अंशु मालवीय
इसमे कोई शक नहीं कि मोदी-योगी कम्बाइन अर्धकुंभ को कुंभ घोषित करते हुये उसकी ब्रांडिंग करने में सफल रहा है। ‘दिव्य कुंभ‘, ‘भव्य कुंभ‘ जैसे स्लोग्नों की लाल कालीनों के नीचे भारतीय समाज की बजबजाती सच्चाइयाँ उबल-उबलकर बाहर आ रही हैं जैसे सेप्टिक टैंक ओवरफ्लो करने पर जमीन में दबा मल बहकर सड़कों पर आ जाता है! इस स्वघोषित स्वच्छ कुम्भ के गगनभेदी शोर के पीछे वहाँ काम कर रहे सफाईकर्मियो की क्या हालत है- इस पर मीडिया, दलाल और सरकार खामोश है !
लेकर सफाई कामगारों के बीच गुस्सा उबल रहा है। शोषण और अपमान के खिलाफ और अपनी तमाम मांगों के पक्ष में सफाई कामगार मेला प्राधिकरण के दफ्तर पर जमा हो रहे हैं- गणतंत्र दिवस के अवसर पर शोषण और दमन के इस लोकतंत्र को आईना दिखाने। हालाँकि मेला प्रशासन ने मेले में धारा 144 लगा रखी है और किसी भी तरह के धरना प्रदर्शन पर रोक लगा दी है।
23 जनवरी 2013, जब वास्तविक कुंभ लगा था तब सफाई कर्मचारियों ने तकरीबन 12 घंटे की ऐतिहासिक हड़ताल की थी। इस हड़ताल का नतीजा था कि सफाईकर्मियो के प्रतिनिधि और मेला प्रशासन के बीच समझौता बातचीत हुई और 15 सूत्रीय माँग पत्र पर सहमति बनी। इसके बाद भी हर साल मेले में ज्ञापन और वार्ता का सिलसिला चलता रहा। इन सब प्रयासों के बाद भी प्रगति बहुत धीमी रही और आज इस तथाकथित्र स्वच्छ कुंभ में आर्थिक और जातीय शोषण अपने नंगे रूप में हैं। गाँधी जी और बाबा साहब का नाम भुनाने की फिराक़ में लगी भाजपा का ध्यान मेले के इन ”अछूत संतों” की तरफ नहीं है।
2013 की हड़ताल के बाद बमुश्किल तमाम 198 रूपए की दिहाड़ी तय की गई थी। उस समय आंदोलन की मांग 300 रूपए दिहाड़ी की थी। आज 6 साल बाद मेले में 295 रूपए दिहाड़ी दी जा रही है। ये दिहाड़ी उत्तर प्रदेश में तय न्यूनतम मज़दूरी से करीब 200 रूपए कम है। कुम्भ के मद में आधिकारिक रूप से 4200 करोड़ रूपए खर्च करने वाली सरकार के पास सरकारी कर्मचारियों को न्यूनतम मज़दूरी देने लायक इच्छाशक्ति नहीं है। जिस किसी ने कुम्भ मेला देखा है वह आसानी से समझ सकता है कि ये सफाई कर्मचारी मेले के लिए किस कदर ज़रूरी हैं। अगर ये न हों तो कुछ ही घंटों में मेला बजबजाने लगेगा और ”महामारी कुम्भ” हो जाएगा।
वैभव और विलास से भरे इस मेले में ठंड में अपर्याप्त कपड़ों और अपर्याप्त व्यवस्था के बीच 12-14 घंटे काम करने वाले ये सफाई कामगार अपनी मेहनत का उचित दाम पाने को भी तरस रहे हैं। जब उचित मज़दूरी ही नहीं मिल रही है तो ओवरटाइम और अन्य भत्तों का क्या पुरसा हाल। अभी पिछले मेलों को भी हिसाब बचा हुआ है। हज़ारों सफाई कामगार ऐसे हैं जिन्हें अभी पिछले मेलों का भी पूरा भुगतान नहीं मिला है। ऐसे में आंदोलित सफाई कामगार काम के घंटे 8 करने, 600 रूपया दिहाड़ी करने और इससे अधिक काम कराने की स्थिति में ओवर टाइम के भुगतान की मांग पर गोलबंद हो रहे हैं। सफाई कामगारों की यह भी मांग है कि उन्हें वेतन चेक या खाते के माध्यम से नहीं बल्कि नकद दिया जाए। यू.पी., बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात से आए ये सफाई कामगार ऐसे हालात में काम करने आते हैं जिसमें चेक से भुगतान या बाद में भुगतान से उनका काम नहीं चलता। उन्हें तुरन्त पैसों की ज़रूरत होती है। बहुतों के पास अभी भी बैंक खाते नहीं हैं या खाते खुलवाने के लिए आवश्यक कागज़ नहीं हैं।
एक आंकड़े के अनुसार मेले में सवा लाख टॉयलेट और करीब 25,000 सफाई कामगार हैं। दो तरह के सफाई के काम मेले में चल रहे हैं। टॉयलेट की सफाई और सड़क की सफाई तथा कूड़ा उठाना। टॉयलेट की सफाई और मल निस्तारण का काम प्राइवेट कम्पनियों को दिया गया है और सड़क की सफाई तथा कूड़ा निस्तारण का काम स्वास्थ्य विभाग सीधे कर रहा है। चाहे नियोक्ता कोई भी हो सफाई कामगार जिस एक समस्या से जूझ रहे हैं वह है बिचौलिया। सरकार और प्राइवेट कम्पनी दोनों ही किसी दबंग ज़मादार या ठेकेदार की मार्फत ही सफाई कामगारों की नियुक्ति करती हैं। सफाई कामगार संगठन और अन्य संगठनों की लगातार मांग रही है कि विज्ञापनों के द्वारा सीधे नियुक्ति हो। यह बिचौलिए य ठेकेदार सफाई कामगारों से तरह-तरह के नाजायज़ टैक्स वसूलते हैं और हर तरह की मांगों को दबाकर प्रशासन से सांठ-गांठ करते रहते हैं।
अगर मेले में सफाई कामगारों के हालात देखे जाएं तो साफ मालूम हो जाता है कि शौचालयों के निर्माण से लेकर उनकी कार्य स्थिति सभी “मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास नियम 2013” का उल्लंघन कर रहे हैं। ये सभी कामगार बगैर जूते, दस्ताने, मास्क के काम कर रहे हैं। कोई दुर्घटना बीमा नहीं है जबकि अब तक करीब 60 कामगार दुर्घटना में घायल हो चुके हैं। दो महीने पहले मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि मेले में काम कर रहे सफाई कामगारों एवं अन्य कामगारों के बच्चों के लिए आंगनबाड़ी की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। आंगनबाड़ी तो बहुत दूर की बात ठहरी अभी तक सभी सफाई कामगारों के राशन कार्ड भी नहीं बने हैं। जिनके बने हैं उन्हें भी राशन के लिए बार-बार दौड़ना पड़ रहा है।
सफाई कामगारों की इन दुश्वारियों के साथ ही वह चीज़ भी बदस्तूर मौजूद है-जिसे हमने धर्म और परम्परा के नाम पर बरसों सहेजा है-वह है जात-पांत। ये मेले बहुत संरचनागत तरीके से ‘दक्खिन टोलों’ का निर्माण करते हैं, यकीन न हो तो मेले में सफाई कामगारों की रिहाइश देख लीजिए। सन् 2013 की हड़ताल में एक प्रमुख मांग थी-सफाई कामगारों के लिए निश्चित जगहों का एलॉटमेंट और उनके लिए नए सुविधाजनक टेंट की उपलब्धता। इस नज़रिए से आइए मेले की जांच कर लें।
सफाई कामगारों की रिहाइशें दलदल, नालों के किनारे या टॉयलेट परिसर के बगल में बनाई गईं हैं जैसा हमेशा शहरों या गांवों में होता है। ज़्यादातर टेंट वही पुराने वाले हैं जिनमें खड़े होना तो दूर बैठना भी दूभर है। जहां नए टेंट दिए गए हैं उनमें 2 गैंग के बीच दो टेंट हैं यानि 16 लोग बच्चों सहित मय घर-गृहस्थी के सामान के साथ। कहानी यहीं पूरी नहीं होती। इन नए टेंटों को चारों ओर से टिन का बाड़ा बनाकर घेर दिया गया है-यानि सफाई कर्मचारियों की रिहाइश सामने दिखकर मेले को बदसूरत न बना दे। तो यह है मेले की दलित बस्ती-वहां का दक्खिन टोला। इस पर तुर्रा ये कि योगी-मोदी की फोटो के साथ पूरे शहर और मेले में होर्डिंग लगे हैं-एक भाव सद्भाव का !
इस सरकारी-कॉरपोरेटी सद्भाव के और बहुत से उदाहरण हैं। आए दिन साधू-संत, सफाई कामगारों के साथ मारपीट करते और जाति सूचक गालियां देते मिल जाएंगे। 16 दिसम्बर 2018 को मेला क्षेत्र में ही 55 वर्षीय एक बूढ़े सफाई कामगार का हाथ तोड़ दिया गया। न प्रशासन न कोई बिचैलिया मदद को आया।
तो यह है ”दिव्य कुम्भ“, जिसकी दिव्यता की चमक में सफाई कामगारों के दर्द टिमटिमा भी नहीं पाते। मीडिया ने इस दर्ज करने लायक भी नहीं समझा।
लेखक इलाहाबाद निवासी मशहूर कवि और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।