शुक्रिया एबीपी, लेकिन अभिसार की ‘सांकेतिक एँकरिंग’ ख़तरनाक है !

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सच कहूँ तो मुझे उम्मीद थी। ‘एक चूहे की मौत’ और ‘छाको की वापसी’ जैसे महत्वपूर्ण उपन्यासों के लेखक बदीउज़्ज़माँ के बेटे शाज़ी ज़माँ अगर एबीपी के संपादक हैं, तो यह स्वाभाविक था कि अल्लामा इक़बाल को मरणोपराँत पाकिस्तान भेजने वाले एंकर अभिसार शर्मा खेद जताते। शाज़ी के साथ कामकाज के लंबे अनुभव ने भी यह भरोसा दिया था कि चैनल मसले पर संवेदनशीलता दिखायेगा।
तो हुआ यह कि 22 दिसंबर की रात करीब 10 बजे ‘बड़ा प्रश्न’ ख़त्म करते हुए अभिसार शर्मा ने एक दिन पहले की गई ग़लती पर खेद जताया। (मैंने ख़ुद नहीं देखा। मुझे लोगों ने बताया तो मैंने इंटरनेट पर पुष्टि की) चैनल की स्क्रीन पर लिखा चमक रहा था—
“कल रात 9.30 बजे राममंदिर पर बहस के दौरान हमने कहा था कि इक़बाल पाकिस्तान चले गये थे जो तथ्य के आधार पर सही नहीं है। हमें इसका खेद है।”
लेकिन बात इतनी ही नहीं थी। खेद वाली अंतिम लाइन पढ़ने के पहले अभिसार ने यह भी जोड़ा—
“इसके सांकेतिक मायने थे, जो हम रखने की कोशिश कर रहे थे। इक़बाल पाकिस्तान के बड़े प्रतीक बन गये हैं। मगर किसी को बुरा लगा हो तो हमें खेद है।”
सुना है कि अभिसार भी शाज़ी की तरह बीबीसी जैसी जगह पर काम कर चुके हैं। तथ्यों की पवित्रता और संदर्भ को वहाँ बहुत महत्व दिया जाता है। तो फिर अभिसार के ‘सांकेतिक मायने’ क्या थे और यह उन्होंने कहाँ से ग्रहण किया ? ‘इक़बाल पाकिस्तान चले गये थे’ जैसे वाक्य से कोई दूसरा संकेत कैसे ग्रहण कर सकता है जबकि अल्लामा 1938 में ही दिवंगत हो गये थे। तब तक तो मुस्लिम लीग ने भी देश से अलग पाकिस्तान का प्रस्ताव नहीं पारित किया था। ‘इक़बाल पाकिस्तान के बड़े प्रतीक यूँ ही तो नहीं बन गये’ हैं, इसमे अभिसार शर्मा जैसे ‘समर्थ पत्रकारों’ का भी कम हाथ नहीं है।
पिछले दिनों अभिसार की तुलना मे एक ‘मामूली’ पत्रकार और कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर ने इक़बाल पर लिखे एक लेख में कहा था–
“इकबाल बड़े विद्वान और चिंतक थे, लेकिन उनके विचार किसी खांचे में नहीं अंटते। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि इकबाल उस पाकिस्तान के समर्थक थे, जो मुस्लिम लीग ने बनाया। सन 1934 में ई.जे थॉमसन को लिखी चिट्ठी में इकबाल कहते हैं- ‘आप मुझे पाकिस्तान की योजना के उद्घोषक कहते हैं। पाकिस्तान मेरी योजना नहीं है। मैंने अपने भाषण में जो सुझाव दिया था वह भारत के उत्तर -पूर्व में एक मुस्लिम प्रांत का था। मेरी योजना के मुताबिक यह प्रांत प्रस्तावित भारतीय संघ का हिस्सा होगा।’ इकबाल के विचार इस मुस्लिम प्रांत के बारे में बदलते रहे, लेकिन भारत विभाजन की कल्पना उनके यहां कहीं नहीं है। बंगाल में तो वे मुस्लिम बहुमत वाला प्रांत भी नहीं चाहते थे।“
यानी इक़बाल भारतीय संघ से अलग देश की कल्पना नहीं कर रहे थे। दरअसल, आज़ादी के बाद के नक्शे को लेकर तमाम बहसें चल रही थीं। सिखों और दलितों के अलग देश की माँग भी हो रही थी। रजवाड़े भी स्वतंत्र होने का सपना देख रहे थे। ऐसा करने वालों को आज भारतद्रोही नहीं कहा जा सकता। अभिसार अगर थोड़ी कोशिश करें तो यह सब जान सकते हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि उनके दिमाग़ ने इक़बाल को लेकर जो ‘संकेत’ ग्रहण किये, उनका प्रसारण राजनीति के किस रेडियो स्टेशन से हो रहा है। मेरी नज़र में तो यह सब संयोग नहीं है। बहरहाल, अभिसार को भी धन्यवाद कि उन्होंने कुछ नरमी दिखाई वरना इक़बाल उनके जैसे स्टार एँकर का क्या बिगाड़ सकते थे !

(पत्रकार पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक पेज से )

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