सबरीमाला विवाद: मीडिया का पोसा एक रक्तपिपासु दरिंदा !

संजीव कुमार

 

(के आर मीरा मलयाली लेखिका हैं और अपने उपन्यास ‘हैंगवुमन’ के लिए जानी जाती हैं. आज के इंडियन एक्सप्रेस के ‘गेंड इन ट्रांसलेशन’ स्तम्भ में उनके एक लेख के कुछ अंशों का अंग्रेज़ी अनुवाद छपा है. प्रस्तुत है, उस अंश का एक अंश, अनुवाद के अनुवाद में.)

सबरीमाला में जो आग धधक रही है, उसके लिए मैं मीडिया को दोषी मानती हूँ, ख़ासकर 24 घंटे वाले खबरिया चैनलों को. सबरीमाला विवाद एक रक्तपिपासु दरिंदा है जिसे मीडिया ने पाला-पोसा है. सभी राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया था. भाजपा और आरएसएस ने शुरू में सबरीमाला के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था. फ़ैसले का विरोध तंत्री के परिवार और पंडालम राजघराने ने किया. इन दोनों की तरफ से एक युवक ने टेलीविज़न चैनलों पर अपनी बात रखते हुए श्रद्धालुओं को दिग्भ्रमित करने और स्त्रियों के प्रवेश के ख़िलाफ़ दलील देने का प्रयास किया. दलील यह थी कि अय्यप्पा ब्रह्मचारी हैं.

मंदिर में 1951 तक महिलाएं नियमित रूप से जाती थीं. 80 के दशक तक भी वहाँ फिल्मों की शूटिंग होती थी.

लेकिन, जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना दिया, तब मीडिया ने विवाद को गरमाना शुरू किया. कांग्रेस ने सबसे पहले इस विवाद में एक अवसर की संभावना देखी. जल्द ही भाजपा सक्रिय हो गयी. ठीक जिस तरह एक सास अपने बेटे के पियक्कड़पन के लिए बहू को दोषी ठहराती है, इन्होंने भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराना शुरू किया, जबकि जिस केस पर यह फ़ैसला आया था, वह भाजपा-समर्थक वकीलों द्वारा दाख़िल किया गया था. सरकार का अपराध क्या है? क्या यही कि इसने आला अदालत के फ़ैसले को लागू करने की घोषणा की? दूसरी पार्टियां अपना स्टैंड बदलती रहीं. लेकिन मुख्यमंत्री पिनराई विजयन अपने स्टैंड पर टिके रहे.

सबरीमाला विवाद यह बताता है कि हमारा समाज और मीडिया कितनी गहराई में स्त्री-द्वेषी है. जिसे हम ‘विश्वास’ कहते हैं, वह हिंदुत्व के सार-तत्व के रूप में रूपांतरित स्त्री-द्वेष है. हमें यह सवाल पूछना होगा: प्रथाओं को ख़ारिज करने में ख़तरा क्या है? और यह किसके लिए ख़तरनाक है?
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सबरीमाला में [अदालत के फ़ैसले का] जो विरोध हो रहा है, वह आम महिलाओं को यह बताने की कोशिश है कि उदारवादी हिन्दू महिलाएं आस्था के खिलाफ़ हैं. आखिरकार, उदारवादी हिन्दू आज हिन्दू उग्रपंथियों के सबसे बड़े शत्रु हैं.

इसमें एक और बड़ी राजनीति निहित है, जाति की राजनीति. जातिवादी राजनीति बराबरी के ख़िलाफ़ है. बराबरी के ख़िलाफ़ राजनीति संविधान के ख़िलाफ़ राजनीति है. केरल के एक भाजपा नेता ने संविधान को जला देने का आह्वान किया है. क्या वजह है कि जो लोग थिएटर में राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने वालों पर हमले करते हैं, वे संविधान को आग के हवाले करने की बात करने वाले के ख़िलाफ़ कुछ नहीं करते? ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है—संविधान, जो मानवीय मूल्यों की महत्ता को संभालता-संजोता है, या परम्परा, जो जनता की बहुसंख्या का दमन करने और उन्हें विश्वास के नाम पर ग़ुलाम बनाने के लिए गढ़ी गयी है?

 

संजीव कुमार हिंदी के चर्चित आलोचक हैं।



 

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