छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी आज पूरी दुनिया में संघर्ष का पर्याय हैं। 2011 में उन्हें माओवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार कर भीषण प्रताड़ना दी गई। उनके गुप्तांगों में पुलिस ने कंकड़-पत्थर तक भर दिया था जो सुप्रीम कोर्ट में साबित हुआ। अफ़सोस ऐसा करने वाले पुलिस अफ़सर को राष्ट्रपति पदक मिला। सोनी सोरी कहती हैं कि सरकार आदिवासी क्षेत्रों में संसाधनों की लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को माओवादी कह देती है, जबकि यह लड़ाई इंसाफ़ की है। अफ़सोस की बात है कि महानगरों में बलात्कार के मुद्दे पर संवेदनशील नज़र आने वाला मध्यवर्ग आदिवासी महिलाओं के भीषण उत्पीड़न पर आमतौर पर चुप्पी साधे रहता है। बहरहाल सोनी सोरी की लड़ाई जारी है और वे इन दिनों छत्तीसगढ़ में जनगोलबंदी की बड़ी आवाज़ हैं..पेश है सोनी सोरी का इंटरव्यू इस उम्मीद के साथ कि 2017 वाक़ई नया सवेरा लाए– संपादक
सोनी: मेरे साथ जो हुआ, उस पर देश से विश्व भर तककई लोगों ने आवाज़ उठाई, छात्र, एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवियों ने भी.लेकिन हाँ, पूरी सच्चाई सामने आने के बाद भी देश भर में उस तरह से कुछ नहीं हुआ, जिस तरह निर्भया काण्ड में हुआ। निर्भया काण्ड ने, देश के हर सामाजिक स्तर के लोगों को दहला दिया. ऐसा मेरे मामले में नहीं हुआ, इसके कई कारण है.अगर बस्तर में जो हो रहा है उसकी बात करें, तो सिर्फ मेरे साथ नहीं, और भी औरतों के साथ, यहां जो हुआ है, जो सलवा जुडूम के समय हुआ और जिस तादाद में होता रहा, उसके बाद भी देश में कुछ चुनिन्दा लोगों (स्थानीय स्तर परपरमनीष कुंजमने) के अलावा किसी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई. एक तो बस्तर में हर चीज़ से माओवाद का नाम जोड़ दिया जाता है, जिस के कारण तमाम देश वासी यहां के आदिवासियो की पुलिस प्रताड़नापर न कुछ बोलते हैं और न ही दिलचस्पी लेते हैं. बाहर अगर कुछ होता है तो स्थानीय लोग कुछ आवाज़ उठाते हैं, लेकिन यहां पुलिस के दमन के चलते, न तो स्थानीय लोगों की आवाज़ बाहर आती ही और न ही यहां के पत्रकार/ अखबार उस पर कुछ लिखते हैं. पत्रकारों का भी का दमन बहुत ज़्यादा है, आप देख सकते हैं कि संतोष यादव के साथ क्या हुआ?
अगर आम तौर पर बात करें तो यह हमेशा से हम देखते आए हैंकि आदिवासी या देश के ग्रामीणों के साथ ऐसी कोई घटना होती है तो शहर में लोग कभी भी उस तरह से निकलकर नहीं बोलते, जितना वह शहर में अगर किसी के साथ कुछ हो, तब बोलते हैं. शहर वालों को उनसे कोई मतलब नहीं है. आदिवासियों/ग्रामीणों की लड़ाई से, उनके साथ हो रहे शोषण से उनको कोई लेना देना नहीं होता है.यहतय हैकि उन के प्रति किसी भी बात पर शहर के लोग सहानुभूति नहीं दिखाते. अगर यहाँ (बस्तर) में भी किसी गैर आदिवासी लड़की के साथ कुछ हो जाये, तो गैर आदिवासी लोग पूरे शहर में चक्का जाम कर देते हैं, वहींकुछ किलोमीटर दूर किसी गाँव की लड़की के साथ कुछ हो तोपुलिस वालों द्वारा तो छोड़िये, किसी के भी द्वारा होतो कोई एक शब्द नहीं बोलता है.
अभी हाल ही में पेदागेल्लुर में 4 औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और अनगिनत औरतों का शारीरिक शोषण किया गया.अखबारों में इस बारे में छपा, महिला अधिकार /मानव अधिकार वालों नेभी आवाज़ उठाई, इस मुद्दे को बाहर भी लाया गया लेकिन बाकी देश की आम जनता को शायद जिस तरह इस पर बोलना चाहिए था, कोई नहीं बोला औरकोई प्रभाव नहीं पड़ा. हालांकि बाहर के लोगों के साथ-साथ मेरा अब भी मानना है कि स्थानीय लोगों को और हिम्मत के साथ एकजुट होना चाहिए, लड़ना चाहिए, बिना डर के आवाज़ उठानी चाहिए, तब ही कुछ बदल पाएगा.इस पर, पूरे आदिवासी समाज की तरफ से पहल भी हो रही है. लेकिन इतने दमन के माहौल में जरुरी है कि बाहर से भी लोग इन मुद्दों पर बोलते रहें.
प्रश्न: जब आपअक्टूबर २०११ में जेलगयी, उसके बाद दिल्ली में आपके समर्थनमें लोगों ने आवाज़ उठानी शुरू की, बहुत लोगों का साथ मिला. काफी लोगों ने आपको चिट्ठियां भेजी, पोस्ट कार्डभेजे. आपने इस पर एक बार कहा था “जब दिल ख़राब होता है तो मैं एक-एक निकाल के पढ़ती हूँ.”देश विदेश के लोगों से,इस तरह केसमर्थनके, उस वक़्त जेल में क्या मायने थे?
सोनी: जेल में काफी समय तक मुझे नहीं पता था कि मेरे समर्थनमें इतने लोग हैं, फिर बाद में मानव अधिकार कार्यकर्ता आये और उन्होनें मुझे बताया
उसके पहले सच में मुझे ऐसा लगता था किजो भी मेरे साथ हो रहा है, जो भी लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, लड़ते-लड़ते जेल के अन्दर ही ख़त्म हो जाऊंगी.क्यूंकि लगता था कि मेरी लड़ाई जेल तक ही सीमित हो गई थी.मुझे नहीं पता था कि मेरी लड़ाई बहुत आगे तक जा चुकी है. वह तोचिट्ठियांपढ़ने से पता चला कि इतने लोगों का साथ है, फिर मुझे बहुत ताकत मिली और मैंने सोचा कि अब तो और लडूंगी. उन पत्रोंमें बहुत से शब्द थे, बहुत ऐसी चीज़ें थी, जिनसे मेरे अन्दर की सोई हुई ताक़त जागी.उनसेमुझे बहुत ताक़त मिलती थी. उन सब चिट्ठियों में, एक चिट्ठी थी जिसका मुझपर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा.उसपर कोई नाम नहीं लिखा था, एकपोस्ट कार्डहै, पिंजरा बना है तोते का, तोता अन्दर है, लेकिन उसकी चोंचबाहर निकली हुई है. उसे मैं हमेशा अपने साथ रखती थी, कोर्ट में भी, पर्स में लेकर जाती थी. वह चित्र मुझे हमेशा यह एहसास दिलाता था कि मेरा शरीर कैद है, पर मेरी आवाज़ बंद नहीं हुई. हां, मैं अपनी आवाज़ जितनी चाहें उठा सकती हूँ, मुझे उठानी चाहिए. यह जो चिड़िया है,वह पिंजरे में होते हुए भी गा रही है, तो मेरा भी सिर्फ शरीर कैद है, आवाज़ नहीं. यह सोच कर,मैं हमेशा उस चिट्ठीको अपने साथ रखती थी. इन पत्रोंसे मुझे पता चला किबाहर मेरे लिए कितना ज्यादा समर्थनहै.पहले मैं खुद के लिए लड़ रही थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि मुझे उन सब के लिए लड़ना है जो यहां मेरी तरह कैद हैं और जिनके पास इस तरह का समर्थननहीं है. कई पत्रोंमें तो लाल सलाम लिखा होता था,तो मैं सोचती थी, अरे यह जेल वाले कैसे इसको मुझे दे रहे हैं. कुछ तोबाहर के समर्थनका असर होगा, दबाव होगा तब ही, बिना काटे-पीटे सब ख़त देते थे.
प्रश्न: आपको जेल से निकले एक साल से ज्यादा हो गया है, आज के वक्त में आपको ऐसी सबसे बड़ी समस्या क्या लगती है, जिससे बस्तर के लोग जूझ रहे हैं?
सोनी: आज कीतारीखमें भी, जब मैं जेल में थी तब भी और आज बाहर हूं तब भी, मुझे एक ही सबसे बड़ी समस्या लगती है औरवही मेरे लिए सबसे बड़ा मुद्दा भी है, जिसके लिए मुझे लड़ना चाहिए. जेल में जो आदिवासी/ग्रामीण लोग बंद है.मुझे तो यह लगता है कि आखिर जेल से इनकी संख्या को कब घटाएंगे?यह मेरे मन की सोच है. लेकिन जैसा यहां चल रहा है, लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि और लोगों को जेलों में भर दिया जायेया मार दिया जाये. आदिवासी भाई-बहनों का इस तरह मर जाना, जेलों में डालना, एनकाउंटरकर देना और उनको एक आज़ाद सही ज़िन्दगी न मिलना, यही मेरे विचारमें सबसे बड़ी समस्या है. बस्तर की यह हालत मुझे सबसे गंभीर लगती है. न ढंग से बच्चे पढ़ पा रहे हैं, न लोग ढंग से जीवन-यापन कर पा रहे हैं, आदिवासी लोग खेती नहीं कर पा रहे हैं. हर समय डर-डर के रहते हैं, दिन में डर, रात को डर, इनकी ज़िन्दगी कहीं सुरक्षित है ही नहीं,24 घंटे इनके अन्दर डर है. क्योंकि इनके बीच मैं जाती हूं, तोयह लोग बातें रखते हैं,बताते हैं कि कोई बाज़ार/हाट तक नहीं जा पाते हैं,किसी चीज़ की आजादी नहीं, यहां पूरा डर बनाकर रखा है, कि पुलिस-फ़ोर्स कब आएगी, कब पकड़ के लेजायेगी. मुझे यही सबसे गंभीर मुद्दा लगता है.
अगर बस्तर में जो हो रहा है उसकी बात करें, सिर्फ मेरे साथ नहीं, और भी जो यहाँ औरतों के साथ हुआ है, जो सलवा जुडूम के समय हुआ और वह जिस तादाद में हुआ, उसके बाद भी देश में कुछ चुनिन्दा लोगों (स्थानीय स्तर परपरमनीष कुंजमने) के अलावा किसी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई.
प्रश्न: पिछले एक साल में जबसे नई सरकार आई है,क्या आपको लग रहा है कि लोगों को पकड़ना,उनपर दमन ज्यादा हो गया है? क्योंकि पिछले साल सरकार के साथ कुछ नए अफसर भी बस्तर आये हैं.जैसे एस.आर.पी. कल्लूरी, जिनके आने के बाद पुलिस बोल रही है कि नक्सलियों की ताक़त कम हो गयी है, हमेशा से ज्यादा अरेस्ट, सरेंडर, एनकाउंटरदिखा रहे हैं?जैसे एक रिपोर्ट के अनुसार, अकेले नवम्बर महीने में 18 लोगों का एनकाउंटरहुआ है. आप कुछ बताएंगी कि यहाँ अभी क्या चल रहा है? कितनी सच्चाई है इन सब में?
प्रश्न: अभी हालमें आप जो इतने एनकाउंटरके मुद्दे उठा रही हैं, उसमामले में आप नेबस्तर संभाग के IG समेत अन्य ने आपके खिलाफ काफी खुलकर बोला है.कहा जा रहा है कि आपको और आपके समर्थकों को धमकियां मिल रही हैं. फिर भी क्यों आप इन मुद्दों को उठा रही हैं?आपने जो यह नया मोर्चा खोला है, उसके बारे में थोड़ा और विस्तार से बतायेंगी?
सोनी: मैंनेअभी तक जितने भी मुठभेड़के मामले उठाये हैं,वह सब के सब ग्रामीण लोग थे जिनको फ़ोर्स द्वारा मार दिया गया. अब IG कुछ भी बोलें, मैं तो हर बार कहती हूं कि निष्पक्ष जांच करो, सब सामने आएगा. मैं हर बार, हर बात सामने ले कर आयी हूं.जिनको पुलिस नक्सली बोलकर मारती है, मैंने उनके परिवार, उनका घर, वह कहां का रहने वाला है, उसका वोटर कार्ड, यहां के SP से लेकर IG तक सबको पूरे सबूतों के साथ दिया. जिनको उन्होंने मारा है,वह खेती-किसानी करने वाले ग्रामीण आदिवासी हैं, माओवादी नहीं. अब सरकार कभी ऐसी कोई सफाई तो देकि उन्हें कैसे पता वह माओवादी था, कब से था, कौन सा हथियारउसके पास था?वहतो बस सबको इनामी बता देते हैं. मैं सबूत के साथ बोलती हूं, जैसे एक केसमें रेवाली गांव के भीमा नुप्पो को पुलिस ने मारा था. उसके बाद जब उसकी बीवी बुधरी शिकायत करने गयी तो पुलिस ने FIR में लिखा कि नक्सालियों ने उसे मार दिया. जिसके बाद गांववालों की एक बहुत बड़ी रैली और धरना-प्रदर्शन हुआ. पुलिस बार-बार बोलती रही कि उसको नक्सलियों ने मारा.फिर कुछ महीने बाद माओवादियों ने एक पर्चानिकाला, जिसमें भीमा नुप्पो के लिए लिखा था कि“कामरेडभीमा नुप्पो, लाल सलाम”. अब पुलिस कहती है कि वह नक्सली था. किसी को कामरेडकहा तो क्या वह माओवादी हो गया? किसीको लाल सलाम कहा तो वो माओवादी हो गया? इस तरह से काम करती है पुलिस.उनकी नज़र में हर कोई माओवादी है. मेरे पिताजी को तो नक्सालियों ने गोली मारी थी, फिर भी मुझे माओवादी कहते हैं.मैं तो एक खेती-किसानी करने वाले की बेटी थी, स्कूल में टीचरथी. आज एक केसको छोड़कर, मुझे सबमें बाइज्ज़त बरी किया गया है. सुप्रीमकोर्ट ने भी माना है कि मेरे खिलाफ केस ही नहीं है और मुझे ज़मानत दी है.अपनी सच्चाई की इतनी लड़ाई के बाद भी आज भी यह सरकार, पुलिस औरलोग यही सोचते हैं कि मैं माओवादियों के साथ हूं, क्यों?क्यूंकि मैं उनके झूठ को सामने ला रही हूँ? क्योंकि मैं चुप नहीं बैठ रही?
प्रश्न: आपके जेल से बाहर आने के बाद से, पिछले एक साल में एक कुछ अलग लहर चली है. गाँव के लोग सैकड़ों की तादाद में खुल कर बाहर आ रहे हैं, रैली कर रहे हैं,अपनी आवाज़ सामने ला रहे हैं.कभी आपके साथ, कभी खुद से भी. क्या यह बदलाव देखकर आपको कुछ उम्मीद दिख रही है? क्याकहीं दूर, कोई रोशनी की किरण आपको दिखाई दे रही है?
सोनी: जिस तरह गाँव के लोग जंगल से निकल कर बाहर आ रहे हैं, अपनी आवाज़ एकजुट होकर रख रहे हैं, उससे एक उम्मीद तो दिख रही है. देखिये सबसे बड़ी मुश्किल इसमें यह है कि पुलिस के पास भी हथियार हैं औरमाओवादियों के पास भी.हमारे पास कोई हथियार नहीं है. हमारी लड़ाई शांति की लड़ाई है.लोगों को लग रहा है कि शांति की लड़ाई में अगर लडते रहेंगे तो उनकी आवाज़बाहर जायेगी, शायद कुछ बदलेगा उससे.उनमें ऐसी आस है, विश्वास है औरवह विश्वास मैंने इधर कुछ समय मेंदेखा है. हमने जितनी रैलियां की हैं, उससे इतने सारे लोगों में जागरूकता आई हैकि आज वह हिम्मत कर केबाहर निकल रहे हैं, अपनी आवाज़ खुद रख रहे हैं.रैली के द्वारा, थाने पर जाकर अपनी मांगों को उठा रहे हैं.मेरे साथ भी औरकितनी बार अब तो मेरे बिना भी वह ऐसा कर रहे हैं. यह सब देख कर तो मेरी हिम्मत और उम्मीद हर दिन बढ़ती जा रही है. मैं सिर्फ इसी कोशिश में हूँ कि हमारा बस्तर संभाग एकत्रित हो, एकजुट होकर लड़े, किसी भी पार्टी का राजनेता हो, पहले अपने समाज को ऊपर रखे, हर जाति- हर धर्म के लोग एक होकर,बस्तर के हालात, नक्सल या सरकार के नाम से; जो लड़ाई उनसे चल रही है, इसका तीसरा समाधान हम कैसे निकाले, यह सोचना शुरु किया जाए. कोई और नहीं यहां के लोग ही मिलकर रास्ता निकाल सकते हैं. अभीसमाज की और से बैठकें हो रही है, चर्चा होनी शुरू हुई है कि कैसे राजनीति को अलग रखते हुए, यहां जो चल रहा है, उसको साथ मिलकर सामाजिक रूप से उठाया जाये और उसका हल ढूंढा जाये. इन सबसे मुझे उम्मीद है कि कहीं न कहीं अगर लोग जुड़ते रहे और लड़ाई को जारी रखें तो शायद कुछ बदलेगा, कोई रास्ता खुलेगा, इस रास्ते पर चलते-चलते, कोई अच्छा रास्ता खुलेगा.अब लोगों से बात करके लगता है कियहांके लोगों ने निश्चय कर लिया है कि कोई सुने या न सुने हम लड़ेंगे, अपनी बात रखेंगे. अंग्रेज़तो आकर चले गए, देश के लोग ही अग्रेज़ हो गए हैं, शायद उनसे भी बेकार.
प्रश्न: आप अपनी लड़ाई में धैर्य और रुचि कैसे बनाए रखती हैं?
सोनी: यह लड़ाई तो अभी और बहुत ज्यादा बढ़ने वाली है. जैसे गाँव-गाँव से छोटे-छोटे रैलियां-धरना-प्रदर्शन कर के, फिर जिला स्तरपर, फिर संभाग में मोर्चा
प्रश्न: आपकी ज़िन्दगी पहले और आज में कितनी बदल गयी है?
सोनी: बहुत ज्यादा बदल गयी है. जेल जाने से पहले मेरी ज़िन्दगी मेरे बच्चे, मेरा पति, मेरी नौकरी .. तक ही सीमित थी. जेल जाने के बाद सब बदल गया. पहले लगता था कि मुझे बच्चों के लिए कमाना है, बच्चों के लिए कुछ करना है, बच्चों को पढाना हैलेकिन अब लगता है की बच्चे तो मेरा कर्तव्य हैं ही, उनके प्रति मेरी ज़िम्मेदारी तो है लेकिन यह लड़ाई भी ज़रूरी है. जेल जाने के बाद मेरे अन्दर जो विचार जगे वह किसी किताब से नहीं आये हैंबल्कि अनुभव से आये हैं.लोगों की प्रताड़ना देखकर…वहां जेलों में कई ऐसे अनगिनत प्रताड़ना भोगचुके लोग हैं, उनसे बात कर कर के मुझमें यह विचार पैदा हुए हैं.विचार अब मेरी नस-नस में हैं. अब मेरा परिवार, बच्चे, लड़ाई सब को साथ में लेकर लड़ना है, कुछ करना है. मेरे विचारों में बहुत परिवर्तन आया है.मैं तो वही हूं, जो पहले थी लेकिन मेरे जो विचार थे, अबवह नए हैं, मेरे अन्दर जो पहले एक मासूमियत थी, सीधापन था, डर था..आज वो सब बिलकुल चला गया है. पहले घरेलू ज़िन्दगी जीना चाहती थी, अब लड़कर यहाँ की लोगों की सेवक बनकर जीना चाहती हूँ. पहले एक घर था, अब तो पूरी जनता ही मेरा घर-परिवार हो गई है.
प्रश्न: जब आप जेल में थी या अब जब बाहर हैं,क्या कभी यह विचार आयाकि बस अब सब छोड़ कर कुछ और करना चाहिए?
सोनी: जेल में रहकर जो हालात मैंने खुद देखे, जिन से लोगों को गुजरते हुए देखा उसके बाद तो जेल में तो ऐसा ख्याल कभी नहीं आया कि यह लड़ाई छोड़नी चाहिए. बस सोचती रहती थी कैसे सबको आजादी दिलवाओ, कैसे खुद आजाद हो पाऊंगी. जेल में रहकर जो रिश्ते मैंने बनाये, उसके बाद हमेशा यही विचार था कि लड़ना है. जिनका साथ मुझे बाहर से मिल रहा है, मुझे बाहर निकल कर उनके लिए कुछ करना है. मुझे आज भी याद है, जिस दिन मेरी रिहाई होने वाली थी, उस दिन के एक दिन पहले, सारी औरतों ने मिलकर,कैसे जुगाड़ करके जेल में मिठाई बनाई, जो किवहां कभी नहीं बनती है औरसबको बांटी. जेलरसे निवेदन किया कि खुलकर सबको दिन भर बात करने दी जाए, मिलने दिया जाएऔरजेलरने ऐसा किया भी. जब कोई जेल से निकलता है,तोआमतौर परपीछे बचे लोगों को ईर्ष्या होती है, गुस्सा भी आता है, बुरा लगता है. मुझे भी लगता था कि मैं कबनिकलूंगी. लेकिन जिस दिन मैं निकल रही थी, सब लोग खुश थे, बहुत उम्मीद के साथ उन्होंने मुझे कहा था किजैसे लोग बाहर तुम्हारे लिए लड़े हैं, अब बाहर जा कर हमारे लिए लड़ना. उन्होंने कहा कि हमको पूरी उम्मीद है की तुम लड़ोगी. यह जो आस लोगों ने लगा रखी है, मैं कभी भूल नहीं सकती.वो मेरे अन्दर हमेशा रहती है. हर दिन यह बात याद आती है.
हाँ, लेकिन जब मैं चुनाव लड़ी, जेलसेबाहरआई, यहांवापसआई तो कई बार आर्थिक परिस्थितियों के चलते, जो कि आज भी बहुत ख़राब है,कई बार बच्चों की हालत देखकर…यह सोच कर कितीनोंबच्चों को कुछ नहीं दे पा रही हूं,अब तो उनके पिता भी नहीं है…उनका खान-पान, कपडे, शिक्षा, इन सब का सोच कर कितनी बार यह सोच आती है कि शायद सब छोड़कर इनके लिए बस जीना चाहिए.क्योंकि अगर नहीं करती हूं तो यही संघर्ष वाली ज़िन्दगी मेरे बच्चों की रहेगी. मैं तो संघर्ष कर रही हूं, पर अपने बच्चों को क्यों इसमें डालूं, यह सोचकर कितने बार मन में ऐसा ख़याल आया. लेकिन फिर मैंने अपने बच्चों से खुलकर बात की, वही दोस्त हैं अब मेरे.उन्होंने कहा कि आप सिर्फ हमारा मत सोचो, सिर्फ हम तीन बच्चों की बात नहीं है, देखो कितने लोग आते हैं, आपके पास इस विश्वास से कि आप लड़ोगे उनके लिए, तो आप हमारे कारण उनका दिल कभी मत तोड़ें.
प्रश्न: इतने दबाव के बाद भी, लड़ने की ताकतकहां से आ रही है?
इसके अलावा जो यह लड़ाई है, अब मेरी नस-नस में बस गयी है, मेरे शरीर के अन्दर, मेरे अन्दर की सोच में विचार बस गया हैकि जैसे ही कुछ पता चलता है, कोई फ़ोन आता है, तो उसी समय बिना सोचे कि समय क्या है, पैसे न हों तो उधार ले कर, वहां रवाना हो जाती हूं. कभी दो वक़्त की रोटी के लिए भीऐसे जुगाड़ नहीं करती, जैसे ऐसे समय करती हूँ. इस लड़ाई तक पहुँचने के लिए बस मेरे अंदर कुछ हो गया है. मैं अपने आप को रोक ही नहीं पाती. अपने आप को. यहाँ अलग-अलग जगहों से कितने अवसर आते हैं, कि आपको गाडी चाहिए, बंगला चाहिए, पैसे चाहिए…लेकिन कभी ऐसा लालच नहीं आता कि अगर यह चीज़ ले लूं,तो बच्चों को शायद और अच्छी ज़िन्दगी दे सकूं. यह जो अन्दर सच्चाई है, वो कभी मिटने नहीं दूंगी. यह बिकाऊ नहीं है.मेरी सबसे बड़ी दौलत ही सच्चाई और लड़ाई है.यह संघर्ष मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है .
साथ ही मैं खुद भी प्रताड़ना की भुक्त भोगी हूंऔर मेरे अन्दर भी आक्रोश है, बदले की भावना है. जो मेरे साथ थाने में किया गया, उसको सोचती हूंतो एक अजीब सा आक्रोश आता है. अब इस शरीर ने जो प्रताड़ना सही है, इलेक्ट्रिक शॉकसे लेकर क्या-क्या नहीं झेला है, इनके हाथोंअपना पति खो दिया…अब किसी चीज़ का डर नहीं है, बस आक्रोश है.एक अलग ही तरह की हिम्मत है कि कैसे, कहाँ से पता नहीं. डर-भय सब जा चुका है. बस यही समझ आता है कि बाकी लोगों की लड़ाई में ही मेरी लड़ाई शामिल है. न्याय दिला सकूंगी या नहीं यह तो पता नहीं पर यहां जो हो रहा है उसकी सच्चाई और लोगों की आवाज़ बाहर तक पहुंचा दूँ बस यही मकसद है.
प्रश्न: सोनी एक नेता, सोनी एक योद्धा, एक एक्टिविस्ट, एक मां..इन सब किरदारों में कितनी भिन्नता है?
सोनी: इस लड़ाई और अपने बच्चों के बिना अपने आप को नहीं देख पाती हूं, अब ज़िन्दगी में सब कुछ यही है. अगर अपनी ज़िन्दगी से इस लड़ाई को हटा दूं, तो ख्याल आता है कि मेरे पति नहीं है, कि कितनी अकेली हूं, कि किस बेहरमी से मेरे पति को इन लोगों ने ख़त्म कर दिया.बहुत गुस्सा आता है, दुःख होता है…
प्रश्न: आपका एक आम दिन कैसा होता है? आप अपने खाली समय में क्या करना पसंद करती हैं?
सोनी: खाली समय मैं बच्चों के साथ समय बिताना पसंद करती हूं, खाना बनाना बहुत पहले छोड़ दिया था, घर में ज्यादा होती भी नहीं हूंतो बच्चे ही बनाते हैं, तो कभी जब मैं घर पर होती हूं, तो उनके साथबनाती हूं, साथ में खाते हैं, मस्ती करते हैं, एक दूसरे को सब बातें बताते हैं,मैं अपने काम के बारे में, वह अपने दोस्तों-स्कूल के बारे में, यहां-वहां की बातें करते हैं.फिर कभी पिताजी से मिलने गांव जाती रहती हूं.जेल में लगता था कि दिन ख़त्म ही नहीं हो रहा, अब हर दिन ऐसा लगता है कि इतनी जल्दी दिन ख़त्म हो जाता है. घर पर बहुत ही कम रह पाती हूं,फील्डमें रहती हूं या किसी न किसी काम से बाहर रहती हूं. मुश्किल सेसात दिन, हर महीने मेंहोते होंगे, जब मैंपूरे दिन घर पर होती हूं.
प्रश्न: गैर आदिवासियों को आदिवासियों से क्या क्या सीख लेनी चाहिए?
सोनी: सबसे ज्यादा जो मुझे बुरा लगता है, जो कि बाकी देश में बहुत सुनने को आता है, वह तो दहेज़ की प्रथा है.यहां ऐसी कोई प्रथा नहीं है. अगर पति तंग करता है या अत्याचार करता है, तो गांव के स्तर पर सब उसे मिल कर सुलझाने की कोशिश करते हैं. अगर लड़की को पति के साथ नहीं रहना हो, तो उसकी बात मान ली जाती है. यहां पैदाइश में भी ऐसा नहीं है कि लड़के की ख्वाहिश हो, उल्टा यहांतो हर कोई लड़की की आस लगाता है. इससे भी बढ़कर एक जो सबसे बड़ी चीज़ है वह है एकजुटता. यहां किसी एक के बच्चे कोसबका बच्चा मानते हैं.किसी भी एक के साथ अगर कुछ होता है तो सब उठकर उसके लिए बोलते हैं, लड़ते हैं.कई किलोमीटर दूर पर रह रहे लोगों को भी एक दूसरे की खैर खबर रहती है, चिंता रहती है. अगर किसीको कुछ करने के लिए पैसे की कमी है तो पूरा गाँव मिलकर मदद करता है. यह हमारी परंपरा और संस्कृति में हैं. लेकिन अब जो यह जंगचल रही है, इसके चलते धीरे-धीरे हमारी संस्कृति ख़त्म होती जा रही है. जब मैं बच्ची थी, तो छुट्टियों के दिनों में हम गांव जाते थे, तब हम रात जल्दी सारा काम ख़त्म कर, उसके बाद चांद कीरोशनी में 10 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक नाच गाना करते थे.उसी में लड़का-लड़कीएक-दूसरे को पसंद भी कर लेते थे. अब तो सब ख़त्म हो गया. आज हम आदिवासियों के नाम से कौन सा त्यौहार मनाया जाता है?पहले फसलें भी ज्यादा बोई जाती थी, अब सिर्फ धान रह गया है. मिल-जुलकर जो त्यौहार मनातेथे,वह सब बंद हो गया है. पुलिस किसी को मीटिंगनहीं करने देती अब, कोई करता है तो कहती है नक्सलियों की मीटिंग है.रात का तो समारोह एक-दम बंद हो गया है, रात क्या अब तो लोग दिन में भी नाच-गाना करने से डरते हैं. सार्केगुडा जैसी घटना के बाद तो मीटिंग के नाम से भी अब लोगों को डर लगने लगा है.
प्रश्न: और इस सब का सबसे ज्यादा असर औरतों पर होता है?
सोनी: हाँ, पुलिस के डर से मर्दों ने घर से निकलना छोड़ दिया है, अब धान कटाई हो, या जंगल से लकड़ी तोड़ के लानाया बाज़ार जाना, पुलिस के डर से सारा काम औरतों पर आ गया है. पुलिस की प्रताड़ना भी उनको ही सहनी पड़ती है. मर्दों को ज्यादा गिरफ्तारकिया जाता है,इसलिएगांव की तरफ या कहीं भी फोर्स वाले आते हैं तो उन्हें देख सारे मर्द भाग जाते हैं. गांव में औरते रहती हैं, जिनको फिर पुलिस प्रताड़ित करती है, मारती है, कितनी बार उनका शाररिक शोषण भी करती है. जैसे कि हाल ही में बीजापुर के पेदागेल्लुर और आस-पास के गांवों में हुआ. पेदागेल्लुर में तो जो किया औरवह भी जिस तरह से बैखौफ हो कर किया, वह दिल दहलाने वाला था. जैसे कि सलवा-जुडूम के समय होता था, यह सब इस कल्लूरी के आने के बाद से ज्यादा होने लगा है.एक साल पहले के मुकाबले, एक बेशर्मी, निडरता दिखती है फोर्स में.
इन सब के चलते, मर्दों में शराब पीने की समस्या बढ़ रही है, लोग नशा बहुत करने लगे हैं, लेकिन इसका बहुत असर औरतों पर पड़ रहा है।
प्रश्न: कोई पसंदीदाकविता या गाना?
सोनी: हमारे आदिवासियों का जो नाच गाना होता था, ज़मीन से जुड़े जो गाने होते थे वह ही पसंद है. अब सुनने को कम मिलते हैं. एक फिल्म है जो याद आती है, जब मेरे साथ जो हुआ और फिर जेल गयी तो उस पिक्चर याद आई थी, बैंडिट क्वीन. वह पिक्चर देखने के बाद सोचती थी की किसी के साथ ऐसा न हो पर जब खुद पर बीती, लोगों से उनपर हुई प्रताड़ना के बारे में सुना तो जहन में फिर से आई थी वह पिक्चर.
प्रश्न: लोगों से कुछ कहना चाहती हैं?
(यह साक्षात्कार, सह सम्पादक तीस्ता सेतलवाड़ के सहयोग से बस्तर में काम कर रहे, वकीलों के समूह, जगदलपुर लीगल एड ग्रुप की अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल ने किया है। यह समूह क्षेत्र के आदिवासियों को, झूठे आरोपों, अवैध हिरासत, हिरासत में अत्याचार और फर्ज़ी मुठभेड़ों से बचाने के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध करवा रहा है। )
सबरंग से साभार