सत्ता से गठजोड़ यूँ ही रहा तो मेनस्ट्रीम मीडिया को कोई देखने-सुनने या पढ़ने वाला नहीं होगा ! 

पुण्य प्रसून वाजपेयी


क्या पत्रकारिता की धार भोथरी हो चली है? क्या मीडिया-सत्ता गठजोड ने पत्रकारिता को कुंद कर दिया है? क्या मेनस्ट्रीम मीडिया की चमक खत्म हो चली है? क्या तकनालाजी की धार ने मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारो की जरुरत को सीमित कर दिया है? क्या राजनीतिक सत्ता ने पूर्ण शक्ति पाने या वचर्स्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरु कर दिया है?

ये ऐसे सवाल हैं जो बीते चार बरस में तेजी से उभरे हैं। सत्ता के अनुकुल लगने की जद्दोजहद में जिस तरह मीडिया खोता जा रहा है उसमें मीडिया के भविष्य को लेकर कई आंशकायें उभर रही हैं। आंशाकायें इसलिये क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया को डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया खबरों को लेकर चुनौती देने लगा है। और ये चुनौती भी दोतरफा है। मीडिया-सत्ता गठजोड ने काबिल पत्रकारोंं को मेनस्ट्रीम से अलग किया तो उन्होंने अपनी उपयोगिता डिजिटल या सोशल मीडिया में बनायी, दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया में जिन खबरों को देखने की इच्छा दर्शको में थी, अगर वही गायब होने लगीं तो बडी तादाद में गैर पत्रकार भी सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यम से अलग अलग मुद्दों को उठाते हुये पत्रकार लगने लगे। मसलन ध्रूव राठी कोई पत्रकार नहीं है। आईआईटी से निकले 26 बरस के युवा हैं। लेकिन उनकी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे या घटना को लेकर आलोचनात्मक तरीके से डीजिटल मीडिया पर हफ्ते में 10 -10 मिनट के दो कैपसूल बना दें। उन्हे देखने वालो की तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि मेनस्ट्रीम अग्रेजी मीडिया का न्यूज चैनल रिपबल्कि या टाइम्स नाउ या इंडिया टुडे भी पिछड गया। यहाँ सवाल देखने वालो की तादाद का नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया की कुंद पडती धार का है,और जिस तरह मीडिया का विस्तार सत्ता के कब्जे के दायरे में करने के लिये मीडिया संस्थानो का नतमस्तक होना है, उसका भी है।

सवाल सिर्फ कन्टेट को लेकर ही नहीं है, बल्कि यही सवाल डिस्ट्रीब्यूशन से भी जुड जाता है। ध्यान दें तो मोदी सत्ता के विस्तार या उसकी ताकत के पीछे उसके मित्र कारपोरेट की पूंजी की बडी भूमिका रही है। बार-बार ये सवाल उठता है कि मुकेश अंबानी ने मुध्यधारा के 70 फिसदी मीडिया पर लगभग कब्जा कर लिया है। हिन्दी में सिर्फ आज तक और एबीपी न्यूज चैनल को छोड दें तो कमोवेश हर चैनल में दाँये-बाँये या सीधे पूंजी अंबानी की ही लगी हुई है। यानी शेयर उसी के हैं। अंबानी का मीडिया प्रेम यू नहीं जागा है और मोदी सत्ता नहीं चाहती तो जागता भी नहीं, ये भी सच है। धीरुभाई अंबानी के दौर में मीडिया में आबजर्वर ग्रुप के जरिये सीधी पहल जरुर हुई थी लेकिन तब कोई सफलता नही मिली। तब सत्ता की जरुरत भी अंबानी के मीडिया की जरुरत से कोई लाभ लेने वाली नहीं थी। मीडिया कोई लाभ का धंधा तो है नहीं । लेकिन सत्ता जब मीडिया पर नकेल कस ले तो मीडिया किसी भी धंधे से ज्यादा लाभ देने लगता है। सच ये भी है। क्योंकि सिर्फ़ विज्ञापनो से न्यूज चैनलों का पेट कितना भरता होगा, ये दो हज़ार करोड के विज्ञापन से समझा जा सकता है जो टीआरपी के आधार पर चैनलो में बंटते-खपते हैं। लेकिन राजनीतिक विज्ञापनों का आंकड़ा जब बीते चार बरस में बढ़ते-बढ़ते 22 से 30 हजार करोड़ तक जा पहुँचा है तो फिर मीडिया अगर सिर्फ धंधा है तो कोई भी मुनाफा कमाने में ही जुटा हुआ नजर आयेगा। जो सत्ता से लडे़गा उसकी साख जरुर मजबूत होगी लेकिन मुनाफा सिर्फ चैनल चलाने तक ही सीमित रह जायेगा।

सत्ता और कारपोरेट का खेल कैसे मीडिया को हड़पता है इसकी मिसाल एनडीटीवी पर कब्जे की कहानी है। मोदी सत्ता ही तमाम कारपोरेट प्लेयर को तलाशती रही कि वह एनडीटीवी पर कब्जा करें। उसने एक तरफ अगर सत्ता की मीडिया को अपने कब्जे में लेने की मानसिकता को उभार दिया तो उसका दूसरा सच यह भी है कि मीडिया चलाते हुये चाहे जितना घाटा हो जाये, लेकिन मीडिया पर कब्जा कर अगर उसे मोदी सत्ता के अनुकुल बना दिया जाये तो मोदी सत्ता ही दूसरे माध्यमों से मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट को ज्यादा लाभ दिला सकती है।  सबसे पहले सहारनपुर के गुप्ता बंधु, जिनका वर्चस्व दक्षिण अफ्रीका में राबर्ट मोगाबे के राष्ट्रपति होने के दौर में रहा, उनको एनडीटीवी पर कब्जे का ऑफर मोदी सत्ता की तरफ से दिया गया। बहरहाल, एनडीटीवी की बुक घाटे वाली लगी तो गुप्ता बंधु ने एनडीटीवी पर कब्जे से इंकार कर दिया। चुकि गुप्ता बंधुओ का कोई बिजनेस भारत में नहीं है तो उन्हे घाटे का मीडिया सौदा करने के बावजूद, राजनीतिक सत्ता से मिलने वाले ज्यादा लाभ की जानकारी नहीं रही। लेकिन भारत में काम कर रहे कारपोरेट के लिये ये सौदा आसान रहा। तो अंबानी ग्रूप इसमें शामिल हो गया। और माना जाता है कि आज नहीं तो कल एनडीटीवी के शेयर भी ट्रांसफर हो ही जायेगें।

इसी कड़ी में अगर जी ग्रुप को बेचने और खरीदने की खबरों पर ध्यान दें तो ये बात भी खुल कर उभरी कि आने वाले वक्त में जी ग्रुप को भी अंबानी खरीद रहे हैं। तो मीडिया पर कारपोरेट के कब्जे के सामानातांर ये भी सवाल उभरा कि कही मीडिया कारपोरेशन बनाने की स्थिति तो नहीं बन रही है। यानी कारपोरेट का कब्जा हर मीडिया हाउस पर हो और कारपोरेट सीधे सीधे सत्ता से समझौता कर ले। यानी कई मीडिया हाउस को मिलाकर बना कारपोरेशन सत्तानुकुल हो जाये और सत्ता इसके एवज में कारपोरेट को तमाम लाभ दूसरे धंधो में देने लगे। ऐसे में किसी तरह का कंपीटिशन भी चैनलो में नहीं रहेगा और खर्चे भी सीमित होगें जो सामन्य स्थिति में खबरों को जमा करने और डिस्ट्रीब्यूशन से बढ जाते हैं। कारपोरेट अगर मीडिया हाउस पर कब्जा कर रहा है तो फिर जनता तक जिस माध्यम से खबरे पहुंचती हैंं, वह केबल सिस्टम हो या डीटीएच, दोनो पर ही वही कारोपरेट कब्जा करने की दिशा में बढेगा ही, जिसने मीडिया हाउस को खरीदा।

और ध्यान दें तो यही हो भी रहा है। यानी न्यूज चैनलों में क्या दिखाया जाये और किन माध्यमो से जनता तक पहुंचाया जाये, इस पूरे बिजनेस को ही सत्ता के हिसाब से किया जा रहा है। यानी मीडिया में अलग-अलग प्लेयर से सौदेबाजी न करनी पड़े, ऐसी स्थिति बनाई जा रही है। वैसे, जिस तर्ज पर रशिया हुआ करता था या अभी कुछ हद तक चीन में सत्ता व्यवस्था है उसमें तो ये संभव है लेकिन भारत में कैसे संभव है? राजनीतिक तौर पर एकाधिकार की स्थिति में राजनीतिक सत्ता हमेशा आना चाहती रही है, ये अलग बात है कि मोदी सत्ता इसके चरम पर है। पर खतरा ये भी है कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता या आवश्यकता ही न खो दे। क्योकि जनता से जुड़े मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते हैं तो फिर हालात ये भी बन सकते हैं कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो होगा लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं होगा। तब सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं बल्कि कारोपरेट के मुनाफे का भी होगा। क्योंकि आज के हालात में ही जब मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता सत्ता के दबाब में धीरे धीरे खो रहा है तो फिर धीरे धीरे ये बिजनेस माडल भी भरभरा कर गिरेगा। सत्ता भी तभी तक मीडिया हाउस पर कब्जा जमाये कारपोरेट को लाभ दे सकती है जब तक वह जनता में प्रभाव डालने की स्थिति में हो। और इस कड़ी का सबसे बडा सच तो ये भी है जब मेनस्ट्रीम मीडिया ही सत्ता को अपने सवालों या रिपोर्ट से पालिश करने की स्थिति में नहीं होगा तो फिर सत्ता की चमक भी धीरे धीरे लुप्त होगी। उस परिस्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा भी बदल जायेगी और उसके तौर तरीके भी बदल जायेगें । क्योकि तब एक सुर में सत्ता के लिये गीत गाने वाले मीडिया का करपोरेशन में ढहाने के लिये ऐसे कोई भी पत्रकारीय बोल मायने रखेगें जो जनता के शब्दो को जुबाँं दे सकें।

तब सत्ता भी ढहेगी और मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट भी ढहेगें। क्योकि तब घाटा सिर्फ पूंजी का नहीं होगा बल्कि साख का होगा। और अंबानी समूह चाहे अभी सचेत ना हो लेकिन जिस दिशा में देश को सियासत ले जा रही है, और पहली बार ग्रामीण भारत के मुद्दे राष्ट्रीय फलक पर चुनावी जीत हार की दिशा में ले जा रहे है … और पहली बार संकेत यही उभर रहे हैं कि सत्ता के बदलने पर देश का इकनामिक माडल भी बदलना होगा। यानी सिर्फ सत्ता का बदलना भर अब लोकतंत्र का खेल नहीं होगा बल्कि बदली हुई सत्ता को कामकाज के तरीके भी बदलने होंगे । यानी जो कारपोरेट आज मीडिया हाउस के जरिये मोदी सत्ता के अनुकुल ये सोच कर बने हैं कि कल सत्ता बदलने पर वह दूसरी सत्ता के साथ भी सौदेबाजी कर सकते हैं,तउनके लिये ये खतरे की घंटी है।

 

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।



 

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