राजस्थान के रण में ‘हारे हुए जुआरी’ ने चला धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण का कार्ड!

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अनिल जैन

राजस्थान के रेगिस्तान में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठने वाला है, इसका पता तो 11 दिसंबर को ही चलेगा, लेकिन पिछले तीन दिनों के दौरान विभिन्न इलाकों में हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी भाषणों पर गौर करें तो संकेत साफ है कि राजस्थान भाजपा के हाथ से निकलने जा रहा है। पिछले तीन दिनों में मोदी ने अपने भाषणों के जरिए चुनाव को सांप्रदायिक और जातिगत आधार पर बांटकर अपने पक्ष में मोडने की जी-तोड कोशिशें की है। इसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी अपनी ओर से पूरा योगदान दिया है लेकिन उनकी सारी कोशिशें बेअसर होती नहीं लग रही हैं।

राजस्थान में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया अब अंतिम दौर में पहुंच चुकी है। 11 दिसंबर को देश के जिन पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आना हैं, उनमें से राजस्थान समेत दो अन्य राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा सत्ता पर काबिज है, जबकि तेलंगाना और मिजोरम में वह हाशिये की पार्टी है। वैसे तो अपने शासन वाले तीनों ही सूबों में भाजपा को इस बार कांग्रेस की कडी चुनौती का सामना करना पडा है लेकिन इनमें भी राजस्थान ऐसा सूबा है जिसके बारे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी बहुत पहले से यह अहसास हो चुका है कि यहां सत्ता में वापसी आसान नहीं है। राजस्थान में पूरे चुनाव अभियान के दौरान एक नारा बहुत चर्चित हुआ है- ‘मोदी तुझ से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं!’ यह नारा न तो राजस्थान की जनता ने इजाद किया न ही वसुंधरा से नाराज भाजपा कार्यकर्ताओं ने। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने बडे ही योजनाबद्ध तरीके से इस नारे को मीडिया के जरिए प्रचारित कराया। मकसद यह कि प्रतिकूल चुनावी नतीजे आने पर कथित मोदी मैजिक की कलई को उतरने से बचाया जा सके और हार का ठीकरा वसुंधरा के माथे फोडा जा सके। वैसे भी राजस्थान में पिछले ढाई दशक से भाजपा और कांग्रेस के बीच बारी-बारी से सत्ता की अदला-बदली होती रही है। पिछली बार 2013 में सूबे के मतदाताओं ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर भाजपा को सत्ता सौंपी थी, लिहाजा पारंपरिक रुझान के मुताबिक इस बार सत्ता संभालने की बारी कांग्रेस की है।

पिछले चुनाव में भाजपा ने राज्य विधानसभा की 200 में से 163 सीटें हासिल कर तीन चौथाई से भी ज्यादा बहुमत हासिल किया था। इस ऐतिहासिक जीत के सिलसिले को उसने छह महीने बाद हुए लोकसभा के चुनाव में भी दोहराया और राज्य में लोकसभा की सभी 25 सीटों पर जीत हासिल की। दोनों ही जीत को ‘मोदी लहर’ का परिणाम माना गया था। लेकिन इसी वर्ष फरवरी में लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट के उपचुनाव और स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों ने बताया कि राज्य में अब मोदी लहर का कहीं अता-पता नहीं है। कांग्रेस ने न सिर्फ अलवर और अजमेर लोकसभा सीट तथा मांडलगढ विधानसभा सीट भारी अंतर से भाजपा से छीन ली, बल्कि स्थानीय निकायों के चुनाव में भी उसने भाजपा को बुरी तरह पराजित किया। यही नहीं, राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनाव में भी भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को विभिन्न विरोधी छात्र संगठनों के हाथों हार का सामना करना पडा। इन सारे चुनावी नतीजों ने कांग्रेस की उम्मीदों को परवान चढाया।

राजनीतिक दलों के लिहाज से राजस्थान की राजनीति आमतौर पर दो दलों- कांग्रेस और भाजपा के इर्द-गिदã ही केंद्रित रही है। हालांकि यहां कुछेक इलाकों में आदिवासियों के प्रतिष्ठित समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल के प्रभाव के चलते समाजवादी धारा की पार्टियों के अलावा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और वाम दलों का भी सीमित असर रहा है। आजादी के बाद से लेकर 1977 तक यहां लगातार कांग्रेस की ही सरकार रही। लेकिन आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की लहर के चलते यहां कांग्रेस का राजयोग भंग हुआ। भैरों सिंह शेखावत के नेतृत्व में यहां पहली बार गैर कांग्रेसी (जनता पार्टी) की सरकार बनी लेकिन जनता पार्टी के टूट जाने की वजह से वह महज ढाई साल ही चल पाई। 1980 से 1989 तक फिर लगातार कांग्रेस की सरकार बनती रही, लेकिन 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की लहर में कांग्रेस को भी यहां सत्ता से बेदखल होना पडा। एक बार फिर भैरों सिंह शेखावत की अगुवाई में भाजपा और जनता दल की साझा सरकार बनी। लेकिन इस बार भी यह गैर कांग्रेसी सरकार महज तीन साल ही चल सकी। इसके बाद 1993 में हुए विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में हालांकि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला लेकिन सबसे बडी पार्टी होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला। भैरों सिंह शेखावत फिर मुख्यमंत्री बने और उन्होंने जोड-तोड तथा निर्दलीय विधायकों के समर्थन से पूरे पांच साल सरकार चलाई। यहीं से शुरू हुआ भाजपा और कांग्रेस के बीच हर पांच साल में सत्ता की अदला-बदली का सिलसिला। 1998 के चुनाव में कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। उनकी सरकार का कामकाज कमोबेश अच्छा रहा था लेकिन 2003 के चुनाव में जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर भाजपा को सत्ता सौंप दी। वसुंधरा राजे की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी जो पूरे पांच साल चली। 2008 में अशोक गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस फिर सत्ता पर काबिज हो गई, लेकिन 2013 में केंद्र की यूपीए सरकार के खिलाफ जनता में पनपी नाराजगी का खामियाजा कांग्रेस को राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भी उठाना पडा और वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा एक फिर सत्ता में लौट आई।

इस बार भी भाजपा फिर वसुंधरा राजे पर ही अपना दांव लगा कर चुनाव मैदान में उतरी, जबकि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित किए बगैर ही मैदान संभाला। भाजपा में वैसे भी फिलहाल वसुंधरा के नेतृत्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। सूबे के कद्दावर नेता और शेखावत तथा वसुंधरा की पिछली सरकार में मंत्री रहे घनश्याम तिवाडी ने जरुर वसुंधरा के नेतृत्व को चुनौती देने की कोशिश की थी। उन्होंने वसुंधरा पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे और उनकी मनमानी की शिकायत पार्टी नेतृत्व से की थी, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उनकी शिकायतों को कोई तवज्जो नहीं दी। आखिरकार तिवाडी ने गत 25 जून को आपातकाल की बरसी पर देश में अघोषित आपातकाल लागू होने की बात कहते हुए भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर ‘भारत वाहिनी’ के नाम से नई पार्टी गठित करने का ऐलान कर दिया। लेकिन भाजपा ने उनकी इस कवायद को भी कोई तवज्जो नहीं दी।

राजस्थान में भाजपा भले ही सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है और जनता वसुंधरा सरकार के प्रति तीव्र असंतोष है लेकिन पार्टी में वसुंधरा राजे अभी भी चुनौतीविहीन है। पार्टी न सिर्फ उनके चेहरे पर चुनाव लड रही है बल्कि उम्मीदवारों के चयन में भी उनकी ही मर्जी चली। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह चाहते हुए भी उनकी बनाई हुई सूची में ज्यादा काट-छांट नहीं कर सके। अमित शाह लगभग 65 मौजूदा विधायकों के टिकट काटना चाहते थे लेकिन वसुंधरा की जिद और तेवर के चलते उनका यह इरादा पूरा नहीं हो सका।

Bharatpur: Former Rajasthan chief minister and Congress General Secretary Ashok Gehlot addresses an election campaign, in Bharatpur, Friday, Nov. 30, 2018. (PTI Photo) (PTI11_30_2018_000197B)

उधर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना कोई उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। इस पद के आकांक्षी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट भी हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी भी। पायलट और जोशी सीमित जनाधार वाले नेता हैं, जबकि गहलोत न सिर्फ व्यापक जनाधार वाले नेता हैं, बल्कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में भी उनकी स्वीकार्यता पायलट और जोशी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। गहलोत इस समय पार्टी के महासचिव हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब उन्हें पार्टी का महासचिव नियुक्त कर संगठनात्मक मामलों का प्रभारी बनाया था तो यह माना गया था कि पार्टी नेतृत्व ने उन्हें राज्य की राजनीति से दूर कर दिया है लेकिन हकीकत यही है कि राजस्थान में गहलोत ही पार्टी के स्वाभाविक, अनुभवी और विश्वसनीय नेता हैं। यही वजह है कि पार्टी नेतृत्व ने उन्हें राज्य की राजनीति से दूर करने का जोखिम नहीं उठाया। सचिन पायलट अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद गहलोत को न तो चुनाव लडने से रोकने में कामयाब हुए और न ही उम्मीदवारों के चयन के लिए उनकी बनाई गई सूची को पार्टी नेतृत्व से तरजीह दिला सके। पार्टी नेतृत्व ने उम्मीदवारों के चयन में भी गहलोत की पसंद-नापसंद को ही ज्यादा महत्व दिया। पायलट खुद चुनाव लडने से बचना चाहते थे लेकिन गहलोत ने उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं होने दी। ऐसे में पायलट को अपने लिए सीट तय करने में भी काफी मशक्कत करनी पडी। पूरे चार दिन की मशक्कत के बाद उन्होंने अपने पुराने लोकसभा क्षेत्र से सौ किलोमीटर दूर टोंक सीट को अपने लिए चुना जहां मुस्लिम और गुर्जर मतदाताओं का बाहुल्य है।

भाजपा ने राज्य में 180 सीटों पर विजय का लक्ष्य रखते हुए अपने चुनाव अभियान को ‘मिशन 180’ नाम दिया है। इस मिशन में भाजपा की मदद के लिए हमेशा की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपनी ताकत झोंक रखी है। राज्य में सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने करीब तीन महीने पहले ही अपनी ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के जरिये चुनावी बिगुल फूंक दिया था। करीब दो महीने तक चली इस यात्रा में उन्होंने मेवाड, मारवाड, शेखावटी, हडौती आदि विभिन्न अंचलों की 165 विधानसभा सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर लोगों से अपने लिए जनादेश मांगा। उनकी इस यात्रा का समापन कराने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजस्थान पहुंचे थे। मोदी ने पूरे सूबे कुल 12 चुनावी सभाएं की हैं। उनके अलावा वसुंधरा राजे, अमित शाह, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज आदि दिग्गजों ने भी धुआंधार प्रचार किया। इन सभी नेताओं की कुल मिलाकर 232 सभाएं और करीब दो दर्जन रोड शो हुए।

वसुंधरा ने अपनी सत्ता सलामत रखने के चुनाव प्रचार के दौरान वह सब कुछ किया जो वे कर सकती थीं। उन्होंने अपने चुनावी दौरे में किसी इलाके में अपने को राजपूत बताया यानी ग्वालियर की पूर्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया की बेटी। किसी इलाके में वे जाट बन गईं यानी अपने ससुराल धौलपुर राजघराने की बहू। किसी इलाके में उन्होंने अपने बेटे के ससुराल का हवाला देते हुए अपने को गुर्जर बताने से भी परहेज नहीं किया। अंग्रेजी मीडिया या हाई सोसायटी के लोगों से बात करते वक्त वे अभिजात्य (एलीट) बन गईं तो ठेठ ग्रामीण इलाकों में लोगों के अभिवादन का जवाब आम राजस्थानी महिला की तरह ‘राम-राम’ से दिया। दिल्ली, मुंबई और विदेशों के पांच या सात सितारा होटलों में बैठने की अभ्यस्त वसुंधरा ने चुनाव की खातिर धोलपुर, जोधपुर, सीकर या उदयपुर की किसी ढाणी में चारपाई पर बैठने में भी कोई गुरेज नहीं किया। चुनावी दौरों में उन्होंने आदिवासी महिलाओं की पोशाक घाघरा-लुगडी को भी उसी सहजता से धारण किया, जितनी सहजता से वे डिजायनर साडी या जोधपुरी बंधेज पहनती हैं। अपनी तरह-तरह की भाव-भंगिमाओं से वे गांवों में भीड जुटाने में तो कामयाब रहीं लेकिन यह भीड वोट में किस हद तक तब्दील हुई है, इसका पता तो चुनाव नतीजों से लगेगा।

उधर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की हर मुमकिन कोशिश में जुटी कांग्रेस के चुनाव अभियान की शुरू आत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के जयपुर में 13 किलोमीटर लंबे रोड शो के माध्यम से हुई थी। राहुल ने राज्य के विभिन्न अंचलों में चुनावी रैलियां की और वसुंधरा सरकार के साथ ही रॉफेल विमान सौदे में कथित घोटाले तथा नोटबंदी की नाकामी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को भी निशाने पर लिया। अशोक गहलोत ने भी अपने निर्वाचन क्षेत्र सरदारपुरा का एक दौरा करने के बाद अपना पूरा जोर राज्य की अन्य सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों के प्रचार में लगाया।

कांग्रेस के नेता वसुंधरा सरकार की नाकामियों और जातीय समीकरणों का हवाला देते हुए हवा अपने पक्ष में होने का दावा कर रहे हैं। दो लोकसभा, एक विधानसभा सीट के उपचुनाव और स्थानीय निकाय एवं पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस ने लीक से हटकर राजपूत-ब्राह्मण कार्ड खेला है, उसे उसने कुछ फ़ेरबदल के साथ विधानसभा चुनाव में भी जारी रखा और भाजपा के प्रति दलितों की नाराजगी को भी खूब हवा दी।

चुनाव मैदान में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और नवगठित लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) भी अपनी मौजूदगी बनाए हुए है। एलजेडी ने अपने चार उम्मीदवार उतारे हैं। उसका कांग्रेस से गठबंधन हुआ है, लिहाजा वरिष्ठ समाजवादी नेता शरद यादव ने भी इस गठबंधन के समर्थन में चुनावी सभाएं की हैं। जहां तक बीएसपी की बात है, पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा ने 3.48 फीसदी वोट हासिल कर तीन सीटें जीती थीं। इस बार करीब सौ से अधिक सीटों पर उसके अकेले चुनाव लडने को भाजपा अपने लिए फायदे का सौदा मान रही है। लेकिन बीएसपी कहीं कांग्रेस को तो कहीं भाजपा के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। करीब 15 सीटों पर वह कांग्रेस और भाजपा को कडी टक्कर देते दिख रही है।

जहां तक चुनावी मुद्दों की बात है, दोनों ही पार्टियां राज्य के विकास को अपना मुख्य मुद्दा बता रही हैं, लेकिन जमीनी तौर पर आरक्षण, किसान और गाय ही मुख्य मुद्दे बने हुए हैं। आरक्षण को लेकर गुर्जर और जाट समुदाय के आंदोलन में झुलस चुके इस सूबे में दलित एट्रासिटी एक्ट के मुद्दे पर राजपूतों और ब्राह्मणों में भी भाजपा के प्रति नाराजगी है। भाजपा को इस बार गाय वोटों की कामधेनू नजर आ रही है। उसने गौ तस्करी को लंबे समय से मुद्दा बनाए रखा, जबकि कांग्रेस गौ तस्करी के शक में निरीह लोगों को पीट-पीटकर मार डालने की घटनाओं को लेकर सरकार और भाजपा को घेरती रही। इस सबके अलावा फसल के सही दाम नहीं मिलने और कर्ज के कारण किसानों की आत्महत्याओं के मामलों को भी कांग्रेस ने भाजपा सरकार के खिलाफ मुख्य मुद्दा बनाया।

दरअसल, वसुंधरा सरकार के पास अपनी उपलब्धियां बताने के लिए कुछ नहीं रहा। वह अपने इस पूरे कार्यकाल में कांग्रेस सरकार के समय शुरू की गई योजनाओं की रीपैकेजिंग के अलावा कुछ नया नहीं कर पाईं। कांग्रेस सरकार के समय शुरू हुई जयपुर मेट्रो परियोजना को भी वह अपनी ही उपलब्धि बताती रहीं। इसी तरह यूपीए सरकार के समय जिस बाडमेर रिफाइनरी का शिलान्यास यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया था, उसका भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों दोबारा शिलान्यास करा कर उसका श्रेय अपनी झोली में डालने का प्रयास किया गया। हालांकि रिफाइनरी का कार्य अभी भी शुरू नहीं किया जा सका है। राज्य में किसानों और डॉक्टरों के आंदोलन का सिलसिला रह-रहकर चलता रहा है। चुनाव से पहले भाजपा ने वादा किया था कि प्रति वर्ष 15 लाख लोगों को नौकरियां दी जाएगी। यह वादा पूरी तरह खोखला साबित हुआ है। राज्य में न तो नई नौकरियां निकल पाई और न ही नए उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ है। जो उद्योग-धंधे पहले से जारी थे, नोटबंदी और जीएसटी के चलते उनकी भी कमर टूट गई चुकी है, जिसके चलते वहां बडे पैमाने पर हुई छंटनी के चलते बेरोजगारों की संख्या में और इजाफा हुआ है। राज्य के सरकारी कर्मचारियों में भी वसुंधरा सरकार के प्रति तीव्र असंतोष है। कुल मिलाकर राजस्थान में सरकार के खिलाफ व्यापक स्तर पर जनाक्रोश दिखाई दे रहा है। इस जनाक्रोश से सूबे का राजनीतिक परिदृश्य स्पष्ट रूप से बदलता नजर आ रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस बार राजस्थान की जनता ‘महारानी’ वसुंधरा को राम-राम कहते हुए उनसे मुक्ति पा ले।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं

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