सितारा एंकर के एक बार फिर से टीवी स्क्रीन पर आने की खबर जानकर मन खुश हो गया. मुझे इस बात का इल्म है कि रोज टीवी स्क्रीन के जरिए लाखों लोगों के घर पहुंचने वाले शख्स के लिए ऑफ स्क्रीन हो जाने का क्या मतलब होता है? एक तरह से जीते-जी उसकी सांकेतिक मौत हो जाती है. शुक्र है कि ऐसे दौर में जब टीवी पर दिखने वाले लोगों के भीतर से मीडियाकर्मी तेजी से गायब होता जा रहा है, वो पार्टी प्रवक्ता या आइटी सेल इन्चार्ज हो जा रहे हों, पुण्य प्रसून के लिए इन्डस्ट्री में अभी जगह बची हुई है.
जिस तेजी से सफारी सूट विमर्श का दौर शुरू हुआ है और सपाट ढंग से चीजें बांट दी जा रही हो, ऐसे में पुण्य प्रसून का आजतक से एबीपी न्यूज में जाना इस बात का संकेत है कि प्रतिभा, मेहनत, ईमानदारी और प्रोफेशनलिज्म इस सफारी सूट विमर्श से आगे की चीज है. मैं जब अपने आसपास के लोगों को ऐसे विभाजन के तहत बातचीत करते देखता हूं तो अंदाजा लगा रहा होता हूं इससे दरअसल हमारे भीतर अपने पेशे की ईमानदारी छीजती है. हम आसानी से किसी खित्ते के हो जाते हैं जबकि पेशेवर ईमानदारी इससे कहीं आगे की चीज है. जी न्यूज प्रकरण (सुधीर चौधरी की गिरफ्तारी देश में अपातकाल के संकेत हैं) को छोड़ दें तो पुण्य प्रसून के काम में जो धार है वो पत्रकारिता के पुराने स्कूल की दुर्लभ चीज है. मुझे नहीं पता कि ये कब तक सुरक्षित रह पाएगी? एबीपी न्यूज को बधाई कि उन्हें ये एंकर-मीडियाकर्मी मिला. लेकिन…
जैसे ही मेरी नजर इस तस्वीर पर गयी, लगा एबीपी के इस टूटे तारे के लोगो के भीतर होने के बजाय पुण्य प्रसून को इसके बाहर होना चाहिए था. अभी देखें तो फिर भी लग सकता है कि इसमें गलत कुछ नहीं है. कितना अच्छा तो है कि चैनल ने पनाह दी लेकिन आगे जब इनके दो-चार दस शो हो जाते हैं तो यही तस्वीर कुछ और अर्थ बयां करने लगेगी. शायद सबसे पहले तो ये कि ये एंकर इस टूटे सितारे में समा नहीं पा रहा है. इसका आकार उससे कहीं ज्यादा बड़ा है. बहरहाल…
हम उम्मीद करते हैं कि ये एंकर यहां पहुंचकर अपने इस चैनल के लोगो को इस हद तक फैलाएगा कि ये सुरक्षा दायरा न लगकर, सुरक्षा कवच लगने लगेगा जिससे टीवी दर्शकों को लगे कि मीडिया धंधा अपनी जगह है लेकिन ज्ञान, समझ और तर्क का अपमान करते हुए एक बर्बर समाज की तरफ धकेलना चैनल का काम नहीं है.
फेसबुक दीवार से साभार