नभाटा में ‘पुष्यमित्र शुंग’ बनाकर लाए गए थे विद्यानिवास मिश्र !

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?

भाऊ कहिन-21

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

‘शान-ए-सहारा’ में इंदिरा गाँधी की निरंकुशता पर छपा तो नाराज़ हुए सहाराश्री

 

जिंदगी के जीत की कौंध , जिन नामों का उल्लेख पिछली पोस्टों में आया है , सवाल उनसे भी बनते हैं । वे क्यों अपने रोमानी , शास्त्रीय दुर्गों में ही इतने आत्ममुग्ध और महफूज बने रहे कि आज हम जैसों के पास खुद को छीलने या कोसने के अलावा और कुछ नहीं बचा ।
एक खास बीमारी और लंपटई का , हिन्दी मीडिया की मुख्यधारा में इस तरह पसर जाना , आखिर अचानक तो हुआ नहीं होगा ।
क्यों वही सब चीजें सामने हैं जिन्हें हमने अपने संघर्षवादी सोच में शामिल ही नहीं किया ।
‘ शान – ए – सहारा ‘ जब लखनऊ से प्रकाशित हो रहा था , उस समय मुद्रण की पत्रकारिता अपने समीकरणों में बदलाव के दौर से भी गुजर रही थी । हिन्दी और दूसरे भाषाई अखबार भी अंग्रेजी की तरह ‘ मोनोपोली ‘ और ‘ ब्रांडनेम ‘ की लड़ाई अब समझने लगे थे ।
अंग्रेजी मीडिया ने ‘ एलीट ‘ तबके की पत्रकारिता का जो मूल्य स्थापित किया , उसका असर हिन्दी अखबारों पर भी पड़ा । वे यह भूल गये या इसको दरकिनार कर दिया गया कि , उससे वस्तुतः किन्हें संबोधित होना है । मीडिया में विज्ञापनों के हिस्से के लिये जबरदस्त स्पर्धा शुरू हो गयी ।
90 के बाद तो अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में भी हिन्दी अखबारों के बाजार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । लेकिन उपभोक्ता बाजार के विस्तार और उसकी जरूरतों की मांग पर । इसलिए हिन्दी अखबारों से उनका अपना सरोकार और नवोन्मेष की कोई संभावना किनारे लगती गयी ।
‘ शान – ए – सहारा ‘ भी बंद हुआ और जाने किन मजबूरियों में ‘ …भारत गुलामी की ओर ‘ जैसी प्रतिकार की श्रृंखला चलाने वाले अखबार में संपादकीय शीर्ष पर , गैर पत्रकारों की नियुक्तियां होने लगीं । शान – ए – सहारा बंद होने की भी अलग कहानी है । जाहिर है कामयाबी का पहाड़ चढ़ रहे किसी शख्स की कुछ सनक भी होती है । अब तो पूरी तस्वीर ही बदल गयी ।
ढेड़ करोड़ की गाड़ी से चलने वाला इन्द्र , एक शख्स ,15 से 20 हजार वेतन पाने वाले रिपोर्टरों से कहने लगा था —
…. आप प्रजेंटेबुल बनिये .. आकर्षक दिखिये । ( विभिन्न ब्रांडों के नाम लेकर ) ….. आप फलां की शर्ट और जींस पहनिए ।
अब तो लगता है ‘ शान – ए – सहारा ‘ निकल भी रहा होता तो , असहिष्णुता के खिलाफ , आंत और अनाज के बीच खड़े शैतान या दलाल के खिलाफ यहां कुछ नहीं प्रकाशित होता ।
और अगर ऐसा कुछ छपता तो तड़ित कुमार , आनंद स्वरूप वर्मा , अभय दुबे , उर्मिलेश और रामेश्वर पांडेय ‘ काका ‘ , शान – ए – सहारा ‘ में न होते । लेकिन याद तो रहेगा कभी का उसका तेवर । याद तो यह भी है कि आपात काल को लेकर इंदिरा गांधी के निरंकुश व्यक्तित्व पर लिखा जाना , सहाराश्री को नहीं अच्छा लगा । वह बहुत नाराज थे ।

 ‘ नम दूब , गुनगुनी धूप , नाश्ते में जूही चावला ..’

 

हरिराम मीणा की ‘ रोया नहीं था यक्ष ‘ याद आ रही है ।

पुस्तक की भूमिका में वह लिखते हैं —

‘ …..इक्कीसवीं सदी में , जिसके विश्व पट पर दिखायी दे रही है बिल गेट्स की विशाल और आकर्षक प्रतिमा । प्रतिमा के शीर्ष के नेपथ्य में एक आभावृत्त जिसकी चकाचौध में उत्साही भीड़ । कोई इंद्रजाल या चक्रव्यूह जिससे बाहर निकलने की किसी मंशा या तरकीब का अंकुरण भी नहीं किसी के मन में । इसी बिल गेट्स की मोहिनी छवि में वह ‘ मेघ ‘ अटक कर रह गया ,जैसे उसकी आकृति और हाव -भाव से भरे कैनवास में ही उसे नजर आ रहे थे , यक्ष – यक्षिणी , कुबेर और इर्द – गिर्द बसी अलकापुरी … ‘।
‘ राष्ट्रीय सहारा ‘ , अपने ‘ भारत गुलामी की ओर .. ‘, श्रृंखला के लिए याद तो रहेगा । अखबार के मौजूदा हस्र के लिये , ज्यादा जिम्मेदार , बाद में संपादकीय शीर्ष पर आये कुछ लंपट ही हैं ।
याद आती है अपने व्यक्तित्व से विकरित कहानियों की वजह से तकरीबन ‘ लीजेंड ‘ बन गये ‘ सहाराश्री ‘ के इंटरव्यू की तैयारी , जिसके जरिये भारी विज्ञापन में भारी कमीशन का अच्छा – खासा माल दैनिक जागरण के तत्कालीन स्थानीय संपादक और प्रबन्धक विनोद शुक्ल जी को मिलना था ।
तब उन्हें सहाराश्री का शानदार साक्षात्कार करने के लिये कोई मिल नहीं रहा था । खोजी , यायावर और हम सब के समय के अप्रतिम और चहेते गद्यकार , अनिल कुमार यादव ( तब जागरण में नहीं थे ) की किस तरह खोज हुई और कितनी मनुहार से उन्हें इसके लिये तैयार किया गया , यह अलग कहानी है ।  मुलाकात के दौरान मीडिया डॉन शुक्ल जी , सहाराश्री के आगे अपनी दीनता भी रोये थे । और जैसा कि सहाराश्री की आदत थी , शुक्ल जी की तरफ बिना देखे , वह जहाँपनाह की तरह उनको सुनते भी रहे । अपने सहायकों को उनकी ( डॉन की ) निजी मदद का निर्देश भी ।

यह वह समय भी था जब अंग्रेजी की काम चलाऊ या मामूली जानकारी वाले हिंदी अखबार के कुछ संपादकों की मेज पर , अंग्रेजी पत्र – पत्रिकाएं अचानक दिखने लगीं । वे अंग्रेजी अखबारों की नकल पर अपनी प्राथमिकता और कंटेट निर्धारित करने लगे । उन्हें यह नहीं दिखा कि 1985 के आस – पास ही बैनेट कोलमैन एंड कम्पनी में किस तरह हिंदी के खिलाफ माहौल बनता गया था । शीर्ष प्रबंधन के अपने स्वार्थ ने हिंदी के खिलाफ एक गैरजाहिरा मुहिम छेड़ दी थी । टाइम्स ग्रुप की हिन्दी पत्रिकाएं एक – एक कर बंद हुईं । जबकि इन समूहों ने हिंदी प्रिंट मीडिया का बाजार और विस्तार देखते हुये , हिन्दी अखबार को बहुसंस्करणीय बनाना शुरू ही किया था ।
हिंदी अखबारों की भकुआहट का दौर यहीं से शुरू होता है । उनके पास जाहिर है न अपने हिस्से की जमीन बचनी थी , न आसमान । वैचारिक पतन से आयी शून्यता , को लंपटई से भरना था , जिसका सर्वाधिक गंदा दृश्य आज दिख रहा है ।
सहारा के ही किसी कार्यक्रम में जब तकरीबन पूरे बॉलीवुड की जुटान लखनऊ में ही थी , यशस्वी पत्रकार नवीन जोशी की एक रपट ‘ नम दूब , गुनगुनी धूप , नाश्ते में जूही चावला ..’ आज भी याद है । नवीन जी को कैसे लगा कि मौसम बदल गया । यह रपट भी याद है ।
इस तरह की रपट क्या अंग्रेजी में संम्भव थी ? हिंदी ने अपनी ताकत समझी कब ?

हैलमेट न पहनने पर सहारा में लगा था 500 रुपये जुर्माना  

 

— आप हैलमेट पहनते हैं ?

— जी , इसकी आदत तो दिल्ली में ही पड़ गयी । ट्रैफिक कानून के तहत ये जरूरी तो है ही , दुर्घटना के दौरान लाइफ सेवर भी है ।
सहाराश्री बहुत खुश हुये ।
दरअसल वह एक दिन  शान – ए – सहारा ‘ के दफ्तर में घूम रहे थे । विजिट थी उनकी। वह आनंद स्वरूप वर्मा के पास चले गये । सहाराश्री से बातचीत के दौरान मेज पर आनंद स्वरूप वर्मा का हैलमेट रखा था ।
तभी सहाराश्री ने उनसे पूछा था —
आप हैलमेट पहनते हैं ? … यह तो बहुत अच्छी बात है । मैंने ऐसा देखा नहीं था ।
फिर वहीं के वहीं से , जो मोटरसाइकिल या स्कूटर से चलते थे , उनके लिये हैलमेट जरूरी कर दिया गया ।
एक सर्कुलर जारी हुआ कि वे जो बिना हैलमेट पाये जायें , उनकी तनख्वाह से 500 रुपये बतौर जुर्माना काट लिया जाये ।
आनंद स्वरूप वर्मा ने अपना हैलमेट आलमारी  में रख दिया ।
वे लोग जो स्वतः अनुशासित समाज और उसके जनतंत्र में विश्वास करते रहे हैं उन्हें यह सर्कुलर अच्छा नहीं लगा । कह सकते हैं कि ऐसी -ऐसी घटनाएं और नाफ़रमानी ही शायद ‘ शान – ए – सहारा ‘ बंद हो जाने की वजह बनी हों ।
याद आ रहा है 1991 – 92 का दौर । जब देश की राजनीति की एक खास काट में कन्डीशनिंग और प्रोसेसिंग हो रही थी । इसी दौर में गैट के उरुगवे चक्र का मसविदा , जिसपर अमेरिका जल्दी से जल्दी सहमति चाहता था , डंकल प्रस्ताव भी आया । गैट के चक्र की शुरुआत 1947 में हुई थी और आठवां चक्र ( टोकियो चक्र के बाद ) 1986 से 1990 तक के लिये था । चूँकि यह समझौता अभी तक नहीं हो पाया था इसलिए गैट के जनरल सेक्रेटरी आरथर डूंकेल के नाम से यह प्रस्ताव आया था । जिसे हर हाल 1992 तक स्वीकृत होना था ।
उस समय लखनऊ के हिंदी – अंग्रेजी किसी अखबार के संपादक को डंकल के बारे में क , ख भी नहीं मालूम था । तब दैनिक जागरण लखनऊ में समाचार संपादक एसके त्रिपाठी थे । उन्होंने मुझे डंकल प्रस्ताव पर कुछ नेताओं से बात करने का टास्क सौंपा । एनडी तिवारी समेत कई नेताओं से मिला । कोई कुछ नहीं बता सका । यह संयोग ही था कि एक सम्मेलन के सिलसिले में महान समाजवादी प्रो. मधु दंडवते लखनऊ आये थे । मैं उनसे मिला और उन्होंने बहुत आसान ढंग से मुझे  सबकुछ समझा दिया । पत्रकारों में पढ़ाई – लिखाई के प्रति अरुचि की शुरुआत का भी यही काल है ।

विद्यानिवास संपादक बने तो लोगों ने यज्ञोपवीत कॉलर के बाहर लटका लिया !

 

1991 में लखनऊ के नवभारत टाइम्स में , यह तो ठीक – ठीक नहीं याद कि किस वहज से , लेकिन लॉक आउट हुआ ।
कर्मचारियों ( पत्रकारों ) में दो गुट हो गये ।
एक गुट हड़ताल पर था और दूसरा गुट अपनी हाजिरी हर सुबह कार्टन होटल में और बाद में इंदिरानगर के दफ्तर में दर्ज कराने लगा ।
यह कितना सच है , यह नहीं कहा जा सकता लेकिन इसी समय एक चर्चा सांय – सांय फैली ।
आदरणीय राजेन्द्र माथुर जी नहीं रहे थे और सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर प्रबंधन का यह दवाब बढ़ता जा रहा था कि वे सारे कर्मचारियों को संविदा पर कर दें और नवभारत टाइम्स को टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुवाद वाले अखबार में बदल जाने दें ।
इससे पहले एक और बात की भी चर्चा जोर पर थी । वह यह कि टाइम्स का एक हिंदी साप्ताहिक निकलेगा । विष्णु खरे जी को इसका संपादक होना था और उन्होंने बीएम बडोला , कुलदीप कुमार के साथ एक टीम भी तैयार कर ली । लेकिन यह प्रोजेक्ट भी अमली जामा नहीं पहन सका ।
इस समय पहले संघी ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ) और देश के नवें प्रधानमन्त्री , पामुलापति वेंकट नरसिंम्ह राव थे । पहला संघी प्रधानमन्त्री उन्हें वे कुछ लोग मानते हैं (मैं नहीं ) जो अटल बिहारी वाजपेयी जी को अंतिम नेहरूवीयन मानते हैं ।
राजेन्द्र माथुर जी का निधन हो चुका था , सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बाद में नवभारत टाइम्स छोड़ दिया । इसके बाद ही मालिकान के एजेंडे को लागू करने पटना , लखनऊ और जयपुर यूनिटें बंद कराने के लिये ही एक पुष्यमित्र शुंग व्यक्तित्व लाये गये , प्रधान संपादक बनाकर ।
आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र ।
तब कुछ लोगों ने अपना यज्ञोपवीत कॉलर के बाहर लटका लिया । पटना से दिल्ली जाते हुए वे , लखनऊ में श्रमजीवी एक्सप्रेस पर , पंडित जी के लिये , नंगे बदन ( सिले कपड़े नहीं ) लोगों द्वारा , धुली लकड़ी से जले चूल्हे पर , बनी पूड़ी – सब्जी पहुंचाते थे ।
समाजवाद और सनातन धर्म के विलक्षण संयोग का कंटेंट भी लोगों को याद होगा ।
हिंदी पत्रकारिता में जाने किस का मुकुट भींग रहा था।
जारी….

पिछली कड़ियां–

भाऊ कहिन-20—मायावती की प्रेस कान्फ्रेंस में रिपोर्टर बस इमला लिखते थे !

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