सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दिन मीडिया की लाचारी का होता है!

 

संजय कुमार सिंह

अखबारों के आम पाठकों के लिए आज जैसा दिन बहुत कम होता है। सबको पता होता है कि पहले पेज पर क्या खबरें होंगी क्या लीड होगी और यहां तक कि उसका शीर्षक क्या होगा और मोटा-मोटी डिसप्ले क्या होगा, इसका भी अंदाजा लगाया जा सकता है और लगभग सही निकलता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अखबारों में ना टीका टिप्पणी होती है ना उसका विरोध किया जा सकता है। सप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजनीतिक टिप्पणी या प्रभावितों की प्रतिक्रिया भी नपी-तुली होती है। इसलिए उसमें भी अखबारों के पास ज्यादा गुंजाइश नहीं होती है।

आए दिन खबरों को ज्यादा प्रमुखता देकर या दबाकर या फिर शीर्षक से मामले को घुमाकर प्रस्तुत करने वाले अखबार ऐसे मामलों में शीर्षक भी अपने अनुसार नहीं लगा पाते हैं। इन मौकों पर मुझे ‘द टेलीग्राफ’ का इंतजार रहता है। आज अंग्रेजी हिन्दी के सभी अखबारों के शीर्षक से अलग है टेलीग्राफ का शीर्षक। टेलीग्राफ ने लिखा है, Aadhar for subsidy valid but blow to Bank-and-Phone Big Brother. यह अंग्रेजी अखबारों के रूटीन शीर्षक से बिल्कुल अलग है। हिन्दी में इसकी जगह लिखा जा सकता था, “सबसिडी के लिए आधार वैध पर बैंक और फोन वालों की दादागीरी नहीं चलेगी।” पर किसी ने ऐसा कुछ नहीं किया।

यही नहीं, टेलीग्राफ ने आधे पन्ने से ज्यादा में इस खबर को खूब विस्तार से समझा कर सवाल जवाब की शक्ल में लिखा है। टेलीविजन पर हमेशा गुस्से में दिखने वाले केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले को ‘ऐतिहासिक’ कहा है। द टेलीग्राफ ने इस खबर को सात कॉलम में छापा है और विधि व सूचना तकनालाजी मंत्री रविशंकर प्रसाद की दो कॉलम की फोटो का कैप्शन है, “ऐतिहासिक? जरा मुस्कुराइए। केंद्रीय विधि व सूचना तकनालाजी मंत्री रविशंकर प्रसाद बुधवार को एक प्रेस कांफ्रेंस में। प्रसाद ने गए साल ट्वीट किया था, ‘सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार’ मोबाइल फोन नंबर को आधार के साथ लिंक होना चाहिए ने बुधवार को अदालत के फैसले को ऐतिहासिक कहा।”

संबंधित खबर में एक सवाल है, विजेता कौन है? निजता स्पष्ट रूप से विजेता रही हालांकि अदालत ने कहा है कि हाशिए पर पहुंच गए व्यक्ति का सम्मान निजता से महत्वपूर्ण है। अगला सवाल है, राजनैतिक विजेताओं के बारे में क्या ख्याल है? सरकार और विपक्ष ने जीत का दावा किया है जबकि ऐक्टिविस्ट्स ने निराशा जताई है क्योंकि सबसिडी अब भी आधार से जुड़ी हुई है। कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि स्वेच्छा से डाटा संग्रह करने के उसके रूपांतर को बहाल कर दिया गया है पर मोदी सरकार कह सकती है कि कालाधन पर नियंत्रण के लिए आधार को पैन से जोड़ने के उसके निर्णय की अदालत ने पुष्टि की है।

ठीक है, अब मैं सवाल को दूसरी तरह से रखता हूं? किसे ज्यादा नुकसान हुआ है? मोदी सरकार को। क्यों? आधार के ज्यादातर प्रावधान यूपीए सरकार के थे। उसी ने 2009 में यूआईडीएआई का गठन किया था। पर मोदी सरकार ने 2016 में एक विधेयक के जरिए इसे वैधानिक रूप दिया था। अगर मोदी सरकार चाहती तो इस आदेश की धारा 57 को खुद खत्म कर सकती थी। यही नहीं, जो अन्य नियम खारिज किए गए हैं वो सब मोदी सरकार ने लागू किए थे। धारा 57 से टेलीकॉम कंपनियों, कॉरपोरेट और अन्य संस्थानों को बायोमीट्रिक जानकारी लेने की इजाजत थी।

अखबार ने अपनी लंबी और विस्तृत खबर के अंत में लिखा है, केंद्रीय गृहमंत्रालय ने 2017 में कहा था कि मृत्यु के पंजीकरण के लिए आधार “आवश्यक” होगा। सरकार ने बाद में कहा कि यह आदेशात्मक नहीं है पर असल में यह आवश्यक हो गया था। अब इसे लागू नहीं किया जा सकता है। मोदी सरकार ने अभी हार नहीं मानी है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा है, पहले हम फैसले को पढ़ लें। इसमें दो से तीन प्रतिबंधित क्षेत्र हैं। क्या ये ऐसे हैं क्योंकि पूरी तरह प्रतिबंधित हैं या इसलिए कि उन्हें कानूनी सहायता या समर्थन चाहिए। ऐसा कुछ किसी और अखबार में दिखा क्या?

अखबार ने पहले पन्ने की अपनी खबर के साथ अन्दर के पन्ने देखने की भी सूचना लगाई है। इसमें विदेशी खबरों का पन्ना पेज तीन भी है। उसे आज आधार फैसले का पेज बनाया गया है और लीड खबर का शीर्षक है, Blow to aggressive push by govt to link services यानी सेवाओं को आधार से लिंक करने की सरकार की आक्रामक कोशिशों को झटका। अखबार का चौथा पेज भी आधार फैसले का है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।



 

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