पहले पढ़िए, हिंदी के आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संजीव कुमार की एक फ़ेसबुक पोस्ट–
वह कहती / अप्पा, मैं डॉक्टर बनूंगी / और अपना अस्पताल खोलूंगी / हम लोग हंसने लगते / और वह कहती जाती / मेरे अस्पताल फ्री का होगा / वहां सबका मुफ़्त इलाज होगा…
बहुत सपने देखती थी वह / अपने सपनों के लिए ही जीती थी / और हम सिर्फ उसके लिए…
कविता और किसे कहते हैं! यह अनीता के पिता का कथन है – तमिलनाडु की वही ज़हीन दलित बच्ची जिसने शुक्रवार को आत्महत्या कर ली. (पिछले साल मेडिकल दाखिले के लिए अचानक राष्ट्रीय पैमाने पर NEET लागू कर दिया गया. अपने पढ़े हुए सिलेबस के आधार पर मेडिकल दाखिले के लिए होने वाले इम्तहान में अनीता को 200 में से 197.75 अंक आये थे, वहीं NEET के परिणामों में वह 86 परसेंटाइल पर आ गयी. औचक ही थोप दिए गए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ने उसे तोड़ कर रख दिया, और अब दाख़िला उसी के आधार पर मिलना था. अदालत में गुहार लगाई. कोई फायदा नहीं हुआ…. अंततः उसने इस दुनिया से इस्तीफ़ा दे दिया….)
अब पढ़िए, मशहूर टी.वी पत्रकार रवीश कुमार का विश्लेषण
कई राज्यों ने केंद्र सरकार को लिखा कि इस पर ध्यान दीजिए। कुछ नहीं हुआ तो कई लोग अदालत गए। केंद्र सरकार राज्यों की मांग को गंभीरता से नहीं ले सकी। उसे अंत अंत तक लगता रहा कि अलग अलग भाषा के अलग अलग प्रश्न पत्रों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। जब व्यापम मामले के समय से मेडिकल परीक्षा के लिए लड़ने वाले आनंद राय की याचिका पर सीबीएसई ने कुछ आंकड़े दिए तो पोल खुल गया। अगर ये आंकड़े हैं तो हम सभी को शर्म आनी चाहिए। पूछना चाहिए कि इस देश में भाषाई छात्रों के भविष्य का कोई माई बाप है या नहीं। उनके एक साल से क्यों खिलवाड़ किया गया?
नीट की परीक्षा 720 अंकों की होती है। सी बी एस ई ने जो आंकड़े पेश किए उसके अनुसार 600 से अधिक अंक हासिल करने वाले छात्रों में से सिर्फ एक छात्र भाषाई माध्यम का था। 3000 छात्र अंग्रेज़ी माध्यम के थे। 500 से 600 अंक लाने वाले छात्रों में 84 छात्र भाषाई माध्यम के थे और 23,000 छात्र अंग्रेज़ी माध्यम के। सोचिए 500 से ऊपर जिन छात्रों ने क्लालिफाई किया है उसमें अंग्रेज़ी माध्यम के 26,000 छात्र हैं और भाषाई माध्यम के मात्र 85। यह मज़ाक नहीं है तो क्या है। मैं नहीं मानता कि उड़ीया, बांग्ला, तमिल या तेलुगू या गुजराती का कोई छात्र अंग्रेज़ी माध्यम से कम होते हैं। इन्हें सिस्टम ने बाहर किया है।
तमिलनाडु की अनिता की ख़ुदकुशी सिर्फ उसके सपनों को हत्या नहीं है। मैं नीट देने वाले कई छात्रों से मिला हूं। वो अपने सपनों को लेकर सिसकते रहे मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सभी चैनलों अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाते रहे। ट्वीटर पर ट्वीट कर ध्यान खींचते रहे। सैंकड़ों छात्र ईमेल करते रहे। मेरे दफ्तर के बाहर छह छह घंटे से किशोर उम्र के ये बच्चे इंतज़ार करते रहे कि कोई तो उनकी बात उठा दे। उन छात्रों की वजह से ही मुझे समझ आया कि मेडिकल प्रवेश परीक्षा में कितने प्रकार का व्यापम चल रहा है और इससे ध्यान हटाने के लिए देश को हिन्दू बनाम मुस्लिम के मसले में को उलझा दिया गया है। ये नौजवान सिसकियों में लपेट कर अपने टूटे सपनों को चुपचाप ले गए। समझ गए कि दिल्ली का सिस्टम बातें करता है, समाधान नहीं करता।
पिछले ही हफ्ते हमारे सहयोगी राजीव पाठक ने अहमदाबाद से रिपोर्ट की थी कि गुजराती माध्यम के छात्रों के माता पिता सड़कों पर उतरे हैं। उनकी मांग है कि सरकार गुजराती माध्यम के हिसाब से मेरिट लिस्ट बनाए। उनके सवाल मुश्किल आए थे। राज्यों के मेडिकल कालेज में गुजराती माध्यम के छात्रों को बोर्ड परीक्षा के आधार पर रैकिंग मिले और सीबीएसई के छात्रों के लिए अलग। हर राज्य में सीबीएसई और ग़ैर सीबीएसई स्कूलों के छात्रों में बंटवारा हो गया है। हर जगह सीबीएसई स्कूल के छात्र ही भर गए हैं। मराठी, गुजराती या तमिल माध्यमों के छात्रों को एडमिशन नहीं मिला।
नीट की कहानी को समझने के लिए पृष्ठभूमि में जाना ज़रूरी है। 2013 में प्रयोग के तौर पर कपिल सिबब्ल ने अखिल भारतीय परीक्षा व्यवस्था के लिए एक प्रयोग किया। आधा अधूरा रह गया, 2014-15 में नीट परीक्षा नहीं हुई। 2016 के साल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नीट की परीक्षा होगी। छात्रों ने स्वागत किया कि अब जगह जगह काउंसलिंग के लिए भटकना नहीं होगा, फीस नहीं भरनी होगी मगर सिस्टम ने उनका गला घोंटने के दूसरे तरीके निकाल लिए। उस साल सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले को केंद्रीय मंत्री डाक्टर हर्षवर्धन ऐतिहासिक बताते हुए स्वागत कर रहे थे, ट्वीट कर रहे थे, उनकी सरकार उसी फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश ला रही थी। नीट की एक परीक्षा हो चुकी थी मगर बाद में तय हुआ कि एक और होगी। ऐसा किसी देश में आज तक हुआ है, आपने सुना है। यही नहीं, पिछले साल उन प्राइवेट मेडिकल कालेज को अपनी परीक्षा आयोजित करने की छूट दे दी गई, जिनके यहां सरकारी कोटा नहीं है।
कई राज्यों में मेडिकल की प्रवेश परीक्षाएं अंग्रेज़ी माध्यम में ही हुआ करती थीं। तय हुआ कि नीट अंग्रेज़ी और हिन्दी में होगी मगर राज्यों के दबाव के आगे इसे सात आठ भाषाओं में कराने का फैसला किया गया। अगले साल से उर्दू में भी प्रश्न पूछे जाएंगे। यह बहुत अच्छा कदम था। इससे भाषाई छात्रों को डाक्टर बनने का सपना दिखन लगा मगर अलग अलग ही नहीं, मुश्किल सवाल पूछकर उनके सपने पर पहले ही साल हमला कर दिया गया। आनंद राय कहते हैं कि ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में वही डाक्टर जाते हैं जो वहां के होते हैं। इसलिए मेडिकल सिस्टम में जब तक इन इलाकों से ज्यादा संख्या में डाक्टर नहीं आएंगे, यहां डाक्टरों की समस्या दूर नहीं होगी।
17 अगस्त को नेशनल बोर्ड आफ एग्ज़ामिनेशन के डायरेक्टर बिपिन बत्रा को हटा दिया है। उन पर नियमों का उल्लंघन कर डायरेक्टर बनने का आरोप था और अब कई प्रकार की गड़बड़ियों की जांच हो रही है। ये क्या देश है कि इतनी महत्वपूर्ण संस्था का निदेशक कोई धांधली या जुगाड़ से बन जाता है? हमने अपने नौजवानों को कोचिंग माफिया और परीक्षा सिस्टम के दादाओं का चारा बना दिया है।
(रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा naisadak.org से साभार प्रकाशित. )