दिलीप ख़ान
यही होड़ प्रद्युम्न (वही मासूम, जिसकी हत्या हुई) के परिजनों को टीवी पर लाने में भी मची है। चंद महीने पुराना रिपब्लिक टीवी ने इस होड़ में असंवेदनशीलता की सारी हदें पार कर दीं। प्रद्युम्न के पिता टाइम्स नाऊ पर लाइव थे। शायद उन्होंने रिपब्लिक को भी उसी के आस-पास का वक़्त दे रखा था। रिपब्लिक की पत्रकार हाथ बांधे बगल में खड़ी थीं और टाइम्स नाऊ वाले लैपल माइक सेट करने के बाद लाइव का इंतज़ार कर रहे थे। इसी दौरान रिपब्लिक की पत्रकार को दफ़्तर से फोन आया। फोन आते ही पहले तो उसने कैमरा हटाने की कोशिश की, लेकिन टोके जाने के बाद हाथ बांधकर बेचैन सी खड़ी हो गई। लाइव शुरू हुआ ही था कि रिपब्लिक से फिर फोन आया, तब तक टाइम्स नाऊ पर प्रद्युम्न के पिता ने बोलना शुरू किया ही था कि रिपब्लिक वाली लड़की झपट्टा मारते हुए उनकी कॉलर से माइक नोचने लगी। टाइम्स नाऊ की भी एक लड़की वहां खड़ी थी। प्रद्युम्न के पिता लाइव दे रहे थे और वो दोनों लड़कियां वहां लड़ रही थीं।
ये बेहद अश्लील दृश्य था। मन को भेद देने वाला। टीवी पर उबकाई लाने वाला। क्या इसे उस रिपोर्टर की व्यक्तिगत ग़लती बता कर आगे बढ़ा जा सकता है ? अगर आप पूरा पैटर्न देखेंगे तो आप नहीं बढ़ पाएंगे। कुंजीलाल से लेकर, प्रिंस के गड्ढ़े में गिरने से लेकर, जेएनयू से लेकर, राम रहीम से लेकर प्रद्युम्न तक आपको एक ख़ास डिजाइन दिखेगा। ग़लतबयानी, होड़, असंवेदनशीलता, और सनसनी का।
रिपब्लिक टीवी पहले दिन से न सिर्फ़ मुद्दों को लेकर असंवेदनशील है बल्कि एक ख़ास राजनीतिक एजेंडे को हमारे बीच पेश कर रहा है। उस राजनीतिक एजेंडे का सिरा उन लोगों से जुड़ा है जो लोग पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या पर जश्न मना रहे हैं और उन्हें गालियां दे रहे हैं। गौरी लंकेश की हत्या के बाद रिपब्लिक टीवी ने क्या किया ? एक चैनल को क्या करना चाहिए?
क़ायदे से गौरी लंकेश के लेखन, उनको मिल रही धमकियों और बाद में एक भाजपा नेता के इस बयान कि अगर वो संघ के ख़िलाफ़ नहीं लिखती तो ज़िंदा रहती, को मुद्दा बनाना चाहिए। जर्नलिस्ट फ्रैटर्निटी के नाम पर ही सही, हत्या के बाद गौरी के साथ आते। राज्य और केंद्र सरकार पर सवाल उठाते। लेकिन रिपब्लिक ने क्या किया ? रिपब्लिक ने पहले दिन से गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों पर सवाल उठाना शुरू किया जो आज तक जारी है।
प्रेस क्लब के बाहर जेएनयू की छात्र नेता और एक्टिविस्ट शेहला रशीद, गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में बोल रही थीं कि रिपब्लिक के एक पत्रकार ने माइक सामने रख दिया। वो इकलौती माइक था। शेहला ने माइक हटाने को कहा और रिपब्लिक टीवी के डिविसिव एजेंडे पर पांच-छह लाइन बोलती रही।
इसके बाद पत्रकारों के एक समूह, जिनमें लिबरल्स भी शामिल हैं, ने शेहला के ख़िलाफ़ ऑनलाइन भर्त्सना अभियान चलाया कि ये “मीडिया की आज़ादी” पर हमला है।
क्या सचमुच ये मीडिया की आज़ादी पर हमला है ? शेहला ने जब माइक हटाने को कहा तो क्या वो रिपोर्टर को संबोधित कर रही थी या रिपब्लिक को ? शर्तिया रिपब्लिक को। वो गुस्सा क्यों हो गई ? इसलिए, क्योंकि इस चैनल के प्रधान संपादक ने अपने पूर्ववर्ती चैनल टाइम्स नाऊ में रहते हुए शेहला, उमर ख़ालिद, कन्हैया कुमार और अनिर्बान भट्टाचार्य समेत समूची जेएनयू पर झूठी, अपमानजनक और एकतरफ़ा रिपोर्टिंग की।
निष्पक्षता की दलील देने वाले लोगों को सबसे पहले मीडिया से ये सवाल पूछना चाहिए फिर सिविल सोसाइटी के सदस्यों से। हम मानकर चलते हैं कि एक्टिविस्ट ख़ास विचारधारा के होते हैं। हमको ये बताया गया है कि पेशेवर मीडिया निष्पक्ष होना चाहिए। टाइम्स नाऊ और रिपब्लिक समेत कई चैनल्स इसमें पूरी तरह असफल साबित हुए हैं।
दूसरी बात कि गौरी लंकेश पर उस चैनल की लाइन देखने के बाद कोई भी प्रदर्शनकारी ऐसे रिएक्ट कर सकता था।
जिस तरह रिपब्लिक ने प्रद्युम्न के पिता के साथ व्यवहार किया, ऐसे में अगर वो फिर से फील्ड में जाए और हत्या के शिकार किसी व्यक्ति के परिचितों से बात करने आगे बढ़े, और उस परिचित ने रिपब्लिक टीवी का बदतमीज़ी भरा ये वीडियो देख रखा हो, तो बहुत मुमकिन है कि वो आपा खोकर पत्रकार की पिटाई कर दे। क्या लिबरल्स तब भी इसे “मीडिया की आज़ादी” पर हमला मानेंगे ?
मीडिया की आज़ादी कंटेंट गैदरिंग की आज़ादी से जुड़ा है, बदतमीज़ी और अपमानजनक व्यवहार करने से नहीं। मीडिया को जिस सत्ता ने अपना प्रचारतंत्र बना लिया है पहले मीडिया उससे आज़ादी मांगे। लेकिन कुछ लोग बदतमीज़ी और झूठी रिपोर्टिंग करने की आज़ादी के पक्ष में हो चले हैं।
(दिलीप ख़ान चर्चित टीवी पत्रकार हैं। फ़िलहाल राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं।)
वह वीडियो जिसमें रिपब्लिक टीवी की पत्रकार प्रद्युम्न के पिता की शर्ट पर लगा माइक नोचने के लिए झपट रही है। ‘जनता का रिपोर्टर ‘से साभार –