भारतीय मजदूरों के भयंकर शोषण का एक पहलू यह भी है कि हर साल कार्य संबंधी हादसों में 48000 श्रमिकों को अपनी जान गंवानी पडती है। सिर्फ भवन निर्माण कार्य में ही हर दिन 38 जानें जाती हैं। इन घटनाओं में घायल होकर शारीरिक रूप से अक्षम हो जाने वाले श्रमिकों की संख्या शामिल नहीं है। यह आंकड़े भी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के हैं जो सरकार द्वारा दी गई सूचनाओं पर आधारित होते हैं। पर सामाजिक मामलों के जानकार लोग इस बात को मानेंगे कि यह संख्या वास्तविकता से बहुत ज्यादा कम है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के अधिकांश मामले इसमें शामिल ही नहीं किये जाते।
हालिया उदाहरण के तौर पर देखें तो बड़ी संख्या में समुद्र में मछली पकड़ने निकले मछुआरे ओखी चक्रवात के शिकार हुए हैं क्योंकि इस तूफान की कोई अग्रिम चेतावनी दी ही नहीं गई थी। इसी तरह महाराष्ट्र के विदर्भ में इस वर्ष सैंकड़ों कृषि मजदूर कीटनाशक का छिड़काव करते हुए जान गंवा बैठे क्योंकि उनसे बग़ैर किसी सुरक्षा उपकरण के खतरनाक कीटनाशक का छिड़काव कपास के खेतों में कराया जा रहा था। लेकिन ऐसी घटनाओं को इन आंकड़ों में अक्सर शामिल नहीं किया जाता। इसी तरह बड़ी संख्या में सफाई कर्मी बगैर किसी सुरक्षा उपायों के गटर की सफाई के लिए उनमें उतरते हैं और जान से हाथ धो बैठते हैं लेकिन सम्बद्ध सरकारी विभाग इन्हें ठेकेदारों के माध्यम से काम करवाते हैं और खुद इन घटनाओं से साफ पीछा छुड़ा लेते हैं। यहां तक कि संगठित क्षेत्र के उद्योगों/उपक्रमों में अक्सर ही बहुत सारी मौतों को रिपोर्ट करने के बजाय छिपा लिया जाता है ताकि उचित मुआवजा देने से बचा जा सके।
इन घटनाओं को हादसा कहना भी गलत है क्योंकि समुचित सुरक्षा और इलाज की व्यवस्था से इनमें से अधिकांश जानें बचाई जा सकती हैं। पर ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के लिए संचालित पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर की जान बचाने के लिए मुनाफे में कमी मंजूर नहीं। वैसे भी बेरोजगार मजदूरों की एक बड़ी फ़ौज मौजूद है मृतक और अक्षम मजदूरों की जगह लेने के लिए। इसलिए निजी क्षेत्र ही नहीं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी श्रमिकों की सुरक्षा के उपायों पर खर्च को व्यर्थ खर्च मानकर उसमें कटौती की जाती है। कारखाने के श्रमिकों से ट्रक चलाने वालों, सड़क-रेल ट्रैक का मेंटेनेंस करने वालों से मंडियों में माल लादने-उतारने वाले, किसी भी क्षेत्र के श्रमिक हों सब जगह यही हालात हैं।
जान गंवाने और अक्षम होने वाले श्रमिकों को अक्सर कोई मुआवजा भी नहीं मिलता है या नाममात्र का ही मिलता है। अधिकांश श्रमिक तो इन कानूनों के अंतर्गत आते ही नहीं। आईएलओ के अनुसार ही 20% से भी कम भारतीय कामगार इन कानूनों के दायरे में आते हैं। लेकिन जो कानूनों के दायरे में आते भी हैं उन्हें भी इनका फायदा मुश्किल से ही मिल पाता है क्योंकि एक ओर तो श्रमिक संगठन कमजोर हुए हैं, दूसरी ओर श्रम विभाग हो या न्याय व्यवस्था दोनों मालिकों के हित में ही काम करते हैं। वर्तमान सरकार तो इन जैसे तैसे श्रम कानूनों को भी श्रम सुधारों के नाम पर ओर कमजोर करने में लगी है ताकि देशी विदेशी पूंजीपतियों को निवेश के लिए आकर्षित करने में कमजोर श्रमिक अधिकारों का हवाला दे सके।
मुकेश असीम