पंकज श्रीवास्तव
आखिरकार 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से यह तय हुआ कि बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना एक ‘अपराध’ था और साज़िश करने वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया जाना चाहिए। लेकिन इस बीच ‘प्रोजेक्ट हिंदुत्व’ के तहत एक और अपराध बड़े ज़ोर-शोर से हुआ जिस पर किसी कोर्ट में कोई सुनवाई ना हुई है, और ना होगी। यह अपराध है संघ परिवार द्वारा यह प्रचार करना कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का ही हिस्सा है और डॉ.अंबेडकर ने धर्म परिवर्त करके ‘हिंदुत्व’ को छोड़ा नहीं। राम और बुद्ध एक ही हैं।
यह दुष्प्रचार उसी अभियान का आधुनिक स्वरूप है जिसके तहत बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित करके तर्क और बुद्धि को प्रमुख मानने वाले समाज को अंधविश्वास में धकेला गया। डॉ.अंबेडकर ने इसे ही पागलपन बताया था। धर्म परिवर्तन करते वक्त जो 22 प्रतिज्ञाएँ उन्होंने कराई थीं उसमें पाँचवीं यही थी कि बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं मानेंगे।
यह ‘बोई’ गई आस्था का ही परिणाम है कि तमाम लोग रामायण को दस-बीस हजार या लाखो साल पहले की रचना बताने लगते हैं। जबकि रामकथा के आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में बौद्धों की तीखी आलोचना ही नहीं, उन्हें चोर की तरह दंडित किए जाने योग्य बताया गया है। ऐसा लगता है कि कि रामायण की रचना ज़्यादा से ज़्यादा तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व हुई होगी जब बौद्ध मत प्रबल हो रहा था और वैदिक धर्म को मानने वाले उससे परेशान थे।
इसका प्रमाण ख़ुद रामायण में है। क़िस्सा बड़ा दिलचस्प है। जब भरत की तमाम अनुनय विनय के बावजूद राम अयोध्या वापस आने को तैयार नहीं होते तो दशरथ के ‘याजक’ और ‘ब्राह्मण शिरोमणि’ जाबालि ने तब उनसे जो कहा उसका अर्थ कुछ यह था कि नाते-रिश्ते कुछ नहीं होते, हर व्यक्ति दुनिया में अकेला आता है। कोई परलोक-वरलोक नहीं होता। जाओ और अयोध्या में राज करो। राम इस ‘नास्तिकता’ और ‘बुद्ध के प्रभाव’ में आने के लिए जाबालि को ख़ूब कोसते हैें। एक श्लोक तो बेहद कड़ा है-
यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धःस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यात ।।
अर्थात- जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मु्ख न हो- उससे वार्तालाप तक ना करे।
(अयोध्याकांड, श्लोक 34,109वां सर्ग, पेज 528, वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर)
साफ़ है कि रामायण का रचनाकार बौद्धमत के बढ़ते प्रभाव से दुखी है और उन्हें चोरों की तरह दंड देने की माँग कर रहा है। गौतम बुद्ध चूंँकि छठीं शताब्दी ईसा पूर्व हुए तो यह रचना उसी दौर की हो सकती है जब बौद्ध मत तेज़ी से प्रबल हो रहा था। समाज के प्रतिष्ठित लोगों पर भी असर था। जाबालि का दशरथ का ‘याजक’ और ब्राह्मण होना भी यही बताता है। कथा का उपसंहार जााबालि यह कहते हुए करते हैं कि वे मौका देखकर नास्तिक या आस्तिक हो जाते हैं। चूंकि राम को अयोध्या लौटाने के सारे तर्क विफल हो गए थे तो उन्होंने नास्तिकता के तर्क से उन्हें समझाने का प्रयास किया।
‘आस्था’ का संबंध तुलसीदास की मानस से है। रामायण में जिस तरह सीता वनवास से लेकर शंबूकवध तक का वर्णन है, वह तमाम सवाल खड़े करता है। सीता महानायक राम के साथ जाने से बेहतर धरती में समाना समझती हैं और राम को भी अंत में जलसमाधि लेनी पड़ती है। यह कथा का एक त्रासद अंत है। इससे राम का ‘देवत्व’ कमज़ोर पड़ता, इसलिए तुलसी इस चक्कर में नहीं पड़े। उन्होंने ‘राजगद्दी’ पर रामचरितमानस समाप्त कर दी। तुलसी ने रचना अवधी में की और रामलीलाएँ भी शुरू कराईं। इसके पहले विष्णमंदिर तो मिलते थे, राम के नहीं। तुलसी ने भी कहीं ज़िक्र नहीं किया कि अयोध्या में कोई राममंदिर था जो तोड़ा गया। (उनके जैसा भक्त कवि इस पर चुप नहीं रह सकता था। अगर बाबर ने मंदिर तोड़ा होता तो समाज में हाहाकार ज़रूर हुआ होता।) उल्टा वे काशी के पंडितों से परेशान होकर माँग के खाने और मस्जिद में सोने की बात ज़रूर लिख गए हैं। कवितावली का यह छंद बहुत कुछ कहता है–
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काहूकी बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबौ, मसीत को सोइबो, लैबो को एकु न दैबे को दोऊ॥
अर्थात- चाहे कोई धूर्त कहे अथवा अवधूत ; राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से सम्पर्क रख कर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो राम का प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मस्जिद में सोना है; न किसी से एक लेना है, न दो देना है।
साफ़ है कि छल का जो सिलसिला बुद्ध से शुरू हुआ वह तुलसी से होते हुए डॉ.अंबेडकर तक पहुँचा है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर सत्य का संहार और मर्यादाओं का नाश ही इसका मक़सद है। गौरतलब है कि राम को पूजने वालों की कमी नहीं थी, लेकिन राममंदिर विवाद नहीं था। यह शुरु हुआ 1857 की क्रांति की तैयारियों से घबराए अंग्रेजों की नीति की वजह से। पहला विवाद 1853 में उठा। क्या उसके पहले राम या राममंदिर को लेकर अयोध्या में कोई आस्था नहीं थी ? वह कौन सी परंपरा थी कि अवध का नवाब आसफ़ुद्दौला हनुमान गढ़ी बनवाता है और वाजिद अली शाह जिहाद का नारा देकर अयोध्या की ओर कूच करने वाले अमेठी के मौलवी का सिर क़लम करवा देता है !
हिंदुत्व के नाम पर मचाए जा रहे हाहाकार का मक़सद सिर्फ़ नफ़रत के बीज बोकर सत्ता की फ़सल काटना है। राममंदिर के नाम पर भारत नाम के मंदिर को तोड़ देना है। यह शर्बत में ज़हर डालकर पानी और चीनी को अलग करने की कोशिश है। लोग ग़ुलाम बनें और उन्हें ग़ुलामी में आनंद आने लगे, धर्म के नाम पर पिलाए गए जा रहे मद का यही लक्ष्य है।
यह कठिन दौर है। तमाम दिये बुझते नज़र आ रहे हैं….अँधेरा और घना होगा या फिर यह भोर का भी संकेत है..? सोचो ज़रा..!
(लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं। )