसमें सर्वहारा वर्ग का लम्पट हिस्सा भी पैदल सैनिक का काम करता है| मरणांतक संकट से ग्रस्त पूंजीवाद असंतुष्ट मेहनतकश जनता के वर्ग सचेत, संगठित सर्वहारा के नेतृत्व में पूंजीवाद विरोधी विद्रोह उठ खड़े होने के जोखिम को ख़त्म करने हेतु पहले ही फासीवाद के रूप में एक प्रतिक्रान्तिकारी मुहिम खड़ा करता है| इसे पराजित भी वर्ग सचेत सर्वहारा के नेतृत्व में क्रांतिकारी जनउभार से ही किया जा सकता है, चुनाव से नहीं| चुनाव में हार से भी यह मुहिम थोड़े तात्कालिक विघ्न के बावजूद जारी रहती है| अन्य बुर्जुआ दल खुद फासीवादी न होते हुए भी इसके खिलाफ लड़ने का इरादा तो दूर, अपने शासन में इसे प्रशासनिक संरक्षण देते हैं क्योंकि नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न जनरोष के विरुद्ध वह भी पूरे पूंजीपति वर्ग के लिए – आंदोलनों को कमजोर करने और दमनचक्र चलाने में इसकी उपयोगिता को अच्छी तरह से समझते हैं| यूपीए की दस साल की नीतियों या कांग्रेस, सपा, तृणमूल, आदि सभी दलों की राज्य सरकारों की नीतियों को भी इसी आलोक में समझना होगा|
दूसरे, कांग्रेस जैसे दलों के साथ मोर्चा मेहनतकश तबके को वामपंथी आंदोलन से अलग-थलग कर फासीवादी शक्तियों के प्रभाव में जाने का मौका देता है जो खुद को इन बुर्जुआ दलों की जनविरोधी नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ एकमात्र ईमानदार ताकत के रूप में प्रस्तुत करने का स्वांग रचने में कामयाब होता है|
तीसरे, बुर्जुआ वर्ग ने इतिहास से यह भी सीखा है कि फासीवाद विरोधी आंदोलन को भी कैसे सर्वहारा वर्गीय आंदोलन के खिलाफ इस्तेमाल किया जाये| इसके लिए फासीवाद विरोधियों में फासीवाद के आतंक की हलचल का उपयोग कर यह भय पैदा करना कि सभी गैर फासीवादी शक्तियों के साथ मोर्चा न बनाना फासीवाद का साथ देना है और इस भय की आड़ में किसी बुर्जुआ नेता को फासीवाद विरोधी हीरो के रूप में प्रस्तुत करना ताकि, अगर जनता में फासीवादी ताकतों के खिलाफ रोष पैदा भी हो तो उसे सर्वहारा के नेतृत्व में क्रांतिकारी उभार की ओर जाने से रोका जा सके|
इसलिए फासीवादी शक्तियों और अन्य दलों में भेद करना तो उचित है लेकिन फासीवाद के भय से मजदूर वर्ग विरोधी राजनीति करने वाले दलों की गोद में जा बैठना भी पूरी तरह गलत है| यहां बुर्जुआ वर्ग के अंतर्विरोधों को इस्तेमाल करने का सवाल उठेगा, तो यह कहना जरुरी है कि दूसरे के अंतर्विरोध का इस्तेमाल दुमछल्ला बनकर नहीं बल्कि अपनी स्वतंत्र शक्ति संगठित कर सही रणनीति-रणकौशल द्वारा ही किया जा सकता है|
इसलिए चुनावी मोर्चा नहीं बल्कि सभी वाम दलों और समूहों का फासीवाद विरोधी सर्वहारा नीत मोर्चा ही वक्त और वस्तुगत परिस्थितियों की मांग है| ऐसा मोर्चा ही मध्यम वर्ग तथा बुर्जुआ बुद्धिजीवियों में मौजूद कुछ फासीवाद विरोधी उदारवादी तबकों को भी फासीवादी गिरोहों के आतंक के खिलाफ संघर्ष में उतरने लायक जान फूंक सकता है| सभी वामदलों की फासीवाद विरोधी कतारों को ऐसे मोर्चे के लिए अपने नेतृत्व पर दबाव बनाना चाहिए|
मुकेश असीम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
मुझे 1970-71 में कॉमरेड भुपेश गुप्त के साथ हुई एक बातचीत याद आ रही है. मैंने सुभाष बोस के लिये कम्युनिस्टों की ओर से कहे गये अपशब्दों का ज़िक्र छेड़ा था और उनकी राय जानना चाहता था. अपनी याददाश्त से उनकी बातों को दोहरा रहा हूं.
कॉमरेड गुप्त ने कहा कि पार्टी की किसी दस्तावेज में ऐसी कोई बात नहीं कही गई थी. पार्टी के बांगला मुखपत्र में एक लेख में ये बातें कही गई थीं, जिनकी आज भी चर्चा होती है. उन्होंने कहा कि राजनीतिक मूल्यांकन में बोस के साथ हमारे मतभेद थे और हमने आलोचना की. यह पूरी तरह से जायज़ था. लेकिन हमने सुभाष की देशभक्ति पर सवाल उठाया. यह बिल्कुल ग़लत था और हमने इसके लिये माफ़ी मांगी है.
इसके बाद मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा : दूसरी ओर, हमारे विरोधी मौक़ा मिलते ही हमें देशद्रोही कहते हैं. क्या उन्होंने कभी अपनी ग़लती स्वीकार की है ?
चंचल कुमार ने भी यही किया है. पेकिंग के निर्देश पर कम्युनिस्ट ऐसा कर रहे हैं. दूसरे शब्दों में, वे देशद्रोही हैं.
पहला सवाल तो यह है कि आपने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार इन देशद्रोहियों को अपने साथ लिया है. अब भी आपको शिकायत यह है कि ये देशद्रोही कांग्रेस का समर्थन नहीं कर रहे हैं. देशद्रोहियों का समर्थन चाहना कैसी देशभक्ति है जनाब ?
आपका मानना है कि करात की लाईन दरअसल मोदी को बनाये रखने के लिये पेकिंग के षड़यंत्र का अंग है. आपकी राजनीतिक बुद्धिमत्ता अपनी जगह पर, मैं कोशिश करूंगा कि करात लाईन के बारे में मेरी क्या समझ है.
मुख्यधारा की तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में संसदीय लोकतंत्र को स्वीकार करती हैं, चुनाव में भाग लेती हैं. इनमें से दो पार्टियां सरकारों में भाग ले चुकी हैं, सरकार बना चुकी हैं. लेकिन उनकी पार्टी कार्यक्रम आधारित समझ के अनुसार यह भागीदारी क्रांति के लिये, आमूल सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिये वृहत्तर व दीर्घकालीन रणनीति का हिस्सा है, उसके लिये तैयारी है.
लेकिन अमल में क्या हो रहा है ? इन पार्टियों का पूरा ध्यान, उनकी समूची राजनीति अपने-अपने चुनावी किले की रक्षा पर केंद्रित हो चुका है. इस बार भी हमने देखा कि सीपीएम के अंदर दो परस्परविरोधी लाइनों की वकालत मुख्यतः केरल और बंगाल से आये सदस्य कर रहे थे. केरल में वामपंथियों की चुनावी लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे से है. दूसरी ओर, बंगाल के कामरेड चुनावी मैदान में भी भाजपा से मिल रही चुनौती को महसूस कर रहे हैं. भारत की राजनीतिक परिस्थिति का – कम से कम – मार्क्सवादी नज़रिये से मूल्यांकन नहीं, बल्कि सीटें जीतना और सरकार बना सकना ही उनकी रणनीति का आधार बन चुका है. संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी से आगे बढ़कर वे अवसरवादी संसदीय लोकतंत्रवाद से ग्रस्त हो चुके हैं.
इससे उबरकर उन्हें संघर्ष के रास्ते पर आना पड़ेगा. सारे देश में उभर रहे संघर्ष से जुड़ना पड़ेगा. नई चुनौतियो को समझना पड़ेगा, उनका सामना करना पड़ेगा.
उज्ज्वल भट्टाचार्य कवि और पत्रकार हैं।